शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 37


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


रातको परम सुन्दर सजे हुए वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल भगवान् शिवका जनवासेमें आगमन

ब्रह्माजी कहते हैं—तात! तदनन्तर भाग्यवानोंमें श्रेष्ठ और चतुर गिरिराज हिमवान् ने बारातियोंको भोजन करानेके लिये अपने आँगनको सुन्दर ढंगसे सजाया तथा अपने पुत्रों एवं अन्यान्य पर्वतोंको भेजकर शिवसहित सब देवताओंको भोजनके लिये बुलाया।

जब सब लोग आ गये, तब उनको बड़े आदरके साथ उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थोंका भोजन कराया।

भोजनके पश्चात् हाथ-मुँह धो, कुल्ला करके विष्णु आदि सब देवता विश्रामके लिये प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने डेरेमें गये।

मेनाकी आज्ञासे साध्वी स्त्रियोंने भगवान् शिवसे भक्तिपूर्वक प्रार्थना करके उन्हें महान् उत्सवसे परिपूर्ण सुन्दर वास-भवनमें ठहराया।

मेनाके दिये हुए मनोहर रत्न-सिंहासनपर बैठकर आनन्दित हुए शम्भुने उस वासमन्दिरका निरीक्षण किया।

वह भवन प्रज्वलित हुए सैकड़ों रत्नमय प्रदीपोंके कारण अद्भुत प्रभासे उद्भासित हो रहा था।

वहाँ रत्नमय पात्र तथा रत्नोंके ही कलश रखे गये थे।

मोती और मणियोंसे सारा भवन जगमगा रहा था।

रत्नमय दर्पणकी शोभासे सम्पन्न तथा श्वेत चँवरोंसे अलंकृत था।

मुक्ता-मणियोंकी सुन्दर मालाओं (बंदनवारों)-से आवेष्टित हुआ वह वासभवन बड़ा समृद्धिशाली दिखायी देता था।

उसकी कहीं उपमा नहीं थी।

वह महादिव्य, अतिविचित्र, परम मनोहर तथा मनको आह्लाद प्रदान करनेवाला था।

उसके फर्शपर नाना प्रकारकी रचनाएँ की गयी थीं—बेलबूटे निकाले गये थे।

शिवजीके दिये हुए वरका ही महान् एवं अनुपम प्रभाव दिखाता हुआ वह शोभाशाली भवन शिवलोकके नामसे प्रसिद्ध किया गया था।

नाना प्रकारके सुगन्धित श्रेष्ठ द्रव्योंसे सुवासित तथा सुन्दर प्रकाशसे परिपूर्ण था।

वहाँ चन्दन और अगरकी सम्मिलित गन्ध फैल रही थी।

उस भवनमें फूलोंकी सेज बिछी हुई थी।

विश्वकर्माका बनाया हुआ वह भवन नाना प्रकारके विचित्र चित्रोंसे सुसज्जित था।

श्रेष्ठ रत्नोंकी सारभूत मणियोंसे निर्मित सुन्दर हारोंद्वारा उस वासगृहको अलंकृत किया गया था।

उसमें विश्वकर्माद्वारा निर्मित कृत्रिम वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलास, इन्द्रभवन तथा शिवलोक आदि दीख रहे थे।

ऐसे आश्चर्यजनक शोभासे सम्पन्न उस वासभवनको देखकर गिरिराज हिमालयकी प्रशंसा करते हुए भगवान् महेश्वर बहुत संतुष्ट हुए।

वहाँ अति रमणीय रत्नजटित उत्तम पलंगपर परमेश्वर शिव बड़ी प्रसन्नतासे लीलापूर्वक सोये।

इधर हिमालयने बड़ी प्रसन्नतासे अपने समस्त भाई-बन्धुओं एवं दूसरे लोगोंको भी भोजन कराया तथा जो कार्य शेष रह गये थे, उन्हें भी पूर्ण किया।

शैलराज हिमालय इस प्रकार आवश्यक कार्यमें लगे हुए थे और प्रियतम परमेश्वर शिव शयन कर रहे थे।

इतनेमें ही सारी रात बीत गयी और प्रातःकाल हो गया।

प्रभातकाल होनेपर धैर्यवान् और उत्साही पुरुष नाना प्रकारके बाजे बजाने लगे।

उस समय श्रीविष्णु आदि सब देवता सानन्द उठे और अपने इष्टदेव देवेश्वर शिवका स्मरण करके वहाँसे कैलासको चलनेके लिये जल्दी-जल्दी तैयार हो गये।

उन्होंने अपने वाहन भी सुसज्जित कर लिये।

तत्पश्चात् धर्मको शिवके समीप भेजा।

योगशक्तिसे सम्पन्न धर्म नारायणकी आज्ञासे वासगृहमें पहुँचकर योगीश्वर शंकरसे समयोचित बात बोले—‘प्रमथगणोंके स्वामी महेश्वर! उठिये, उठिये; आपका कल्याण हो।

आप हमारे लिये भी कल्याणकारी होइये; जनवासेमें चलिये और वहाँ सब देवताओंको कृतार्थ कीजिये।’ धर्मकी यह बात सुनकर भगवान् महेश्वर हँसे।

उन्होंने धर्मको कृपादृष्टिसे देखा और शय्या त्याग दी।

इसके बाद धर्मसे हँसते हुए कहा—‘तुम आगे चलो।

मैं भी वहाँ शीघ्र ही आऊँगा, इसमें संशय नहीं है।’ भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर धर्म जनवासेमें गये।

तत्पश्चात् शम्भु भी स्वयं वहाँ जानेको उद्यत हुए।

यह जानकर महान् उत्सव मनाती हुई स्त्रियाँ वहाँ आयीं और भगवान् शम्भुके युगल चरणारविन्दोंका दर्शन करती हुई मंगलगान करने लगीं।

तदनन्तर लोकाचारका पालन करते हुए शम्भु प्रातःकालिक कृत्य करके मेना और हिमालयकी आज्ञा ले जनवासेको गये।

मुने! उस समय बड़ा भारी उत्सव हुआ।

वेदमन्त्रोंकी ध्वनि होने लगी और लोग चारों प्रकारके बाजे बजाने लगे।

अपने स्थानपर आकर शम्भुने लोकाचारवश मुनियोंको, विष्णुको और मुझको प्रणाम किया।

फिर देवता आदिने उनकी वन्दना की।

उस समय जय-जयकार, नमस्कार तथा वेदमन्त्रोच्चारणकी मंगलदायिनी ध्वनि होने लगी।

इससे सब ओर कोलाहल छा गया।

(अध्याय ५२)


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