शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 36


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


शिवके विवाहका उपसंहार, उनके द्वारा दक्षिणा-वितरण, वर-वधूका कोहबर और वासभवनमें जाना, वहाँ स्त्रियोंका उनसे लोकाचारका पालन कराना, रतिकी प्रार्थनासे शिवद्वारा कामको जीवनदान एवं वर-प्रदान, वर-वधूका एक-दूसरेको मिष्टान्न भोजन कराना और शिवका जनवासेमें लौटना

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! तदनन्तर मेरी आज्ञा पाकर महेश्वरने ब्राह्मणोंद्वारा अग्निकी स्थापना करवायी और पार्वतीको अपने आगे बिठाकर वहाँ ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेदके मन्त्रोंद्वारा अग्निमें आहुतियाँ दीं।

तात! उस समय कालीके भाई मैनाकने लावाकी अंजलि दी और काली तथा शिव दोनोंने आहुति देकर लोकाचार-का आश्रय ले प्रसन्नतापूर्वक अग्निदेवकी परिक्रमा की।

नारद! तदनन्तर शिवकी आज्ञासे मुनियोंसहित मैंने शिवा-शिव-विवाहका शेष कार्य प्रसन्नतापूर्वक पूरा किया।

फिर उन दोनों दम्पतिके मस्तकका अभिषेक हुआ।

ब्राह्मणोंने उन्हें आदरपूर्वक ध्रुवका दर्शन कराया।

तत्पश्चात् हृदयालम्भनका कार्य हुआ।

फिर बड़े उत्साहके साथ स्वस्तिवाचन किया गया।

इसके पश्चात् ब्राह्मणोंकी आज्ञासे शिवने शिवाके सिरमें सिन्दूरदान किया।

उस समय गिरिराजनन्दिनी उमाकी शोभा अद्भुत और अवर्णनीय हो गयी।

फिर ब्राह्मणोंके आदेशसे वे शिव-दम्पति एक आसनपर विराजमान हो भक्तोंके चित्तको आनन्द देनेवाली उत्तम शोभा पाने लगे।

मुने! तदनन्तर अद्भुत लीला करनेवाले उन नवदम्पतिने मेरी आज्ञा पाकर अपने स्थानपर आ संस्रवप्राशन* किया।

इस प्रकार विधिपूर्वक उस वैवाहिक यज्ञके पूर्ण हो जानेपर भगवान् शिवने मुझ लोकस्रष्टा ब्रह्माको पूर्णपात्र दान किया।

फिर शम्भुने आचार्यको गोदान किया।

मंगलदायक जो बड़े-बड़े दान बताये गये हैं, वे भी सहर्ष सम्पन्न किये।

तत्पश्चात् उन्होंने बहुत-से ब्राह्मणोंको पृथक्-पृथक् सौ-सौ सुवर्ण मुद्राएँ दीं।

करोड़ों रत्न दान किये और अनेक प्रकारके द्रव्य बाँटे।

उस समय सब देवता तथा दूसरे-दूसरे चराचर जीव मनमें बड़े प्रसन्न हुए और जोर-जोरसे जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी।

सब ओर मांगलिक शब्द और गीत होने लगे।

वाद्योंकी मनोहर ध्वनि सबके आनन्दको बढ़ाने लगी।

इसके बाद श्रीविष्णु, मैं, देवता, ऋषि तथा अन्य सब लोग गिरिराजसे आज्ञा ले बड़ी प्रसन्नताके साथ शीघ्र ही अपने-अपने डेरेमें चले आये।

उस समय हिमालयनगरकी स्त्रियाँ आनन्दमग्न हो शिव और पार्वतीको लेकर कोहबरमें गयीं।

वहाँ उन सबने आदरपूर्वक वर-वधूसे लोकाचारका सम्पादन कराया।

उस समय सब ओर परमानन्ददायक महान् उत्साह छा रहा था।

तदनन्तर वे स्त्रियाँ उन लोक-कल्याणकारी दम्पतिको साथ ले परम दिव्य वासभवन (कौतुकागार)-में गयीं और वहाँ भी प्रसन्नतापूर्वक लोकाचारका सम्पादन किया।

इसके बाद गिरिराजके नगरकी स्त्रियोंने समीप आकर मंगलकृत्य करके उन नवदम्पतिको केलिगृहमें पहुँचाया और जयध्वनि करती हुई उनके गँठबन्धनकी गाँठ खोलने आदिका कार्य सम्पन्न किया।

उस समय उन नूतन दम्पतिको देखनेके लिये सोलह दिव्य नारियाँ बड़े आदरके साथ शीघ्रतापूर्वक वहाँ आयीं।

उनके नाम इस प्रकार हैं—सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, गंगा, अदिति, शची, लोपामुद्रा, अरुन्धती, अहल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, पृथिवी, शतरूपा, संज्ञा तथा रति।

ये देवांगनाएँ तथा मनोहारिणी देवकन्या, नागकन्या और मुनिकन्याएँ भी वहाँ आ पहुँचीं।

वहाँ जितनी स्त्रियाँ उपस्थित थीं, उन सबकी गणना करनेमें कौन समर्थ है? उनके दिये हुए रत्नमय सिंहासनपर भगवान् शिव प्रसन्नतापूर्वक बैठे।

उस समय उन्होंने शिवसे नाना प्रकारकी विनोदपूर्ण बातें कहीं।

तदनन्तर प्रसन्नचित्त हुए महेश्वरने अपनी पत्नीके साथ मिष्टान्न भोजन और आचमन करके कपूर डाला हुआ पान खाया।

इसी अवसरपर अनुकूल समय जान प्रसन्न हुई रतिने दीनवत्सल भगवान् शंकरसे कहा—‘भगवन्! पार्वतीका पाणिग्रहण करके आपने अत्यन्त दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त किया है।

बताइये, मेरे प्राणनाथको, जो सर्वथा स्वार्थरहित थे, आपने क्यों भस्म कर डाला? अब यहाँ मेरे पतिको जीवित कीजिये और अपने अन्तःकरणमें काम-सम्बन्धी व्यापारको जगाइये।

आपको और मुझको जो समानरूपसे वियोगजनित संताप प्राप्त हुआ है, उसे दूर कीजिये।

महेश्वर! आपके इस विवाहोत्सवमें सब लोग सुखी हुए हैं।

केवल मैं ही अपने पतिके बिना दुःखमें डूबी हुई हूँ।

देव! शंकर! प्रसन्न होइये और मुझे सनाथ कीजिये।

दीनबन्धो! परम प्रभो! अपनी कही हुई बातको सत्य कीजिये।

चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंमें आपके सिवा दूसरा कौन है, जो मेरे दुःखका नाश करनेमें समर्थ हो? ऐसा जानकर आप मुझपर दया कीजिये।

दीनोंपर दया करनेवाले नाथ! सबको आनन्द प्रदान करनेवाले अपने इस विवाहोत्सवमें मुझे भी उत्सवसम्पन्न बनाइये।

मेरे प्राणनाथके जीवित होनेपर ही अपनी प्रिया पार्वतीके साथ आपका सुन्दर विहार परिपूर्ण होगा।

इसमें संशय नहीं है।

सर्वेश्वर! आप सब कुछ करनेमें समर्थ हैं; क्योंकि आप ही परमेश्वर हैं।

यहाँ अधिक कहनेसे क्या लाभ? सर्वेश्वर! आप शीघ्र मेरे पतिको जीवित कीजिये।’ ऐसा कहकर रतिने गाँठमें बँधा हुआ कामदेवके शरीरका भस्म शम्भुको दे दिया और उनके सामने ‘हा नाथ! हा नाथ!’ कहकर रोने लगी।

रतिका रोदन सुनकर सरस्वती आदि सभी देवियाँ रोने लगीं और अत्यन्त दीन वाणीमें बोलीं—‘प्रभो! आपका नाम भक्तवत्सल है।

आप दीनबन्धु और दयाके सागर हैं।

अतः कामको जीवनदान दीजिये और रतिको उत्साहित कीजिये।

आपको नमस्कार है।’ ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! उन सबकी यह बात सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गये।

उन करुणासागर प्रभुने तत्काल ही रतिपर कृपा की।

भगवान् शूलपाणिकी अमृतमयी दृष्टि पड़ते ही पहले-जैसे रूप, वेष और चिह्नसे युक्त अद्भुत मूर्तिधारी सुन्दर कामदेव उस भस्मसे प्रकट हो गया।

अपने पतिको वैसे ही रूप, आकृति, मन्द मुसकान और धनुष-बाणसे युक्त देख रतिने महेश्वरको प्रणाम किया।

वह कृतार्थ हो गयी।

उसने प्राणनाथकी प्राप्ति करानेवाले भगवान् शिवका अपने जीवित पतिके साथ हाथ जोड़कर बारंबार स्तवन किया।

पत्नीसहित कामकी की हुई स्तुतिको सुनकर दयार्द्रहृदय भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले।

शंकरने कहा—मनोभव! पत्नीसहित तुमने जो स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

स्वयं प्रकट होनेवाले काम! तुम वर माँगो।

मैं तुम्हें मनोवांछित वस्तु दूँगा।

शम्भुका यह वचन सुनकर कामदेव महान् आनन्दमें निमग्न हो गया और हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर गद् गद वाणीमें बोला।

कामदेवने कहा—देवदेव महादेव! करुणासागर प्रभो! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मेरे लिये आनन्ददायक होइये।

प्रभो! पूर्वकालमें मैंने जो अपराध किया था, उसे क्षमा कीजिये।

स्वजनोंके प्रति परम प्रेम और अपने चरणोंकी भक्ति दीजिये।

कामदेवका यह कथन सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो बोले—‘बहुत अच्छा!’ इसके बाद उन करुणानिधिने हँसकर कहा—‘महामते कामदेव! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ।

तुम अपने मनसे भयको निकाल दो।

भगवान् विष्णुके पास जाओ और इस घरसे बाहर ही रहो।’ तदनन्तर काम शिवजीको प्रणाम करके बाहर आ गया।

विष्णु आदि देवताओंने उसे आशीर्वाद दिया।

इसके बाद भगवान् शंकरने उस वासभवनमें पार्वतीको बायें बिठाकर मिष्टान्न भोजन कराया और पार्वतीने भी प्रसन्नतापूर्वक उनका मुँह मीठा किया।

तदनन्तर वहाँ लोकाचारका पालन करते हुए आवश्यक कृत्य करके मेना और हिमवान् की आज्ञा ले भगवान् शिव जनवासेमें चले गये।

मुने! उस समय महान् उत्सव हुआ और वेदमन्त्रोंकी ध्वनि होने लगी।

लोग चारों प्रकारके* बाजे बजाने लगे।

जनवासेमें अपने स्थानपर पहुँचकर शिवने लोकाचारवश मुनियोंको प्रणाम किया।

श्रीहरिको और मुझे भी मस्तक झुकाया।

फिर सब देवता आदिने उनकी वन्दना की।

उस समय वहाँ जय-जयकार, नमस्कार तथा समस्त विघ्नोंका विनाश करनेवाली शुभदायिनी वेदध्वनि भी होने लगी।

इसके बाद मैंने, भगवान् विष्णुने तथा इन्द्र, ऋषि और सिद्ध आदिने भी शंकरजीकी स्तुति की।

गिरिजानायक महेश्वरकी स्तुति करके वे विष्णु आदि देवता प्रसन्नतापूर्वक उनकी यथोचित सेवामें लग गये।

तत्पश्चात् लीलापूर्वक शरीर धारण करनेवाले महेश्वर शम्भुने उन सबको सम्मान दिया।

फिर उन परमेश्वरकी आज्ञा पाकर वे विष्णु आदि देवता अत्यन्त प्रसन्न हो अपने-अपने विश्रामस्थानको गये।

(अध्याय ४९—५१) * अग्निमें घीकी आहुति देकर स्रुवामें अवशिष्ट घृतको प्रोक्षणीपात्रमें डालनेकी विधि है।

प्रत्येक आहुतिमें ऐसा किया जाता है।

प्रोक्षणीपात्रमें डाले हुए घीको ही ‘संस्रव’ कहते हैं।

अन्तमें यजमान उसे पीता है।

इसीको ‘संस्रवप्राशन’ कहा गया है।

* अमरकोशमें जो चार प्रकारके बाजे बताये गये हैं, संसारके सभी प्राचीन अथवा अर्वाचीन वाद्य उन्हींके अन्तर्गत हैं।

उनके नाम इस प्रकार हैं—तत, आनद्ध, सुषिर और घन।

‘तत’ वह बाजा है, जिसमें तारका विस्तार हो—जैसे वीणा, सितार आदि।

जिसे चमड़ेसे मढ़ाकर कसा गया हो, वह ‘आनद्ध’ कहलाता है—जैसे ढोल, मृदंग, नगारा आदि।

जिसमें छेद हो और उसमें हवा भरकर स्वर निकाला जाता हो, उसे ‘सुषिर’ कहते हैं—जैसे वंशी, शंख, विगुल, हारमोनियम आदि।

काँसेके झाँझ आदिको ‘घन’ कहते हैं।


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