शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 35


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


शिव-पार्वतीके विवाहका आरम्भ, हिमालयके द्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तर, हिमालयका कन्यादान करके शिवको दहेज देना तथा शिवाका अभिषेक

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! इसी समय वहाँ गर्गाचार्यसे प्रेरित हो मेनासहित हिमवान् ने कन्यादानका कार्य आरम्भ किया।

उस समय वस्त्राभूषणोंसे विभूषित महाभागा मेना सोनेका कलश लिये पति हिमवान् के दाहिने भागमें बैठीं।

तत्पश्चात् पुरोहितसहित हर्षसे भरे हुए शैलराजने पाद्य आदिके द्वारा वरका पूजन करके वस्त्र, चन्दन और आभूषणोंद्वारा उनका वरण किया।

इसके बाद हिमाचलने ब्राह्मणोंसे कहा—‘आपलोग तिथि आदिके कीर्तनपूर्वक कन्यादानके संकल्पवाक्यका प्रयोग बोलें।

उसके लिये अवसर आ गया है।’ वे सब द्विजश्रेष्ठ कालके ज्ञाता थे।

अतः ‘तथास्तु’ कहकर वे सब बड़ी प्रसन्नताके साथ तिथि आदिका कीर्तन करने लगे।

तदनन्तर सुन्दर लीला करनेवाले परमेश्वर शम्भुके द्वारा मन-ही-मन प्रेरित हो हिमाचलने प्रसन्नतापूर्वक हँसकर उनसे कहा—‘शम्भो! आप अपने गोत्रका परिचय दें।

प्रवर, कुल, नाम, वेद और शाखाका प्रतिपादन करें।

अब अधिक समय न बितायें।’ हिमाचलकी यह बात सुनकर भगवान् शंकर सुमुख होकर भी विमुख हो गये।

अशोचनीय होकर भी तत्काल शोचनीय अवस्थामें पड़ गये।

उस समय श्रेष्ठ देवताओं, मुनियों, गन्धर्वों, यक्षों और सिद्धोंने देखा कि भगवान् शिवके मुखसे कोई उत्तर नहीं निकल रहा है।

नारद! यह देखकर तुम हँसने लगे और महेश्वरका मन-ही-मन स्मरण करके गिरिराजसे यों बोले।

नारदने कहा—पर्वतराज! तुम मूढ़ताके वशीभूत होकर कुछ भी नहीं जानते! महेश्वरसे क्या कहना चाहिये और क्या नहीं, इसका तुम्हें पता नहीं है।

वास्तवमें तुम बड़े बहिर्मुख हो।

तुमने इस समय साक्षात् हरसे उनका गोत्र पूछा है और उसे बतानेके लिये उन्हें प्रेरित किया है।

तुम्हारी यह बात अत्यन्त उपहासजनक है।

पर्वतराज! इनके गोत्र, कुल और नामको तो विष्णु और ब्रह्मा आदि भी नहीं जानते, फिर दूसरोंकी क्या चर्चा है? शैलराज! जिनके एक दिनमें करोड़ों ब्रह्माओंका लय होता है, उन्हीं भगवान् शंकरको तुमने आज कालीके तपोबलसे प्रत्यक्ष देखा है।

इनका कोई रूप नहीं है, ये प्रकृतिसे परे निर्गुण, परब्रह्म परमात्मा हैं।

निराकार, निर्विकार, मायाधीश एवं परात्पर हैं।

गोत्र, कुल और नामसे रहित स्वतन्त्र परमेश्वर हैं।

साथ ही अपने भक्तोंके प्रति बड़े दयालु हैं।

भक्तोंकी इच्छासे ही ये निर्गुणसे सगुण हो जाते हैं, निराकार होते हुए भी सुन्दर शरीर धारण कर लेते हैं और अनामा होकर भी बहुत-से नामवाले हो जाते हैं।

ये गोत्रहीन होकर भी उत्तम गोत्रवाले हैं, कुलहीन होकर भी कुलीन हैं, पार्वतीकी तपस्यासे ही ये आज तुम्हारे जामाता बन गये हैं, इसमें संशय नहीं है।

गिरिश्रेष्ठ! इन लीलाविहारी परमेश्वरने चराचर जगत् को मोहमें डाल रखा है।

कोई कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो, वह भगवान् शिवको अच्छी तरह नहीं जानता।

ब्रह्माजी कहते हैं—मुने! ऐसा कहकर शिवकी इच्छासे कार्य करनेवाले तुझ ज्ञानी देवर्षिने शैलराजको अपनी वाणीसे हर्ष प्रदान करते हुए फिर इस प्रकार उत्तर दिया।

नारद बोले—शिवाको जन्म देनेवाले तात महाशैल! मेरी बात सुनो और उसे सुनकर अपनी पुत्री शंकरजीके हाथमें दे दो।

लीलापूर्वक रूप धारण करनेवाले सगुण महेश्वरका गोत्र और कुल केवल नाद ही है, इस बातको अच्छी तरह समझ लो।

शिव नादमय हैं और नाद शिवमय है—यह सर्वथा सच्ची बात है।

नाद और शिव—इन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है।

शैलेन्द्र! सृष्टिके समय सबसे पहले लीलाके लिये सगुण रूप धारण करनेवाले शिवसे नाद ही प्रकट हुआ था।

अतः वह सबसे उत्कृष्ट है।

हिमालय! इसीलिये मन-ही-मन सर्वेश्वर शंकरके द्वारा प्रेरित हो मैंने आज अभी वीणा बजाना आरम्भ कर दिया था।

ब्रह्माजी कहते हैं—मुने! तुम्हारी यह बात सुनकर गिरिराज हिमालयको संतोष प्राप्त हुआ और उनके मनका सारा विस्मय जाता रहा।

तदनन्तर श्रीविष्णु आदि देवता तथा मुनि सब-के-सब विस्मयरहित हो नारदको साधुवाद देने लगे।

महेश्वरकी गम्भीरता जानकर सभी विद्वान् आश्चर्य-चकित हो बड़ी प्रसन्नताके साथ परस्पर बोले—‘अहो! जिनकी आज्ञासे इस विशाल जगत् का प्राकट्य हुआ है, जो परात्परतर, आत्मबोधस्वरूप, स्वतन्त्र लीला करनेवाले तथा उत्तमभावसे ही जाननेयोग्य हैं, उन त्रिलोकनाथ भगवान् शम्भुका आज हमलोगोंने भलीभाँति दर्शन किया है।’ तदनन्तर हिमालयने विधिके द्वारा प्रेरित हो भगवान् शिवको अपनी कन्याका दान कर दिया।

कन्यादान करते समय वे बोले— इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर।

भार्यार्थं परिगृह्णीष्व प्रसीद सकलेश्वर।।

‘परमेश्वर! मैं अपनी यह कन्या आपको देता हूँ।

आप इसे अपनी पत्नी बनानेके लिये ग्रहण करें! सर्वेश्वर! इस कन्यादानसे आप संतुष्ट हों।’ इस मन्त्रका उच्चारण करके हिमाचलने अपनी पुत्री त्रिलोकजननी पार्वतीको उन महान् देवता रुद्रके हाथमें दे दिया।

इस प्रकार शिवाका हाथ शिवके हाथमें रखकर शैलराज मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए।

उस समय वे अपने मनोरथके महासागरको पार कर गये थे।

परमेश्वर महादेवजीने प्रसन्न हो वेदमन्त्रके उच्चारणपूर्वक गिरिजाके करकमलको शीघ्र अपने हाथमें ले लिया।

मुने! लोकाचारके पालनकी आवश्यकता-को दिखाते हुए उन भगवान् शंकरने पृथ्वीका स्पर्श करके ‘कोऽदात्०’ * इत्यादि रूपसे कामसम्बन्धी मन्त्रका पाठ किया।

उस समय वहाँ सब ओर महान् आनन्ददायक महोत्सव होने लगा।

पृथ्वीपर, अन्तरिक्षमें तथा स्वर्गमें भी जय-जयकारका शब्द गूँजने लगा।

सब लोग अत्यन्त हर्षसे भरकर साधुवाद देने और नमस्कार करने लगे।

गन्धर्वगण प्रेमपूर्वक गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं।

हिमाचलके नगरके लोग भी अपने मनमें परम आनन्दका अनुभव करने लगे।

उस समय महान् उत्सवके साथ परम मंगल मनाया जाने लगा।

मैं, विष्णु, इन्द्र, देवगण तथा सम्पूर्ण मुनि हर्षसे भर गये।

हम सबके मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिल उठे।

तदनन्तर शैलराज हिमाचलने अत्यन्त प्रसन्न हो शिवके लिये कन्यादानकी यथोचित सांगता प्रदान की।

तत्पश्चात् उनके बन्धुजनोंने भक्तिपूर्वक शिवाका पूजन करके नाना विधि-विधानसे भगवान् शिवको उत्तम द्रव्य समर्पित किया।

हिमालयने दहेजमें अनेक प्रकारके द्रव्य, रत्न, पात्र, एक लाख सुसज्जित गौएँ, एक लाख सजे-सजाये घोड़े, करोड़ हाथी और उतने ही सुवर्णजटित रथ आदि वस्तुएँ दीं; इस प्रकार परमात्मा शिवको विधिपूर्वक अपनी पुत्री कल्याणमयी पार्वतीका दान करके हिमालय कृतार्थ हो गये।

इसके बाद शैलराजने यजुर्वेदकी माध्यंदिनी शाखामें वर्णित स्तोत्रके द्वारा दोनों हाथ जोड़ प्रसन्नतापूर्वक उत्तम वाणीमें परमेश्वर शिवकी स्तुति की।

तत्पश्चात् वेदवेत्ता हिमाचलके आज्ञा देनेपर मुनियोंने बड़े उत्साहके साथ शिवाके सिरपर अभिषेक किया और महादेवजीका नाम लेकर उस अभिषेककी विधि पूरी की।

मुने! उस समय बड़ा आनन्ददायक महोत्सव हो रहा था।

(अध्याय ४८) * विवाहमें कन्या-प्रतिग्रहके पश्चात् वर इस कामस्तुतिका पाठ करता है।

पूरा मन्त्र इस प्रकार है—कोऽदात्कस्मा अदात्कामोऽदात्कामायादात्कामो दाता कामः प्रतिग्रहीता कामैतत्ते।

(शु० यजुर्वेदसंहिता ७।४८)


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