शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 28


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, श्रीविष्णुका उन्हें शिवसे क्षमा माँगनेकी अनुमति दे उनको साथ ले कैलासपर जाना तथा भगवान् शिवसे मिलना

नारदजीने कहा – विधातः! महाप्राज्ञ! आप शिवतत्त्वका साक्षात्कार करानेवाले हैं।

आपने यह बड़ी अद्भुत एवं रमणीय शिवलीला सुनायी है।

तात! वीर वीरभद्र जब दक्षके यज्ञका विनाश करके कैलास पर्वतपर चले गये, तब क्या हुआ? यह हमें बताइये।

ब्रह्माजी बोले – नारद! रुद्रदेवके सैनिकोंने जिनके अंग-भंग कर दिये थे, वे समस्त पराजित देवता और मुनि उस समय मेरे लोकमें आये।

वहाँ मुझ स्वयम्भूको नमस्कार करके सबने बारंबार मेरा स्तवन किया।

फिर अपने विशेष क्लेशको पूर्णरूपसे सुनाया।

उसे सुनकर मैं पुत्रशोकसे पीड़ित हो गया और अत्यन्त व्यग्र हो व्यथित चित्तसे बड़ी चिन्ता करने लगा।

फिर मैंने भक्तिभावसे भगवान् विष्णुका स्मरण किया।

इससे मुझे समयोचित ज्ञान प्राप्त हुआ।

तदनन्तर देवताओं और मुनियोंके साथ मैं विष्णुलोकमें गया और वहाँ भगवान् विष्णुको नमस्कार एवं नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति करके उनसे अपना दुःख निवेदन किया।

मैंने कहा – ‘देव! जिस तरह भी यज्ञ पूर्ण हो, यजमान जीवित हो और समस्त देवता तथा मुनि सुखी हो जायँ, वैसा उपाय कीजिये।

देवदेव! रमानाथ! देवसुखदायक विष्णो! हम देवता और मुनि निश्चय ही आपकी शरणमें आये हैं।’ मुझ ब्रह्माकी यह बात सुनकर भगवान् लक्ष्मीपति विष्णु, जिनका मन सदा शिवमें लगा रहता है और जिनके हृदयमें कभी दीनता नहीं आती, शिवका स्मरण करके इस प्रकार बोले।

श्रीविष्णुने कहा – देवताओ! परम समर्थ तेजस्वी पुरुषसे कोई अपराध बन जाय तो भी उसके बदलेमें अपराध करनेवाले मनुष्योंके लिये वह अपराध मंगलकारी नहीं हो सकता।

विधातः! समस्त देवता परमेश्वर शिवके अपराधी हैं; क्योंकि इन्होंने भगवान् शम्भुको यज्ञका भाग नहीं दिया।

अब तुम सब लोग शुद्ध हृदयसे शीघ्र ही प्रसन्न होनेवाले उन भगवान् शिवके पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न करो।

उनसे क्षमा माँगो।

जिन भगवान् के कुपित होनेपर यह सारा जगत् नष्ट हो जाता है तथा जिनके शासनसे लोकपालोंसहित यज्ञका जीवन शीघ्र ही समाप्त हो जाता है, वे भगवान् महादेव इस समय अपनी प्राणवल्लभा सतीसे बिछुड़ गये हैं तथा अत्यन्त दुरात्मा दक्षने अपने दुर्वचनरूपी बाणोंसे उनके हृदयको पहलेसे ही घायल कर दिया है; अतः तुमलोग शीघ्र ही जाकर उनसे अपने अपराधोंके लिये क्षमा माँगो।

विधे! उन्हें शान्त करनेका केवल यही सबसे बड़ा उपाय है।

मैं समझता हूँ ऐसा करनेसे भगवान् शंकरको संतोष होगा।

यह मैंने सच्ची बात कही है।

ब्रह्मन्! मैं भी तुम सब लोगोंके साथ शिवके निवासस्थानपर चलूँगा और उनसे क्षमा माँगूँगा।

देवता आदि सहित मुझ ब्रह्माको इस प्रकार आदेश देकर श्रीहरिने देवगणोंके साथ कैलास पर्वतपर जानेका विचार किया।

तदनन्तर देवता, मुनि और प्रजापति आदि जिनके स्वरूप ही हैं, वे श्रीहरि उन सबको साथ ले अपने वैकुण्ठधामसे भगवान् शिवके शुभ निवास गिरिश्रेष्ठ कैलासको गये।

कैलास भगवान् शिवको सदा ही अत्यन्त प्रिय है।

मनुष्योंसे भिन्न किंनर, अप्सराएँ और योगसिद्ध महात्मा पुरुष उसका भलीभाँति सेवन करते हैं तथा वह पर्वत बहुत ही ऊँचा है।

उसके निकट रुद्रदेवके मित्र कुबेरकी अलका नामक महादिव्य एवं रमणीय पुरी है, जिसे सब देवताओंने देखा।

उस पुरीके पास ही सौगन्धिक वन भी देवताओंकी दृष्टिमें आया, जो सब प्रकारके वृक्षोंसे हरा-भरा एवं दिव्य था।

उसके भीतर सर्वत्र सुगन्ध फैलानेवाले सौगन्धिक नामक कमल खिले हुए थे।

उसके बाहरी भागमें नन्दा और अलकनन्दा – ये दो अत्यन्त पावन दिव्य सरिताएँ बहती हैं, जो दर्शनमात्रसे प्राणियोंके पाप हर लेती हैं।

यक्षराज कुबेरकी अलकापुरी और सौगन्धिक वनको पीछे छोड़कर आगे बढ़ते हुए देवताओंने थोड़ी ही दूरपर शंकरजीके वटवृक्षको देखा।

उसने चारों ओर अपनी अविचल छाया फैला रखी थी।

वह वृक्ष सौ योजन ऊँचा था और उसकी शाखाएँ पचहत्तर योजनतक फैली हुई थीं।

उसपर कोई घोंसला नहीं था और ग्रीष्मका ताप तो उससे सदा दूर ही रहता था।

बड़े पुण्यात्मा पुरुषोंको ही उसका दर्शन हो सकता है।

वह परम रमणीय और अत्यन्त पावन है।

वह दिव्य वृक्ष भगवान् शम्भुका योगस्थल है।

योगियोंके द्वारा सेव्य और परम उत्तम है।

मुमुक्षुओंके आश्रयभूत उस महायोगमय वटवृक्षके नीचे विष्णु आदि सब देवताओंने भगवान् शंकरको विराजमान देखा।

मेरे पुत्र महासिद्ध सनकादि, जो सदा शिव-भक्तिमें तत्पर रहनेवाले और शान्त हैं, बड़ी प्रसन्नताके साथ उनकी सेवामें बैठे थे।

भगवान् शिवका श्रीविग्रह परम शान्त दिखायी देता था।

उनके सखा कुबेर, जो गुह्यकों और राक्षसोंके स्वामी हैं, अपने सेवकगणों तथा कुटुम्बीजनोंके साथ सदा विशेषरूपसे उनकी सेवा किया करते हैं।

वे परमेश्वर शिव उस समय तपस्वीजनोंको परमप्रिय लगनेवाला सुन्दररूप धारण किये बैठे थे।

भस्म आदिसे उनके अंगोंकी बड़ी शोभा हो रही थी।

भगवान् शिव अपने वत्सल स्वभावके कारण सारे संसारके सुहृद् हैं।

नारद! उस दिन वे एक कुशासनपर बैठे थे और सब संतोंके सुनते हुए तुम्हारे प्रश्न करनेपर तुम्हें उत्तम ज्ञानका उपदेश दे रहे थे।

वे बायाँ चरण अपनी दायीं जाँघपर और बायाँ हाथ बायें घुटनेपर रखे, कलाईमें रुद्राक्षकी माला डाले सुन्दर तर्कमुद्रा*-से विराजमान थे।

इस रूपमें भगवान् शिवका दर्शन करके उस समय विष्णु आदि सब देवताओंने दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर तुरंत उनके चरणोंमें प्रणाम किया।

मेरे साथ भगवान् विष्णुको आया देख सत्पुरुषोंके आश्रयदाता भगवान् रुद्र उठकर खड़े हो गये और उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम भी किया।

फिर विष्णु आदि सब देवताओंने जब भगवान् शिवको प्रणाम कर लिया, तब उन्होंने मुझे नमस्कार किया – ठीक उसी तरह, जैसे लोकोंको उत्तम गति प्रदान करनेवाले भगवान् विष्णु प्रजापति कश्यपको प्रणाम करते हैं।

तत्पश्चात् देवताओं, सिद्धों, गणाधीशों और महर्षियोंसे नमस्कृत तथा स्वयं भी (श्रीविष्णुको एवं मुझको) नमस्कार करनेवाले भगवान् शिवसे श्रीहरिने आदर-पूर्वक वार्तालाप आरम्भ किया।

(अध्याय ४०)

* तर्जनीको अँगूठेसे जोड़कर और अन्य अँगुलियोंको आपसमें मिलाकर फैला देनेसे जो बन्ध सिद्ध होता है, उसे ‘तर्कमुद्रा’ कहते हैं।
इसीका नाम ज्ञानमुद्रा भी है।


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