शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 15


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक तथा उनके प्रति प्रणामका प्रसंग सुनाकर श्रीरामका सतीके मनका संदेह दूर करना, सतीका शिवके द्वारा मानसिक त्याग

श्रीराम बोले – देवि! प्राचीनकालमें एक समय परम स्रष्टा भगवान् शम्भुने अपने परात्पर धाममें विश्वकर्माको बुलाकर उनके द्वारा अपनी गोशालामें एक रमणीय भवन बनवाया, जो बहुत ही विस्तृत था।

उसमें एक श्रेष्ठ सिंहासनका भी निर्माण कराया।

उस सिंहासनपर भगवान् शंकरने विश्वकर्माद्वारा एक छत्र बनवाया, जो बहुत ही दिव्य, सदाके लिये अद्भुत और परम उत्तम था।

तत्पश्चात् उन्होंने सब ओरसे इन्द्र आदि देवगणों, सिद्धों, गन्धर्वों, नागादिकों तथा सम्पूर्ण उपदेवोंको भी शीघ्र वहाँ बुलवाया।

समस्त वेदों और आगमोंको, पुत्रोंसहित ब्रह्माजीको, मुनियोंको तथा अप्सराओंसहित समस्त देवियोंको, जो नाना प्रकारकी वस्तुओंसे सम्पन्न थीं, आमन्त्रित किया।

इनके सिवा देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और नागोंकी सोलह-सोलह कन्याओंको भी बुलवाया, जिनके हाथोंमें मांगलिक वस्तुएँ थीं।

मुने! वीणा, मृदंग आदि नाना प्रकारके वाद्योंको बजवाकर सुन्दर गीतोंद्वारा महान् उत्सव रचाया।

सम्पूर्ण ओषधियोंके साथ राज्याभिषेकके योग्य द्रव्य एकत्र किये गये।

प्रत्यक्ष तीर्थोंके जलोंसे भरे हुए पाँच कलश भी मँगवाये गये।

इनके सिवा और भी बहुत-सी दिव्य सामग्रियोंको भगवान् शंकरने अपने पार्षदोंद्वारा मँगवाया और वहाँ उच्चस्वरसे वेदमन्त्रोंका घोष करवाया।

देवि! भगवान् विष्णुकी पूर्ण भक्तिसे महेश्वरदेव सदा प्रसन्न रहते थे।

इसलिये उन्होंने प्रीतियुक्त हृदयसे श्रीहरिको वैकुण्ठसे बुलवाया और शुभ मुहूर्तमें श्रीहरिको उस श्रेष्ठ सिंहासनपर बिठाकर महादेवजीने स्वयं ही प्रेमपूर्वक उन्हें सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित किया।

उनके मस्तकपर मनोहर मुकुट बाँधा गया और उनसे मंगल-कौतुक कराये गये।

यह सब हो जानेके बाद महेश्वरने स्वयं ब्रह्माण्डमण्डपमें श्रीहरिका अभिषेक किया और उन्हें अपना वह सारा ऐश्वर्य प्रदान किया, जो दूसरोंके पास नहीं था।

तदनन्तर स्वतन्त्र ईश्वर भक्तवत्सल शम्भुने श्रीहरिका स्तवन किया और अपनी पराधीनता (भक्तपरवशता)-को सर्वत्र प्रसिद्ध करते हुए वे लोककर्ता ब्रह्मासे इस प्रकार बोले।

महेश्वरने कहा – लोकेश! आजसे मेरी आज्ञाके अनुसार ये विष्णु हरि स्वयं मेरे वन्दनीय हो गये।

इस बातको सभी सुन रहे हैं।

तात! तुम सम्पूर्ण देवता आदिके साथ इन श्रीहरिको प्रणाम करो और ये वेद मेरी आज्ञासे मेरी ही तरह इन श्रीहरिका वर्णन करें।

श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं – देवि! भगवान् विष्णुकी शिवभक्ति देखकर प्रसन्नचित्त हुए वरदायक भक्तवत्सल रुद्रदेवने उपर्युक्त बात कहकर स्वयं ही श्रीगरुडध्वजको प्रणाम किया।

तदनन्तर ब्रह्मा आदि देवताओं, मुनियों और सिद्ध आदिने भी उस समय श्रीहरिकी वन्दना की।

इसके बाद अत्यन्त प्रसन्न हुए भक्तवत्सल महेश्वरने देवताओंके समक्ष श्रीहरिको बड़े-बड़े वर प्रदान किये।

महेश बोले – हरे! तुम मेरी आज्ञासे सम्पूर्ण लोकोंके कर्ता, पालक और संहारक होओ।

धर्म, अर्थ और कामके दाता तथा दुर्नीति अथवा अन्याय करनेवाले दुष्टोंको दण्ड देनेवाले होओ; महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न, जगत्पूज्य जगदीश्वर बने रहो।

समरांगणमें तुम कहीं भी जीते नहीं जा सकोगे।

मुझसे भी तुम कभी पराजित नहीं होओगे।

तुम मुझसे मेरी दी हुई तीन प्रकारकी शक्तियाँ ग्रहण करो।

एक तो इच्छा आदिकी सिद्धि, दूसरी नाना प्रकारकी लीलाओंको प्रकट करनेकी शक्ति और तीसरी तीनों लोकोंमें नित्य स्वतन्त्रता।

हरे! जो तुमसे द्वेष करनेवाले हैं, वे निश्चय ही मेरे द्वारा प्रयत्नपूर्वक दण्डनीय होंगे।

विष्णो! मैं तुम्हारे भक्तोंको उत्तम मोक्ष प्रदान करूँगा।

तुम इस मायाको भी ग्रहण करो, जिसका निवारण करना देवता आदिके लिये भी कठिन है तथा जिससे मोहित होनेपर यह विश्व जडरूप हो जायगा।

हरे! तुम मेरी बायीं भुजा हो और विधाता दाहिनी भुजा हैं।

तुम इन विधाताके भी उत्पादक और पालक होओगे।

मेरा हृदयरूप जो रुद्र है, वही मैं हूँ – इसमें संशय नहीं है।

वह रुद्र तुम्हारा और ब्रह्मा आदि देवताओंका भी निश्चय ही पूज्य है।

तुम यहाँ रहकर विशेषरूपसे सम्पूर्ण जगत् का पालन करो।

नाना प्रकारकी लीलाएँ करनेवाले विभिन्न अवतारोंद्वारा सदा सबकी रक्षा करते रहो।

मेरे चिन्मय धाममें तुम्हारा जो यह परम वैभवशाली और अत्यन्त उज्ज्वल स्थान है, वह गोलोक नामसे विख्यात होगा।

हरे! भूतलपर जो तुम्हारे अवतार होंगे, वे सबके रक्षक और मेरे भक्त होंगे।

मैं उनका अवश्य दर्शन करूँगा।

वे मेरे वरसे सदा प्रसन्न रहेंगे।

श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं – देवि! इस प्रकार श्रीहरिको अपना अखण्ड ऐश्वर्य सौंपकर उमावल्लभ भगवान् हर स्वयं कैलास पर्वतपर रहते हुए अपने पार्षदोंके साथ स्वच्छन्द क्रीडा करते हैं।

तभीसे भगवान् लक्ष्मीपति वहाँ गोपवेष धारण करके आये और गोप-गोपी तथा गौओंके अधिपति होकर बड़ी प्रसन्नताके साथ रहने लगे।

वे श्रीविष्णु प्रसन्नचित्त हो समस्त जगत् की रक्षा करने लगे।

वे शिवकी आज्ञासे नाना प्रकारके अवतार ग्रहण करके जगत् का पालन करते हैं।

इस समय वे ही श्रीहरि भगवान् शंकरकी आज्ञासे चार भाइयोंके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं।

उन चार भाइयोंमें सबसे बड़ा मैं राम हूँ, दूसरे भरत हैं, तीसरे लक्ष्मण हैं और चौथे भाई शत्रुघ्न हैं।

देवि! मैं पिताकी आज्ञासे सीता और लक्ष्मणके साथ वनमें आया था।

यहाँ किसी निशाचरने मेरी पत्नी सीताको हर लिया है और मैं विरही होकर भाईके साथ इस वनमें अपनी प्रियाका अन्वेषण करता हूँ।

जब आपका दर्शन प्राप्त हो गया, तब सर्वथा मेरा कुशल-मंगल ही होगा।

माँ सती! आपकी कृपासे ऐसा होनेमें कोई संदेह नहीं है।

देवि! निश्चय ही आपकी ओरसे मुझे सीताकी प्राप्तिविषयक वर प्राप्त होगा।

आपके अनुग्रहसे उस दुःख देनेवाले पापी राक्षसको मारकर मैं सीताको अवश्य प्राप्त करूँगा।

आज मेरा महान् सौभाग्य है जो आप दोनोंने मुझपर कृपा की।

जिसपर आप दोनों दयालु हो जायँ, वह पुरुष धन्य और श्रेष्ठ है।

इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर कल्याणमयी सती देवीको प्रणाम करके रघुकुलशिरोमणि श्रीराम उनकी आज्ञासे उस वनमें विचरने लगे।

पवित्र हृदयवाले श्रीरामकी यह बात सुनकर सती मन-ही-मन शिवभक्तिपरायण रघुनाथजीकी प्रशंसा करती हुई बहुत प्रसन्न हुईं।

पर अपने कर्मको याद करके उनके मनमें बड़ा शोक हुआ।

उनकी अंगकान्ति फीकी पड़ गयी।

वे उदास होकर शिवजीके पास लौटीं।

मार्गमें जाती हुई देवी सती बारंबार चिन्ता करने लगीं कि मैंने भगवान् शिवकी बात नहीं मानी और श्रीरामके प्रति कुत्सित बुद्धि कर ली।

अब शंकरजीके पास जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगी।

इस प्रकार बारंबार विचार करके उन्हें उस समय बड़ा पश्चात्ताप हुआ।

शिवके समीप जाकर सतीने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया।

उनके मुखपर विषाद छा रहा था।

वे शोकसे व्याकुल और निस्तेज हो गयी थीं।

सतीको दुःखी देख भगवान् हरने उनका कुशल-समाचार पूछा और प्रेमपूर्वक कहा – ‘तुमने किस प्रकार परीक्षा ली?’ उनकी यह बात सुनकर सती मस्तक झुकाये उनके पास खड़ी हो गयीं।

उनका मन शोक और विषादमें डूबा हुआ था।

भगवान् महेश्वरने ध्यान लगाकर सतीका सारा चरित्र जान लिया और उन्हें मनसे त्याग दिया।

वेदधर्मका प्रतिपालन करनेवाले परमेश्वर शिवने अपनी पहलेकी की हुई प्रतिज्ञाको नष्ट नहीं होने दिया।

सतीका मनसे त्याग करके वे अपने निवासभूत कैलास पर्वतपर चले गये।

मार्गमें महेश्वर और सतीको सुनाते हुए आकाशवाणी बोली – ‘परमेश्वर! तुम धन्य हो और तुम्हारी यह प्रतिज्ञा भी धन्य है।

तीनों लोकोंमें तुम्हारे-जैसा महायोगी और महाप्रभु दूसरा कोई नहीं है।’ वह आकाशवाणी सुनकर देवी सती-की कान्ति फीकी पड़ गयी।

उन्होंने भगवान् शिवसे पूछा – ‘नाथ! मेरे परमेश्वर! आपने कौन-सी प्रतिज्ञा की है? बताइये।’ सतीके इस प्रकार पूछनेपर भी उनका हित चाहनेवाले प्रभुने पहले अपने विवाहके विषयमें भगवान् विष्णुके सामने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे नहीं बताया।

मुने! उस समय सतीने अपने प्राणवल्लभ पति भगवान् शिवका ध्यान करके उस समस्त कारणको जान लिया, जिससे उनके प्रियतमने उन्हें त्याग दिया था।

‘शम्भुने मेरा त्याग कर दिया’ इस बातको जानकर दक्षकन्या सती शीघ्र ही अत्यन्त शोकमें डूब गयीं और बारंबार सिसकने लगीं।

सतीके मनोभावको जानकर शिवने उनके लिये जो प्रतिज्ञा की थी, उसे गुप्त ही रखा और वे दूसरी-दूसरी बहुत-सी कथाएँ कहने लगे।

नाना प्रकारकी कथाएँ कहते हुए वे सतीके साथ कैलासपर जा पहुँचे और श्रेष्ठ आसनपर स्थित हो चित्तवृत्तियोंके निरोधपूर्वक समाधि लगा अपने स्वरूपका ध्यान करने लगे।

सती मनमें अत्यन्त विषाद ले अपने उस धाममें रहने लगीं।

मुने! शिवा और शिवके उस चरित्रको कोई नहीं जानता था।

महामुने! स्वेच्छासे शरीर धारण करके लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले उन दोनों प्रभुओंका इस प्रकार वहाँ रहते हुए दीर्घकाल व्यतीत हो गया।

तत्पश्चात् उत्तम लीला करनेवाले महादेवजीने ध्यान तोड़ा।

यह जानकर जगदम्बा सती वहाँ आयीं और उन्होंने व्यथित हृदयसे शिवके चरणोंमें प्रणाम किया।

उदारचेता शम्भुने उन्हें अपने सामने बैठनेके लिये आसन दिया और बड़े प्रेमसे बहुत-सी मनोरम कथाएँ कहीं।

उन्होंने वैसी ही लीला करके सतीके शोकको तत्काल दूर कर दिया।

वे पूर्ववत् सुखी हो गयीं।

फिर भी शिवने अपनी प्रतिज्ञाको नहीं छोड़ा।

तात! परमेश्वर शिवके विषयमें यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये।

मुने! मुनिलोग शिवा और शिवकी ऐसी ही कथा कहते हैं।

कुछ मनुष्य उन दोनोंमें वियोग मानते हैं।

परंतु उनमें वियोग कैसे सम्भव है।

शिवा और शिवके चरित्रको वास्तविकरूपसे कौन जानता है।

वे दोनों सदा अपनी इच्छासे खेलते और भाँति-भाँतिकी लीलाएँ करते हैं।

सती और शिव वाणी और अर्थकी भाँति एक-दूसरेसे नित्य संयुक्त हैं।

उन दोनोंमें वियोग होना असम्भव है।

उनकी इच्छासे ही उनमें लीला-वियोग हो सकता है*।

(अध्याय २५) * वागर्थाविव सम्पृक्तौ सदा खलु सतीशिवौ।

तयोर्वियोगोऽसम्भाव्यः सम्भवेदिच्छया तयोः।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० २५।६९)


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