शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 29


<< श्रीशिवपुराण – Index

<< शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 28

शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति, भगवान् शिवका देवता आदिके अंगोंके ठीक होने और दक्षके जीवित होनेका वरदान देना, श्रीहरि आदिके साथ यज्ञमण्डपमें पधारकर शिवका दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिके द्वारा उनकी स्तुति

देवताओंने भगवान् शिवजीकी अत्यन्त विनयके साथ स्तुति करते हुए अन्तमें कहा – आप पर (उत्कृष्ट), परमेश्वर, परात्पर तथा परात्परतर हैं।

आप सर्वव्यापी विश्वमूर्ति महेश्वरको नमस्कार है।

आप विष्णुकलत्र, विष्णुक्षेत्र, भानु, भैरव, शरणागतवत्सल, त्र्यम्बक तथा विहरणशील हैं।

आप मृत्युंजय हैं।

शोक भी आपका ही रूप है, आप त्रिगुण एवं गुणात्मा हैं।

चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि आपके नेत्र हैं।

आप सबके कारण तथा धर्ममर्यादास्वरूप हैं।

आपको नमस्कार है।

आपने अपने ही तेजसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है।

आप निर्विकार, प्रकाशपूर्ण, चिदानन्दस्वरूप, परब्रह्म परमात्मा हैं।

महेश्वर! ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र और चन्द्र आदि समस्त देवता तथा मुनि आपसे ही उत्पन्न हुए हैं।

चूँकि आप अपने शरीरको आठ भागोंमें विभक्त करके समस्त संसारका पोषण करते हैं, इसलिये अष्टमूर्ति कहलाते हैं।

आप ही सबके आदिकारण करुणामय ईश्वर हैं।

आपके भयसे यह वायु चलती है।

आपके भयसे अग्नि जलानेका काम करती है, आपके भयसे सूर्य तपता है और आपके ही भयसे मृत्यु सब ओर दौड़ती फिरती है।

दयासिन्धो! महेशान! परमेश्वर! प्रसन्न होइये।

हम नष्ट और अचेत हो रहे हैं।

अतः सदा ही हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।

नाथ! करुणानिधे! शम्भो! आपने अबतक नाना प्रकारकी आपत्तियोंसे जिस तरह हमें सदा सुरक्षित रखा है, उसी तरह आज भी आप हमारी रक्षा कीजिये।

नाथ! दुर्गेश! आप शीघ्र कृपा करके इस अपूर्ण यज्ञका और प्रजापति दक्षका भी उद्धार कीजिये।

भगको अपनी आँखें मिल जायँ, यजमान दक्ष जीवित हो जायँ, पूषाके दाँत जम जायँ और भृगुकी दाढ़ी-मूँछ पहले-जैसी हो जाय।

शंकर! आयुधों और पत्थरोंकी वर्षासे जिनके अंग भंग हो गये हैं, उन देवता आदिपर आप सर्वथा अनुग्रह करें, जिससे उन्हें पूर्णतः आरोग्य लाभ हो।

नाथ! यज्ञकर्म पूर्ण होनेपर जो कुछ शेष रहे, वह सब आपका पूरा-पूरा भाग हो (उसमें और कोई हस्तक्षेप न करे)।

रुद्रदेव! आपके भागसे ही यज्ञ पूर्ण हो, अन्यथा नहीं।

ऐसा कहकर मुझ ब्रह्माके साथ सभी देवता अपराध क्षमा करानेके लिये उद्यत हो हाथ जोड़ भूमिपर दण्डके समान पड़ गये।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! मुझ ब्रह्मा, लोकपाल, प्रजापति तथा मुनियोंसहित श्रीपति विष्णुके अनुनय-विनय करनेपर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये।

देवताओंको आश्वासन दे हँसकर उनपर परम अनुग्रह करते हुए करुणानिधान परमेश्वर शिवने कहा।

श्रीमहादेवजी बोले – सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा और विष्णुदेव! आप दोनों सावधान होकर मेरी बात सुनें, मैं सच्ची बात कहता हूँ।

तात! आप दोनोंकी सभी बातोंको मैंने सदा माना है।

दक्षके यज्ञका यह विध्वंस मैंने नहीं किया है।

दक्ष स्वयं ही दूसरोंसे द्वेष करते हैं।

दूसरोंके प्रति जैसा बर्ताव किया जायगा, वह अपने लिये ही फलित होगा।

अतः ऐसा कर्म कभी नहीं करना चाहिये, जो दूसरोंको कष्ट देनेवाला हो।* दक्षका मस्तक जल गया है, इसलिये इनके सिरके स्थानमें बकरेका सिर जोड़ दिया जाय; भग देवता मित्रकी आँखसे अपने यज्ञभागको देखें।

तात! पूषा नामक देवता, जिनके दाँत टूट गये हैं, यजमानके दाँतोंसे भलीभाँति पिसे गये यज्ञान्नका भक्षण करें।

यह मैंने सच्ची बात बतायी है।

मेरा विरोध करनेवाले भृगुकी दाढ़ीके स्थानमें बकरेकी दाढ़ी लगा दी जाय।

शेष सभी देवताओंके, जिन्होंने मुझे यज्ञभागके रूपमें यज्ञकी अवशिष्ट वस्तुएँ दी हैं, सारे अंग पहलेकी भाँति ठीक हो जायँ।

अध्वर्यु आदि याज्ञिकोंमेंसे, जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमारोंकी भुजाओंसे और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषाके हाथोंसे अपने काम चलायें।

यह मैंने आपलोगोंके प्रेमवश कहा है।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! ऐसा कहकर वेदका अनुसरण करनेवाले सुरसम्राट् चराचरपति दयालु परमेश्वर महादेवजी चुप हो गये।

भगवान् शंकरका वह भाषण सुनकर श्रीविष्णु और ब्रह्मासहित सम्पूर्ण देवता संतुष्ट हो उन्हें तत्काल साधुवाद देने लगे।

तदनन्तर भगवान् शम्भुको आमन्त्रित करके मुझ ब्रह्मा और देवर्षियोंके साथ श्रीविष्णु अत्यन्त हर्षपूर्वक पुनः दक्षकी यज्ञशालाकी ओर चले।

इस प्रकार उनकी प्रार्थनासे भगवान् शम्भु विष्णु आदि देवताओंके साथ कनखलमें स्थित प्रजापति दक्षकी यज्ञशालामें पधारे।

उस समय रुद्रदेवने वहाँ यज्ञका और विशेषतः देवताओं तथा ऋषियोंका जो वीरभद्रके द्वारा विध्वंस किया गया था, उसे देखा।

स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, धृति, सरस्वती, अन्य समस्त ऋषि, पितर, अग्नि तथा अन्यान्य बहुत-से यक्ष, गन्धर्व और राक्षस वहाँ पड़े थे।

उनमेंसे कुछ लोगोंके अंग तोड़ डाले गये थे, कुछ लोगोंके बाल नोच लिये गये थे और कितने ही उस समरांगणमें अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे थे।

उस यज्ञकी वैसी दुरवस्था देखकर भगवान् शंकरने अपने गणनायक महापराक्रमी वीरभद्रको बुलाकर हँसते हुए कहा – ‘महाबाहु वीरभद्र! यह तुमने कैसा काम किया? तात! तुमने थोड़ी ही देरमें देवता तथा ऋषि आदिको बड़ा भारी दण्ड दे दिया।

वत्स! जिसने ऐसा द्रोहपूर्ण कार्य किया, इस विलक्षण यज्ञका आयोजन किया और जिसे ऐसा फल मिला, उस दक्षको तुम शीघ्र यहाँ ले आओ।’ भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर वीरभद्रने बड़ी उतावलीके साथ दक्षका धड़ लाकर उनके सामने डाल दिया।

दक्षके उस शवको सिरसे रहित देख लोककल्याणकारी भगवान् शंकरने आगे खड़े हुए वीरभद्रसे हँसकर पूछा – ‘दक्षका सिर कहाँ है?’ तब प्रभावशाली वीरभद्रने कहा – ‘प्रभो शंकर! मैंने तो उसी समय दक्षके सिरको आगमें होम दिया था।’ वीरभद्रकी यह बात सुनकर भगवान् शंकरने देवताओंको प्रसन्नतापूर्वक वैसी ही आज्ञा दी, जो पहले दे रखी थी।

भगवान् भवने उस समय जो कुछ कहा, उसकी मेरे द्वारा पूर्ति कराकर श्रीहरि आदि सब देवताओंने भृगु आदि सबको शीघ्र ही ठीक कर दिया।

तदनन्तर शम्भुके आदेशसे प्रजापतिके धड़के साथ यज्ञपशु बकरेका सिर जोड़ दिया गया।

उस सिरके जोड़े जाते ही शम्भुकी शुभ दृष्टि पड़नेसे प्रजापतिके शरीरमें प्राण आ गये और वे तत्काल सोकर जगे हुए पुरुषकी भाँति उठकर खड़े हो गये।

उठते ही उन्होंने अपने सामने करुणानिधि भगवान् शंकरको देखा।

देखते ही दक्षके हृदयमें प्रेम उमड़ आया।

उस प्रेमने उनके अन्तःकरणको निर्मल एवं प्रसन्न कर दिया।

पहले महादेवजीसे द्वेष करनेके कारण उनका अन्तःकरण मलिन हो गया था।

परंतु उस समय शिवके दर्शनसे वे तत्काल शरद्ऋतुके चन्द्रमाकी भाँति निर्मल हो गये।

उनके मनमें भगवान् शिवकी स्तुति करनेका विचार उत्पन्न हुआ।

परंतु वे अनुरागाधिक्यके कारण तथा अपनी मरी हुई पुत्रीका स्मरण करके व्याकुल हो जानेके कारण तत्काल उनका स्तवन न कर सके।

थोड़ी देर बाद मन स्थिर होनेपर दक्षने लज्जित हो लोकशंकर शिवशंकरको प्रणाम किया और उनकी स्तुति आरम्भ की।

उन्होंने भगवान् शंकरकी महिमा गाते हुए बारंबार उन्हें प्रणाम किया।

फिर अन्तमें कहा – ‘परमेश्वर! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये अपने मुखसे विद्या, तप और व्रत धारण करनेवाले ब्राह्मणोंको उत्पन्न किया था।

जैसे ग्वाला लाठी लेकर गौओंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार मर्यादाका पालन करनेवाले आप परमेश्वर दण्ड धारण किये उन साधु ब्राह्मणोंकी सभी विपत्तियोंसे रक्षा करते हैं।

मैंने दुर्वचनरूपी बाणोंसे आप परमेश्वरको बींध डाला था।

फिर भी आप मुझपर अनुग्रह करनेके लिये यहाँ आ गये।

अब मेरी ही तरह अत्यन्त दैन्यपूर्ण आशावाले इन देवताओंपर भी कृपा कीजिये।

भक्तवत्सल! दीनबन्धो! शम्भो! मुझमें आपको प्रसन्न करनेके लिये कोई गुण नहीं है।

आप षड् विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न परात्पर परमात्मा हैं।

अतः अपने ही बहुमूल्य उदारतापूर्ण बर्तावसे मुझपर संतुष्ट हों।’ ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार लोककल्याणकारी महाप्रभु महेश्वर शंकरकी स्तुति करके विनीतचित्त प्रजापति दक्ष चुप हो गये।

तदनन्तर श्रीविष्णुने हाथ जोड़ भगवान् वृषभध्वजको प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्ण हृदय और वाष्पगद् गद वाणीद्वारा उनकी स्तुति प्रारम्भ की।

तदनन्तर मैंने कहा – देवदेव! महादेव! करुणासागर! प्रभो! आप स्वतन्त्र परमात्मा हैं, अद्वितीय एवं अविनाशी परमेश्वर हैं।

देव! ईश्वर! आपने मेरे पुत्रपर अनुग्रह किया।

अपने अपमानकी ओर कुछ भी ध्यान न देकर दक्षके यज्ञका उद्धार कीजिये।

देवेश्वर! आप प्रसन्न होइये और समस्त शापोंको दूर कर दीजिये।

आप सज्ञान हैं।

अतः आप ही मुझे कर्तव्यकी ओर प्रेरित करनेवाले हैं और आप ही अकर्तव्यसे रोकनेवाले हैं।

महामुने! इस प्रकार परम महेश्वरकी स्तुति करके मैं दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर खड़ा हो गया।

तब सुन्दर विचार रखनेवाले इन्द्र आदि देवता और लोकपाल शंकरदेवकी स्तुति करने लगे।

उस समय भगवान् शिवका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिल उठा था।

इसके बाद प्रसन्नचित्त हुए समस्त देवताओं, दूसरे-दूसरे सिद्धों, ऋषियों और प्रजापतियोंने भी शंकरजीका सहर्ष स्तवन किया।

इसके अतिरिक्त उपदेवों, नागों, सदस्यों तथा ब्राह्मणोंने पृथक्-पृथक् प्रणामपूर्वक बड़े भक्तिभावसे उनकी स्तुति की (अध्याय ४१-४२)

* परं द्वेष्टि परेषां यदात्मनस्तद्भविष्यति।। परेषां क्लेदनं कर्म न कार्यं तत्कदाचन।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ४२।५-६)


Next.. (आगे पढें…..) >> शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 30

शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड का अगला पेज पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 30


Shiv Purana List


Shiv Stotra, Mantra


Shiv Bhajan, Aarti, Chalisa