शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 39

शिव पुराण – रुद्र संहिता – पार्वती खण्ड – 39


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


मेनाकी इच्छाके अनुसार एक ब्राह्मण-पत्नीका पार्वतीको पतिव्रतधर्मका उपदेश देना

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! तदनन्तर सप्तर्षियोंने हिमालयसे कहा—‘गिरिराज! अब आप अपनी पुत्री पार्वतीदेवीकी यात्राका उचित प्रबन्ध करें।’ मुनीश्वर! यह सुनकर पार्वतीके भावी विरहका अनुभव करके गिरिराज कुछ कालतक अधिक प्रेमके कारण विषादमें डूबे रह गये।

कुछ देर बाद सचेत हो शैलराजने ‘तथास्तु’ कहकर मेनाको संदेश दिया।

मुने! हिमवान् का संदेश पाकर हर्ष और शोकके वशीभूत हुई मेना पार्वतीको विदा करनेके लिये उद्यत हुईं।

शैलराजकी प्यारी पत्नी मेनाने विधिपूर्वक वैदिक एवं लौकिक कुलाचारका पालन किया और उस समय नाना प्रकारके उत्सव मनाये।

फिर उन्होंने नाना प्रकारके रत्नजटित सुन्दर वस्त्रों और बारह आभूषणोंद्वारा राजोचित शृंगार करके पार्वतीको विभूषित किया।

तत्पश्चात् मेनाके मनोभावको जानकर एक सती-साध्वी ब्राह्मणपत्नीने गिरिजाको उत्तम पातिव्रत्यकी शिक्षा दी।

ब्राह्मणपत्नी बोली—गिरिराजकिशोरी! तुम प्रेमपूर्वक मेरा यह वचन सुनो।

यह धर्मको बढ़ानेवाला, इहलोक और परलोकमें भी आनन्द देनेवाला तथा श्रोताओंको भी सुखकी प्राप्ति करानेवाला है।

संसारमें पतिव्रता नारी ही धन्य है, दूसरी नहीं।

वही विशेषरूपसे पूजनीय है।

पतिव्रता सब लोगोंको पवित्र करनेवाली और समस्त पापराशिको नष्ट कर देनेवाली है।

शिवे! जो पतिको परमेश्वरके समान मानकर प्रेमसे उसकी सेवा करती है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करके अन्तमें कल्याणमयी गतिको पाती है।१ सावित्री, लोपामुद्रा, अरुन्धती, शाण्डिली, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मेना और स्वाहा—ये तथा और भी बहुत-सी स्त्रियाँ साध्वी कही गयी हैं।

यहाँ विस्तारभयसे उनका नाम नहीं लिया गया।

वे अपने पातिव्रत्यके बलसे ही सब लोगोंकी पूजनीया तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं मुनीश्वरोंकी भी माननीया हो गयी हैं।

इसलिये तुम्हें अपने पति भगवान् शंकरकी सदा सेवा करनी चाहिये।

वे दीनदयालु, सबके सेवनीय और सत्पुरुषोंके आश्रय हैं।

श्रुतियों और स्मृतियोंमें पातिव्रत्यधर्मको महान् बताया गया है।

इसको जैसा श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसा दूसरा धर्म नहीं है—यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है।

पातिव्रत्य-धर्ममें तत्पर रहनेवाली स्त्री अपने प्रिय पतिके भोजन कर लेनेपर ही भोजन करे।

शिवे! जब पति खड़ा हो, तब साध्वी स्त्रीको भी खड़ी ही रहनी चाहिये।

शुद्धबुद्धिवाली साध्वी स्त्री प्रतिदिन अपने पतिके सो जानेपर सोये और उसके जागनेसे पहले ही जग जाय।

वह छल-कपट छोड़कर सदा उसके लिये हितकर कार्य ही करे।

शिवे! साध्वी स्त्रीको चाहिये कि जबतक वस्त्राभूषणोंसे विभूषित न हो ले तबतक वह अपनेको पतिकी दृष्टिके सम्मुख न लाये।

यदि पति किसी कार्यसे परदेशमें गया हो तो उन दिनों उसे कदापि शृंगार नहीं करना चाहिये।

पतिव्रता स्त्री कभी पतिका नाम न ले।

पतिके कटुवचन कहनेपर भी वह बदलेमें कड़ी बात न कहे।

पतिके बुलानेपर वह घरके सारे कार्य छोड़कर तुरंत उसके पास चली जाय और हाथ जोड़ प्रेमसे मस्तक झुकाकर पूछे—‘नाथ! किसलिये इस दासीको बुलाया है? मुझे सेवाके लिये आदेश देकर अपनी कृपासे अनुगृहीत कीजिये।’ फिर पति जो आदेश दे, उसका वह प्रसन्न हृदयसे पालन करे।

वह घरके दरवाजेपर देरतक खड़ी न रहे।

दूसरेके घर न जाय।

कोई गोपनीय बात जानकर हर एकके सामने उसे प्रकाशित न करे।

पतिके बिना कहे ही उनके लिये पूजन-सामग्री स्वयं जुटा दे तथा उनके हितसाधनके यथोचित अवसरकी प्रतीक्षा करती रहे।

पतिकी आज्ञा लिये बिना कहीं तीर्थयात्राके लिये भी न जाय।

लोगोंकी भीड़से भरी हुई सभा या मेले आदिके उत्सवोंका देखना वह दूरसे ही त्याग दे।

जिस नारीको तीर्थयात्राका फल पानेकी इच्छा हो, उसे अपने पतिका चरणोदक पीना चाहिये।

उसके लिये उसीमें सारे तीर्थ और क्षेत्र हैं, इसमें संशय नहीं है।२ पतिव्रता नारी पतिके उच्छिष्ट अन्न आदिको परम प्रिय भोजन मानकर ग्रहण करे और पति जो कुछ दे, उसे महाप्रसाद मानकर शिरोधार्य करे।

देवता, पितर, अतिथि, सेवकवर्ग, गौ तथा भिक्षुसमुदायके लिये अन्नका भाग दिये बिना कदापि भोजन न करे।

पातिव्रत-धर्ममें तत्पर रहनेवाली गृहदेवीको चाहिये कि वह घरकी सामग्रीको संयत एवं सुरक्षित रखे।

गृहकार्यमें कुशल हो, सदा प्रसन्न रहे और खर्चकी ओरसे हाथ खींचे रहे।

पतिकी आज्ञा लिये बिना उपवासव्रत आदि न करे, अन्यथा उसे उसका कोई फल नहीं मिलता और वह परलोकमें नरकगामिनी होती है।

पति सुखपूर्वक बैठा हो या इच्छानुसार क्रीडाविनोद अथवा मनोरंजनमें लगा हो, उस अवस्थामें कोई आन्तरिक कार्य आ पड़े तो भी पतिव्रता स्त्री अपने पतिको कदापि न उठाये।

पति नपुंसक हो गया हो, दुर्गतिमें पड़ा हो, रोगी हो, बूढ़ा हो, सुखी हो अथवा दुःखी हो, किसी भी दशामें नारी अपने उस एकमात्र पतिका उल्लंघन न करे।

रजस्वला होनेपर वह तीन रात्रितक पतिको अपना मुँह न दिखाये अर्थात् उससे अलग रहे।

जबतक स्नान करके शुद्ध न हो जाय, तबतक अपनी कोई बात भी वह पतिके कानोंमें न पड़ने दे।

अच्छी तरह स्नान करनेके पश्चात् सबसे पहले वह अपने पतिके मुखका दर्शन करे, दूसरे किसीका मुँह कदापि न देखे अथवा मन-ही-मन पतिका चिन्तन करके सूर्यका दर्शन करे।

पतिकी आयु बढ़नेकी अभिलाषा रखनेवाली पतिव्रता नारी हल्दी, रोली, सिन्दूर, काजल आदि; चोली, पान, मांगलिक आभूषण आदि; केशोंका सँवारना, चोटी गूँथना तथा हाथ-कानके आभूषण—इन सबको अपने शरीरसे दूर न करे।

धोबिन, छिनाल या कुलटा, संन्यासिनी और भाग्यहीना स्त्रियोंको वह कभी अपनी सखी न बनाये।

पतिसे द्वेष रखनेवाली स्त्रीका वह कभी आदर न करे।

कहीं अकेली न खड़ी हो।

कभी नंगी होकर न नहाये।

सती स्त्री ओखली, मूसल, झाड़ू, सिल, जाँत और द्वारके चौखटके नीचेवाली लकड़ीपर कभी न बैठे।

मैथुनकालके सिवा और किसी समयमें वह पतिके सामने धृष्टता न करे।

जिस-जिस वस्तुमें पतिकी रुचि हो, उससे वह स्वयं भी प्रेम करे।

पतिव्रता देवी सदा पतिका हित चाहनेवाली होती है।

वह पतिके हर्षमें हर्ष माने।

पतिके मुखपर विषादकी छाया देख स्वयं भी विषादमें डूब जाय तथा वह प्रियतम पतिके प्रति ऐसा बर्ताव करे, जिससे वह उन्हें प्यारी लगे।

पुण्यात्मा पतिव्रता स्त्री सम्पत्ति और विपत्तिमें भी पतिके लिये एक-सी रहे।

अपने मनमें कभी विकार न आने दे और सदा धैर्य धारण किये रहे।

घी, नमक, तेल आदिके समाप्त हो जानेपर भी पतिव्रता स्त्री पतिसे सहसा यह न कहे कि अमुक वस्तु नहीं है।

वह पतिको कष्ट या चिन्तामें न डाले।

देवेश्वरि! पतिव्रता नारीके लिये एकमात्र पति ही ब्रह्मा, विष्णु और शिवसे भी अधिक माना गया है।

उसके लिये अपना पति शिवरूप ही है*।

जो पतिकी आज्ञाका उल्लंघन करके व्रत और उपवास आदिके नियमका पालन करती है, वह पतिकी आयु हर लेती है और मरनेपर नरकमें जाती है।

जो स्त्री पतिके कुछ कहनेपर क्रोधपूर्वक कठोर उत्तर देती है वह गाँवमें कुतिया और निर्जन वनमें सियारिन होती है।

नारी पतिसे ऊँचे आसनपर न बैठे, दुष्ट पुरुषके निकट न जाय और पतिसे कभी कातर वचन न बोले।

किसीकी निन्दा न करे।

कलहको दूरसे ही त्याग दे।

गुरुजनोंके निकट न तो उच्चस्वरसे बोले और न हँसे।

जो बाहरसे पतिको आते देख तुरंत अन्न, जल, भोज्य वस्तु, पान और वस्त्र आदिसे उनकी सेवा करती है, उनके दोनों चरण दबाती है, उनसे मीठे वचन बोलती है तथा प्रियतमके खेदको दूर करनेवाले अन्यान्य उपायोंसे प्रसन्नतापूर्वक उन्हें संतुष्ट करती है, उसने मानो तीनों लोकोंको तृप्त एवं संतुष्ट कर दिया।

पिता, भाई और पुत्र परिमित सुख देते हैं, परंतु पति असीम सुख देता है।

अतः नारीको सदा अपने पतिका पूजन—आदर-सत्कार करना चाहिये।

पति ही देवता है, पति ही गुरु है और पति ही धर्म, तीर्थ एवं व्रत है; इसलिये सबको छोड़कर एकमात्र पतिकी ही आराधना करनी चाहिये।१ जो दुर्बुद्धि नारी अपने पतिको त्यागकर एकान्तमें विचरती है (या व्यभिचार करती है), वह वृक्षके खोखलेमें शयन करनेवाली क्रूर उलूकी होती है।

जो पराये पुरुषको कटाक्षपूर्ण दृष्टिसे देखती है, वह ऐंचातानी देखनेवाली होती है।

जो पतिको छोड़कर अकेले मिठाई खाती है, वह गाँवमें सूअरी होती है अथवा बकरी होकर अपनी ही विष्ठा खाती है।

जो पतिको तू कहकर बोलती है, वह गूँगी होती है।

जो सौतसे सदा ईर्ष्या रखती है, वह दुर्भाग्यवती होती है।

जो पतिकी आँख बचाकर किसी दूसरे पुरुषपर दृष्टि डालती है, वह कानी, टेढ़े मुँहवाली तथा कुरूपा होती है।

जैसे निर्जीव शरीर तत्काल अपवित्र हो जाता है, उसी तरह पतिहीना नारी भलीभाँति स्नान करनेपर भी सदा अपवित्र ही रहती है।

लोकमें वह माता धन्य है, वह जन्मदाता पिता धन्य है तथा वह पति भी धन्य है, जिसके घरमें पतिव्रता देवी वास करती है।

पतिव्रताके पुण्यसे पिता, माता और पतिके कुलोंकी तीन-तीन पीढ़ियोंके लोग स्वर्गलोकमें सुख भोगते हैं।२ जो दुराचारिणी स्त्रियाँ अपना शील भंग कर देती हैं, वे अपने माता-पिता और पति तीनोंके कुलोंको नीचे गिराती हैं तथा इस लोक और परलोकमें भी दुःख भोगती हैं।

पतिव्रताका पैर जहाँ-जहाँ पृथ्वीका स्पर्श करता है, वहाँ-वहाँकी भूमि पापहारिणी तथा परम पावन बन जाती है।३ भगवान् सूर्य, चन्द्रमा तथा वायुदेव भी अपने-आपको पवित्र करनेके लिये ही पतिव्रताका स्पर्श करते हैं और किसी दृष्टिसे नहीं।

जल भी सदा पतिव्रताका स्पर्श करना चाहता है और उसका स्पर्श करके वह अनुभव करता है कि आज मेरी जडताका नाश हो गया तथा आज मैं दूसरोंको पवित्र करनेवाला बन गया।

भार्या ही गृहस्थ-आश्रमकी जड़ है, भार्या ही सुखका मूल है, भार्यासे ही धर्मके फलकी प्राप्ति होती है तथा भार्या ही संतानकी वृद्धिमें कारण है।१ क्या घर-घरमें अपने रूप और लावण्य-पर गर्व करनेवाली स्त्रियाँ नहीं हैं? परंतु पतिव्रता स्त्री तो विश्वनाथ शिवके प्रति भक्ति होनेसे ही प्राप्त होती है।

भार्यासे इस लोक और परलोक दोनोंपर विजय पायी जा सकती है।

भार्याहीन पुरुष देवयज्ञ, पितृयज्ञ और अतिथियज्ञ करनेका अधिकारी नहीं होता।

वास्तवमें गृहस्थ वही है, जिसके घरमें पतिव्रता स्त्री है।

दूसरी स्त्री तो पुरुषको उसी तरह अपना ग्रास (भोग्य) बनाती है, जैसे जरावस्था एवं राक्षसी।

जैसे गंगास्नान करनेसे शरीर पवित्र होता है, उसी प्रकार पतिव्रता स्त्रीका दर्शन करनेपर सब कुछ पावन हो जाता है।२ पतिको ही इष्टदेव माननेवाली सती नारी और गंगामें कोई भेद नहीं है।

पतिव्रता और उसके पतिदेव उमा और महेश्वरके समान हैं, अतः विद्वान् मनुष्य उन दोनोंका पूजन करे।

पति प्रणव है और नारी वेदकी ऋचा; पति तप है और स्त्री क्षमा; नारी सत्कर्म है और पति उसका फल।

शिवे! सती नारी और उसके पति—दोनों दम्पती धन्य हैं३।

गिरिराजकुमारी! इस प्रकार मैंने तुमसे पतिव्रताधर्मका वर्णन किया है।

अब तुम सावधान हो आज मुझसे प्रसन्नता-पूर्वक पतिव्रताके भेदोंका वर्णन सुनो।

देवि! पतिव्रता नारियाँ उत्तमा आदि भेदसे चार प्रकारकी बतायी गयी हैं, जो अपना स्मरण करनेवाले पुरुषोंका सारा पाप हर लेती हैं।

उत्तमा, मध्यमा, निकृष्टा और अतिनिकृष्टा—ये पतिव्रताके चार भेद हैं।

अब मैं इनके लक्षण बताती हूँ।

ध्यान देकर सुनो।

भद्रे! जिसका मन सदा स्वप्नमें भी अपने पतिको ही देखता है, दूसरे किसी परपुरुषको नहीं, वह स्त्री उत्तमा या उत्तम श्रेणीकी पतिव्रता कही गयी है।

शैलजे! जो दूसरे पुरुषको उत्तम बुद्धिसे पिता, भाई एवं पुत्रके समान देखती है, उसे मध्यम श्रेणीकी पतिव्रता कहा गया है।

पार्वती! जो मनसे अपने धर्मका विचार करके व्यभिचार नहीं करती, सदाचारमें ही स्थित रहती है, उसे निकृष्टा अथवा निम्नश्रेणीकी पतिव्रता कहा गया है।

जो पतिके भयसे तथा कुलमें कलंक लगनेके डरसे व्यभिचारसे बचनेका प्रयत्न करती है, उसे पूर्वकालके विद्वानोंने अतिनिकृष्टा अथवा निम्नतम कोटिकी पतिव्रता बताया है।

शिवे! ये चारों प्रकारकी पतिव्रताएँ समस्त लोकोंका पाप नाश करनेवाली और उन्हें पवित्र बनानेवाली हैं।

अत्रिकी स्त्री अनसूयाने ब्रह्मा, विष्णु और शिव—इन तीनों देवताओंकी प्रार्थनासे पातिव्रत्यके प्रभावका उपभोग करके वाराहके शापसे मरे हुए एक ब्राह्मणको जीवित कर दिया था।

शैलकुमारी शिवे! ऐसा जानकर तुम्हें नित्य प्रसन्नतापूर्वक पतिकी सेवा करनी चाहिये।

पतिसेवन सदा समस्त अभीष्ट फलोंको देनेवाला है।

तुम साक्षात् जगदम्बा महेश्वरी हो और तुम्हारे पति साक्षात् भगवान् शिव हैं।

तुम्हारा तो चिन्तन-मात्र करनेसे स्त्रियाँ पतिव्रता हो जायँगी।

देवि! यद्यपि तुम्हारे आगे यह सब कहनेका कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि आज लोकाचारका आश्रय ले मैंने तुम्हें सती-धर्मका उपदेश दिया है।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर वह ब्राह्मण-पत्नी शिवादेवीको मस्तक झुका चुप हो गयी।

इस उपदेशको सुनकर शंकरप्रिया पार्वतीदेवीको बड़ा हर्ष हुआ।

(अध्याय ५४) १. धन्या पतिव्रता नारी नान्या पूज्या विशेषतः।

पावनी सर्वलोकानां सर्वपापौघनाशिनी।।

सेवते या पतिं प्रेम्णा परमेश्वरवच्छिवे।

इह भुक्त्वाखिलान्भोगानन्ते पत्या शिवां गतिम्।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० ५४।९-१०) २. तीर्थार्थिनी तु या नारी पतिपादोदकं पिबेत्।

तस्मिन् सर्वाणि तीर्थानि क्षेत्राणि च न संशयः।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० ५४।२५) * विधेर्विष्णोर्हराद्वापि पतिरेकोऽधिको मतः।

पतिव्रताया देवेसि स्वपतिः शिव एव च।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० ५४।४३) १- भर्ता देवो गुरुर्भर्ता धर्मतीर्थव्रतानि च।

तस्मात्सर्वं परित्यज्य पतिमेकं समर्चयेत्।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० ५४।५१) २- सा धन्या जननी लोके स धन्यो जनकः पिता।

धन्यः स च पतिर्यस्य गृहे देवी पतिव्रता।।  पितृवंश्या मातृवंश्याः पतिवंश्यास्त्रयस्त्रयः।

पतिव्रतायाः पुण्येन स्वर्गे सौख्यानि भुञ्जते।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० ५४।५८-५९) ३- पतिव्रतायाश्चरणो यत्र यत्र स्पृशेद्भुवम्।

तत्र तत्र भवेत् सा हि पापहन्त्री सुपावनी।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० ५४।६१) १- भार्या मूलं गृहस्थस्य भार्या मूलं सुखस्य च।

भार्या धर्मफलावाप्त्यै भार्या संतानवृद्धये।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० ५४।६४) २- यथा गङ्गावगाहेन शरीरं पावनं भवेत्।

तथा पतिव्रतां दृष्ट्वा सकलं पावनं भवेत्।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० ५४।६८) ३- तारः पतिः श्रुतिर्नारी क्षमा सा स स्वयं तपः।

फलं पतिः सत्क्रिया सा धन्यौ तौ दम्पती शिवे।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० ५४।७०)


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