शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 11


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


ब्रह्माजीसे दक्षकी अनुमति पाकर देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार तथा सती और शिवका विवाह

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! तदनन्तर मैं हिमालयके कैलास-शिखरपर रहनेवाले परमेश्वर महादेव शिवको लानेके लिये प्रसन्नतापूर्वक उनके पास गया और उनसे इस प्रकार बोला – “वृषभध्वज! सतीके लिये मेरे पुत्र दक्षने जो बात कही है, उसे सुनिये और जिस कार्यको वे अपने लिये असाध्य मानते थे, उसे सिद्ध हुआ ही समझिये।

दक्षने कहा है कि ‘मैं अपनी पुत्री भगवान् शिवके ही हाथमें दूँगा; क्योंकि उन्हींके लिये यह उत्पन्न हुई है।

शिवके साथ सतीका विवाह हो यह कार्य तो मुझे स्वतः ही अभीष्ट है; फिर आपके भी कहनेसे इसका महत्त्व और अधिक बढ़ गया।

मेरी पुत्रीने स्वयं इसी उद्देश्यसे भगवान् शिवकी आराधना की है और इस समय शिवजी भी मुझसे इसीके विषयमें अन्वेषण (पूछताछ) कर रहे हैं; इसलिये मुझे अपनी कन्या अवश्य ही भगवान् शिवके हाथमें देनी है।

विधातः! वे भगवान् शंकर शुभ लग्न और शुभ मुहूर्तमें यहाँ पधारें।

उस समय मैं उन्हें शिक्षाके तौरपर अपनी यह पुत्री दे दूँगा।’ वृषभध्वज! मुझसे दक्षने ऐसी बात कही है।

अतः आप शुभ मुहूर्तमें उनके घर चलिये और सतीको ले आइये।” मुने! मेरी यह बात सुनकर भक्त-वत्सल रुद्र लौकिक गतिका आश्रय ले हँसते हुए मुझसे बोले – ‘संसारकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी! मैं तुम्हारे और नारदके साथ ही दक्षके घर चलूँगा! अतः नारदका स्मरण करो।

अपने मरीचि आदि मानसपुत्रोंको भी बुला लो।

विधे! मैं उन सबके साथ दक्षके निवासस्थानपर चलूँगा।

मेरे पार्षद भी मेरे साथ रहेंगे।’ नारद! लोकाचारके निर्वाहमें लगे हुए भगवान् शिवके इस प्रकार आज्ञा देनेपर मैंने तुम्हारा और मरीचि आदि पुत्रोंका भी स्मरण किया।

मेरे याद करते ही तुम्हारे साथ मेरे सभी मानस-पुत्र मनमें आदरकी भावना लिये शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे।

उस समय तुम सब लोग हर्षसे उत्फुल्ल हो रहे थे।

फिर रुद्रके स्मरण करनेपर शिवभक्तोंके सम्राट् भगवान् विष्णु भी अपने सैनिकों तथा कमलादेवीके साथ गरुड़पर आरूढ़ हो तुरंत वहाँ आ गये।

तदनन्तर चैत्रमासके शुक्लपक्षकी त्रयोदशी तिथिमें रविवारको पूर्वा-फाल्गुनी नक्षत्रमें मुझ ब्रह्मा और विष्णु आदि समस्त देवताओंके साथ महेश्वरने विवाहके लिये यात्रा की।

मार्गमें उन देवताओं और ऋषियोंके साथ यात्रा करते हुए भगवान् शंकर बड़ी शोभा पा रहे थे।

वहाँ जाते हुए देवताओं, मुनियों तथा आनन्दमग्न मनवाले प्रमथगणोंका रास्तेमें बड़ा उत्सव हो रहा था।

भगवान् शिवकी इच्छासे वृषभ, व्याघ्र, सर्प, जटा और चन्द्रकला आदि सब-के-सब उनके लिये यथायोग्य आभूषण बन गये।

तदनन्तर वेगसे चलनेवाले बलवान् बलीवर्द नन्दिकेश्वरपर आरूढ़ हुए महादेवजी श्रीविष्णु आदि देवताओंको साथ लिये क्षणभरमें प्रसन्नतापूर्वक दक्षके घर जा पहुँचे।

वहाँ विनीतचित्तवाले प्रजापति दक्ष समस्त आत्मीय जनोंके साथ भगवान् शिवकी अगवानीके लिये उनके सामने आये।

उस समय उनके समस्त अंगोंमें हर्षजनित रोमांच हो आया था।

स्वयं दक्षने अपने द्वारपर आये हुए समस्त देवताओंका सत्कार किया।

वे सब लोग सुरश्रेष्ठ शिवको बिठाकर उनके पार्श्वभागमें स्वयं भी मुनियोंके साथ क्रमशः बैठ गये।

इसके बाद दक्षने मुनियोंसहित समस्त देवताओंकी परिक्रमा की और उन सबके साथ भगवान् शिवको घरके भीतर ले आये।

उस समय दक्षके मनमें बड़ी प्रसन्नता थी।

उन्होंने सर्वेश्वर शिवको उत्तम आसन देकर स्वयं ही विधिपूर्वक उनका पूजन किया।

तत्पश्चात् श्रीविष्णुका, मेरा, ब्राह्मणोंका, देवताओंका और समस्त शिवगणोंका भी यथोचित विधिसे उत्तम भक्तिभावके साथ पूजन किया।

इस तरह पूजनीय पुरुषों तथा अन्य लोगोंसहित उन सबका यथोचित आदर-सत्कार करके दक्षने मेरे मानस-पुत्र मरीचि आदि मुनियोंके साथ आवश्यक सलाह की।

इसके बाद मेरे पुत्र दक्षने मुझ पितासे मेरे चरणोंमें प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक कहा – ‘प्रभो! आप ही वैवाहिक कार्य करायें।’ तब मैं भी हर्षभरे हृदयसे ‘बहुत अच्छा’ कहकर उठा और वह सारा कार्य कराने लगा।

तदनन्तर ग्रहोंके बलसे युक्त शुभ लग्न और मुहूर्तमें दक्षने हर्षपूर्वक अपनी पुत्री सतीका हाथ भगवान् शंकरके हाथमें दे दिया।

उस समय हर्षसे भरे हुए भगवान् वृषभध्वजने भी वैवाहिक विधिसे सुन्दरी दक्षकन्याका पाणिग्रहण किया।

फिर मैंने, श्रीहरिने, तुम तथा अन्य मुनियोंने, देवताओं और प्रमथगणोंने भगवान् शिवको प्रणाम किया और सबने नाना प्रकारकी स्तुतियों-द्वारा उन्हें संतुष्ट किया।

उस समय नाच-गानके साथ महान् उत्सव मनाया गया।

समस्त देवताओं और मुनियोंको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ।

भगवान् शिवके लिये कन्यादान करके मेरे पुत्र दक्ष कृतार्थ हो गये।

शिवा और शिव प्रसन्न हुए तथा सारा संसार मंगलका निकेतन बन गया।

(अध्याय १८)


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