शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 8


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


भगवान् शिवका गंगावतरण तीर्थमें तपस्याके लिये आना, हिमवान् द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिवकी आज्ञाके अनुसार उनका उस स्थानपर दूसरोंको न जाने देनेकी व्यवस्था करना

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! हिमवान् की पुत्री लोकपूजित शक्तिस्वरूपा पार्वती हिमालयके घरमें रहकर बढ़ने लगीं।

जब उनकी अवस्था आठ वर्षकी हो गयी, तब सतीके विरहसे कातर हुए शम्भुको उनके जन्मका समाचार मिला।

नारद! उस अद्भुत बालिका पार्वतीको हृदयमें रखकर वे मन-ही-मन बड़े आनन्दका अनुभव करने लगे।

इसी बीचमें लौकिक गतिका आश्रय ले शम्भुने अपने मनको एकाग्र करनेके लिये तप करनेका विचार किया।

नन्दी आदि कुछ शान्त पार्षदोंको साथ ले वे हिमालयके उत्तम शिखरपर गंगावतार* नामक तीर्थमें चले आये, जहाँ पूर्वकालमें ब्रह्मधामसे च्युत होकर समस्त पापराशिका विनाश करनेके लिये चली हुई परम पावनी गंगा पहले-पहल भूतलपर अवतीर्ण हुई थीं।

जितेन्द्रिय हरने वहीं रहकर तपस्या आरम्भ की।

वे आलस्यरहित हो चेतन, ज्ञानस्वरूप, नित्य, ज्योतिर्मय, निरामय, जगन्मय, चिदानन्द-स्वरूप, द्वैतहीन तथा आश्रयरहित अपने आत्मभूत परमात्माका एकाग्रभावसे चिन्तन करने लगे।

भगवान् हरके ध्यानपरायण होनेपर नन्दी-भृंगी आदि कुछ अन्य पार्षदगण भी ध्यानमें तत्पर हो गये।

उस समय कुछ ही प्रमथगण परमात्मा शम्भुकी सेवा करते थे।

वे सब-के-सब मौन रहते और एक शब्द भी नहीं बोलते थे।

कुछ द्वारपाल हो गये थे।

इसी समय गिरिराज हिमवान् उस ओषधि-बहुल शिखरपर भगवान् शंकरका शुभागमन सुनकर उनके प्रति आदरकी भावनासे वहाँ आये।

आकर सेवकों-सहित गिरिराजने भगवान् रुद्रको प्रणाम किया, उनकी पूजा की और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़ उनका सुन्दर स्तवन किया।

फिर हिमालयने कहा—‘प्रभो! मेरे सौभाग्यका उदय हुआ है, जो आप यहाँ पधारे हैं।

आपने मुझे सनाथ कर दिया।

क्यों न हो, महात्माओंने यह ठीक ही वर्णन किया है कि आप दीनवत्सल हैं।

आज मेरा जन्म सफल हो गया।

आज मेरा जीवन सफल हुआ और आज मेरा सब कुछ सफल हो गया; क्योंकि आपने यहाँ पदार्पण करनेका कष्ट उठाया है।

महेश्वर! आप मुझे अपना दास समझकर शान्तभावसे मुझे सेवाके लिये आज्ञा दीजिये।

मैं बड़ी प्रसन्नतासे अनन्यचित्त होकर आपकी सेवा करूँगा।’ ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! गिरिराजका यह वचन सुनकर महेश्वरने किंचित् आँखें खोलीं और सेवकोंसहित हिमवान् को देखा।

सेवकोंसहित गिरिराजको उपस्थित देख ध्यानयोगमें स्थित हुए जगदीश्वर वृषभध्वजने मुसकराते हुए-से कहा।

महेश्वर बोले—शैलराज! मैं तुम्हारे शिखरपर एकान्तमें तपस्या करनेके लिये आया हूँ।

तुम ऐसा प्रबन्ध करो, जिससे कोई भी मेरे निकट न आ सके।

तुम महात्मा हो, तपस्याके धाम हो तथा मुनियों, देवताओं, राक्षसों और अन्य महात्माओंको भी सदा आश्रय देनेवाले हो।

द्विज आदिका तुम्हारे ऊपर सदा ही निवास रहता है।

तुम गंगासे अभिषिक्त होकर सदाके लिये पवित्र हो गये हो।

दूसरोंका उपकार करनेवाले तथा सम्पूर्ण पर्वतोंके सामर्थ्यशाली राजा हो।

गिरिराज! मैं यहाँ गंगावतरण-स्थलमें तुम्हारे आश्रित होकर आत्मसंयमपूर्वक बड़ी प्रसन्नताके साथ तपस्या करूँगा।

शैलराज! गिरिश्रेष्ठ! जिस साधनसे यहाँ मेरी तपस्या बिना किसी विघ्न-बाधाके चालू रह सके, उसे इस समय प्रयत्नपूर्वक करो।

पर्वतप्रवर! मेरी यही सबसे बड़ी सेवा है।

तुम अपने घर जाओ और मैंने जो कुछ कहा है, उसका उत्तम प्रीतिसे यत्नपूर्वक प्रबन्ध करो।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता जगदीश्वर भगवान् शम्भु चुप हो गये।

उस समय गिरिराजने शम्भुसे प्रेमपूर्वक यह बात कही—‘जगन्नाथ! परमेश्वर! आज मैंने अपने प्रदेशमें स्थित हुए आपका स्वागतपूर्वक पूजन किया है, यही मेरे लिये महान् सौभाग्यकी बात है।

अब आपसे और क्या प्रार्थना करूँ।

महेश्वर! कितने ही देवता बड़े-बड़े यत्नका आश्रय ले महान् तप करके भी आपको नहीं पाते।

वे ही आप यहाँ स्वयं उपस्थित हो गये।

मुझसे बढ़कर श्रेष्ठ सौभाग्यशाली और पुण्यात्मा दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि आप मेरे पृष्ठभागपर तपस्याके लिये उपस्थित हुए हैं।

परमेश्वर! आज मैं अपनेको देवराज इन्द्रसे भी अधिक भाग्यवान् मानता हूँ; क्योंकि सेवकोंसहित आपने यहाँ आकर मुझे अनुग्रहका भागी बना दिया।

देवेश! आप स्वतन्त्र हैं।

यहाँ बिना किसी विघ्न-बाधाके उत्तम तपस्या कीजिये।

प्रभो! मैं आपका दास हूँ।

अतः सदा आपकी आज्ञाके अनुसार सेवा करूँगा।’ ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय तुरंत अपने घरको लौट आये।

उन्होंने अपनी प्रिया मेनाको बड़े आदरसे वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

तत्पश्चात् शैलराजने साथ जानेवाले परिजनों तथा समस्त सेवकगणोंको बुलाकर उन्हें ठीक-ठीक समझाया।

हिमालय बोले—आजसे कोई भी गंगावतरण नामक स्थानमें, जो मेरे पृष्ठ-भागमें ही है, मेरी आज्ञा मानकर न जाय।

यह मैं सच्ची बात कहता हूँ।

यदि कोई वहाँ जायगा तो उस महादुष्टको मैं विशेष दण्ड दूँगा।

मुने! इस प्रकार अपने समस्त गणोंको शीघ्र ही नियन्त्रित करके हिमवान् ने विघ्ननिवारणके लिये जो सुन्दर प्रयत्न किया, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो।

(अध्याय ११)


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