शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 38


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


चतुर्थीकर्म, बारातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बारातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बारातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना

ब्रह्माजी कहते हैं—तदनन्तर विष्णु आदि देवता तथा ऋषि कैलास लौटनेका विचार करने लगे।

तब हिमालयने जनवासेमें आकर सबको भोजनके लिये निमन्त्रित किया।

तत्पश्चात् देवेश्वर शिवको आमन्त्रित करके हिमाचल अपने घरको गये और नाना प्रकारके विधानसे भोजनोत्सवकी तैयारी करने लगे।

उन्होंने प्रसन्नता और उत्कण्ठाके साथ भोजनके लिये परिवारसहित भगवान् शिवको यथोचित रीतिसे अपने घर बुलवाया।

शम्भुके, विष्णुके, मेरे, अन्य सब देवताओंके, मुनियोंके तथा वहाँ आये हुए अन्य सब लोगोंके भी चरणोंको बड़े आदरके साथ धोकर उन सबको गिरिराजने मण्डपके भीतर सुन्दर आसनोंपर बिठाया।

फिर अपने भाई-बन्धुओंको साथ लेकर उनके सहयोगसे उन सब अतिथियोंको नाना प्रकारके सरस पदार्थोंद्वारा पूर्णतया तृप्त किया।

मेरे, विष्णुके तथा शम्भुके साथ सब लोगोंने अच्छी तरह भोजन किया।

नारद! विधिवत् भोजन और आचमन करके तृप्त और प्रसन्न हुए सब लोग हिमालयसे आज्ञा ले अपने-अपने डेरेपर गये।

मुने! इसी प्रकार तीसरे दिन भी गिरिराजने विधिवत् दान, मान और आदर आदिके द्वारा उन सबका सत्कार किया।

चौथा दिन आनेपर शुद्धतापूर्वक सविधि चतुर्थीकर्म हुआ, जिसके बिना विवाहयज्ञ अधूरा ही रह जाता है।

उस समय नाना प्रकारका उत्सव हुआ।

साधुवाद और जय-जयकारकी ध्वनि हुई।

बहुत-से सुन्दर दान दिये गये।

भाँति-भाँतिके सुन्दर गान और नृत्य हुए।

पाँचवें दिन सब देवताओंने बड़े हर्ष और अत्यन्त प्रेमके साथ शैलराजको सूचित किया कि ‘अब हमलोग यहाँसे जाना चाहते हैं।

आप आज्ञा प्रदान करें।’ उनकी यह बात सुन गिरिराज हिमवान् हाथ जोड़कर बोले—‘देवगण! आपलोग कुछ दिन और ठहरें तथा मुझपर कृपा करें।’ यों कहकर उन्होंने स्नेहके साथ उन देवताओंको, भगवान् शिवको, विष्णुको, मुझको तथा अन्य लोगोंको बहुत दिनोंतक ठहराया और प्रतिदिन विशेष आदर-सत्कार किया।

इस प्रकार देवताओंके वहाँ रहते हुए बहुत दिन बीत गये, तब उन सबने गिरिराजके पास सप्तर्षियोंको भेजा।

सप्तर्षियोंने हिमवान् और मेनासे समयोचित बात कहकर उन्हें समझाया, परम शिवतत्त्वका वर्णन किया तथा प्रसन्नतापूर्वक उनके सौभाग्यकी सराहना की।

मुने! उनके समझानेसे गिरिराजने बारातको विदा करना स्वीकार कर लिया।

तत्पश्चात् भगवान् शम्भु यात्राके लिये उद्यत हो देवता आदिके साथ शैलराजके पास आये।

देवेश्वर शिव देवताओंसहित कैलासकी यात्राके लिये जब उद्यत हुए, उस समय मेना उच्चस्वरसे रोने लगीं और उन कृपानिधानसे बोलीं।

मेनाने कहा—कृपानिधे! कृपा करके मेरी शिवाका भलीभाँति लालन-पालन कीजियेगा।

आप आशुतोष हैं।

पार्वतीके सहस्रों अपराधोंको भी क्षमा कीजियेगा।

मेरी बच्ची जन्म-जन्ममें आपके चरणारविन्दों-की भक्त रही है और रहेगी।

उसे सोते और जागते समय भी अपने स्वामी महादेवके सिवा दूसरी किसी वस्तुकी सुध नहीं रहती।

मृत्युंजय! आपके प्रति भक्ति-भावकी बातें सुनते ही यह हर्षके आँसू बहाती हुई पुलकित हो उठती है और आपकी निन्दा सुनकर ऐसा मौन साध लेती है, मानो मर ही गयी हो! ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर मेनकाने अपनी बेटी शिवको सौंप दी और उन दोनोंके सामने ही उच्चस्वरसे रोती हुई वह मूर्च्छित हो गयी।

तब महादेवजीने मेनाको समझाकर सचेत किया और उनसे विदा ले देवताओंके साथ महान् उत्सवपूर्वक यात्रा की।

वे सब देवता अपने स्वामी शिव तथा सेवकगणोंके साथ चुपचाप कैलास पर्वतकी ओर प्रस्थित हुए।

वे मन-ही-मन शिवका चिन्तन कर रहे थे।

हिमाचलपुरीके बाहरी बगीचेमें आकर शिवसहित सब देवता हर्ष और उत्साहके साथ ठहर गये और शिवाके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे।

मुनीश्वर! इस प्रकार देवताओंसहित शिवकी श्रेष्ठ यात्राका वर्णन किया गया।

अब शिवाकी यात्राका वर्णन सुनो, जो विरहव्यथा और आनन्द दोनोंसे संयुक्त है।

(अध्याय ५३)


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