शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 9


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हिमवान् का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा माँगना और शिवका कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! तदनन्तर शैलराज हिमालय उत्तम फल-फूल लेकर अपनी पुत्रीके साथ हर्षपूर्वक भगवान् हरके समीप गये।

वहाँ जाकर उन्होंने ध्यान-परायण त्रिलोकीनाथ शिवको प्रणाम किया और अपनी अद्भुत कन्या कालीको हृदयसे उनकी सेवामें अर्पित कर दिया।

फल-फूल आदि सारी सामग्री उनके सामने रखकर पुत्रीको आगे करके शैलराजने शम्भुसे कहा—‘भगवन्! मेरी पुत्री आप भगवान् चन्द्रशेखरकी सेवा करनेके लिये उत्सुक है।

अतः आपके आराधनकी इच्छासे मैं इसको साथ लाया हूँ।

यह अपनी दो सखियोंके साथ सदा आप शंकरकी ही सेवामें रहे।

नाथ! यदि आपका मुझपर अनुग्रह है तो इस कन्याको सेवाके लिये आज्ञा दीजिये।’ तब भगवान् शंकरने उस परम मनोहर कामरूपिणी कन्याको देखकर आँखें मूँद लीं और अपने त्रिगुणातीत, अविनाशी, परमतत्त्वमय उत्तम रूपका ध्यान आरम्भ किया।

उस समय सर्वेश्वर एवं सर्वव्यापी जटाजूटधारी वेदान्तवेद्य चन्द्रकलाविभूषण शम्भु उत्तम आसनपर बैठकर नेत्र बंद किये तप (ध्यान)-में ही लग गये।

यह देख हिमाचलने मस्तक झुकाकर पुनः उनके चरणोंमें प्रणाम किया।

यद्यपि उनके हृदयमें दीनता नहीं थी, तो भी वे उस समय इस संशयमें पड़ गये कि न जाने भगवान् मेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगे या नहीं।

वक्ताओंमें श्रेष्ठ गिरिराज हिमवान् ने जगत् के एकमात्र बन्धु भगवान् शिवसे इस प्रकार कहा।

हिमालय बोले—देवदेव! महादेव! करुणाकर! शंकर! विभो! मैं आपकी शरणमें आया हूँ।

आँखें खोलकर मेरी ओर देखिये।

शिव! शर्व! महेशान! जगत् को आनन्द प्रदान करनेवाले प्रभो! महादेव! आप सम्पूर्ण आपत्तियोंका निवारण करनेवाले हैं।

मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

स्वामिन्! प्रभो! मैं अपनी इस पुत्रीके साथ प्रतिदिन आपका दर्शन करनेके लिये आऊँगा।

इसके लिये आदेश दीजिये।

उनकी यह बात सुनकर देवदेव महेश्वर-ने आँखें खोलकर ध्यान छोड़ दिया और कुछ सोच-विचारकर कहा।

महेश्वर बोले—गिरिराज! तुम अपनी इस कुमारी कन्याको घरमें रखकर ही नित्य मेरे दर्शनको आ सकते हो, अन्यथा मेरा दर्शन नहीं हो सकता।

महेश्वरकी ऐसी बात सुनकर शिवाके पिता हिमवान् मस्तक झुकाकर उन भगवान् शिवसे बोले—‘प्रभो! यह तो बताइये, किस कारणसे मैं इस कन्याके साथ आपके दर्शनके लिये नहीं आ सकता।

क्या यह आपकी सेवाके योग्य नहीं है? फिर इसे नहीं लानेका क्या कारण है, यह मेरी समझमें नहीं आता।’ यह सुनकर भगवान् वृषभध्वज शम्भु हँसने लगे और विशेषतः दुष्ट योगियोंको लोकाचारका दर्शन कराते हुए वे हिमालयसे बोले—‘शैलराज! यह कुमारी सुन्दर कटिप्रदेशसे सुशोभित, तन्वंगी, चन्द्रमुखी और शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है।

इसलिये इसे मेरे समीप तुम्हें नहीं लाना चाहिये।

इसके लिये मैं तुम्हें बारंबार रोकता हूँ।

वेदके पारंगत विद्वानोंने नारीको मायारूपिणी कहा है।

विशेषतः युवती स्त्री तो तपस्वीजनोंके तपमें विघ्न डालनेवाली ही होती है।

गिरिश्रेष्ठ! मैं तपस्वी, योगी और सदा मायासे निर्लिप्त रहनेवाला हूँ।

मुझे युवती स्त्रीसे क्या प्रयोजन है।

तपस्वियोंके श्रेष्ठ आश्रय हिमालय! इसलिये फिर तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये, क्योंकि तुम वेदोक्त धर्ममें प्रवीण, ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ और विद्वान् हो।

अचलराज! स्त्रीके संगसे मनमें शीघ्र ही विषयवासना उत्पन्न हो जाती है।

उससे वैराग्य नष्ट होता है और वैराग्य न होनेसे पुरुष उत्तम तपस्यासे भ्रष्ट हो जाता है।

इसलिये शैल! तपस्वीको स्त्रियोंका संग नहीं करना चाहिये; क्योंकि स्त्री महाविषय-वासनाकी जड़ एवं ज्ञान-वैराग्यका विनाश करनेवाली होती है।’* ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! इस तरहकी बहुत-सी बातें कहकर महायोगिशिरोमणि भगवान् महेश्वर चुप हो गये।

देवर्षे! शम्भुका यह निरामय, निःस्पृह और निष्ठुर वचन सुनकर कालीके पिता हिमवान् चकित, कुछ-कुछ व्याकुल और चुप हो गये।

तपस्वी शिवकी कही हुई बात सुनकर और गिरिराज हिमवान् को चकित हुआ जानकर भवानी पार्वती उस समय भगवान् शिवको प्रणाम करके विशद वचन बोलीं।

(अध्याय १२)

* भवत्यचल तत्सङ्गाद् विषयोत्पत्तिराशु वै।

विनश्यति च वैराग्यं ततो भ्रश्यति सत्तपः।।

अतस्तपस्विना शैल न कार्या स्त्रीषु संगतिः।

महाविषयमूलं सा ज्ञानवैराग्यनाशिनी।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० १२।३१-३२)


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