शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 3


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उमादेवीका दिव्यरूपसे देवताओंको दर्शन देना, देवताओंका उनसे अपना अभिप्राय निवेदन करना और देवीका अवतार लेनेकी बात स्वीकार करके देवताओंको आश्वासन देना

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर दुर्गम पीड़ाका नाश करनेवाली जगज्जननी देवी दुर्गा उनके सामने प्रकट हुईं।

वे परम अद्भुत दिव्य रत्नमय रथपर बैठी हुई थीं।

उस श्रेष्ठ रथमें घुँघुरू लगे हुए थे और मुलायम बिस्तर बिछे थे।

उनके श्रीविग्रहका एक-एक अंग करोड़ों सूर्योंसे भी अधिक प्रकाशमान और रमणीय था।

ऐसे अवयवोंसे वे अत्यन्त उद्भासित हो रही थीं।

सब ओर फैली हुई अपनी तेजोराशिके मध्यभागमें वे विराजमान थीं।

उनका रूप बहुत ही सुन्दर था और उनकी छविकी कहीं तुलना नहीं थी।

सदाशिवके साथ विलास करनेवाली उन महामायाकी किसीके साथ समानता नहीं थी।

शिवलोकमें निवास करनेवाली वे देवी त्रिविध चिन्मय गुणोंसे युक्त थीं।

प्राकृत गुणोंका अभाव होनेसे उन्हें निर्गुणा कहा जाता है।

वे नित्यरूपा हैं।

वे दुष्टोंपर प्रचण्ड कोप करनेके कारण चण्डी कहलाती हैं, परंतु स्वरूपसे शिवा (कल्याणमयी) हैं।

सबकी सम्पूर्ण पीड़ाओंका नाश करनेवाली तथा सम्पूर्ण जगत् की माता हैं।

वे ही प्रलयकालमें महानिद्रा होकर सबको अपने अंकमें सुला लेती हैं तथा वे समस्त स्वजनों (भक्तों)-का संसार-सागरसे उद्धार कर देती हैं।

शिवादेवीकी तेजोराशिके प्रभावसे देवता उन्हें अच्छी तरह देख न सके।

तब उनके दर्शनकी अभिलाषासे देवताओंने फिर उनका स्तवन किया।

तदनन्तर दर्शनकी इच्छा रखनेवाले विष्णु आदि सब देवता उन जगदम्बाकी कृपा पाकर वहाँ उनका सुस्पष्ट दर्शन कर सके।

इसके बाद देवता बोले—अम्बिके! महादेवि! हम सदा आपके दास हैं।

आप प्रसन्नतापूर्वक हमारा निवेदन सुनें।

पहले आप दक्षकी पुत्रीरूपसे अवतीर्ण हो लोकमें रुद्रदेवकी वल्लभा हुई थीं।

उस समय आपने ब्रह्माजीके तथा दूसरे देवताओंके महान् दुःखका निवारण किया था।

तदनन्तर पितासे अनादर पाकर अपनी की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार आपने शरीरको त्याग दिया और स्वधाममें पधार आयीं।

इससे भगवान् हरको भी बड़ा दुःख हुआ।

महेश्वरि! आपके चले आनेसे देवताओंका कार्य पूरा नहीं हुआ।

अतः हम देवता और मुनि व्याकुल होकर आपकी शरणमें आये हैं।

महेशानि! शिवे! आप देवताओंका मनोरथ पूर्ण करें, जिससे सनत्कुमारका वचन सफल हो।

देवि! आप भूतलपर अवतीर्ण हो पुनः रुद्रदेवकी पत्नी होइये और यथायोग्य ऐसी लीला कीजिये, जिससे देवताओंको सुख प्राप्त हो।

देवि! इससे कैलास पर्वतपर निवास करनेवाले रुद्रदेव भी सुखी होंगे।

आप ऐसी कृपा करें, जिससे सब सुखी हों और सबका सारा दुःख नष्ट हो जाय।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर विष्णु आदि सब देवता प्रेममें मग्न हो गये और भक्तिसे विनम्र होकर चुपचाप खड़े रहे।

देवताओंकी यह स्तुति सुनकर शिवादेवीको भी बड़ी प्रसन्नता हुई।

उसके हेतुका विचार करके अपने प्रभु शिवका स्मरण करती हुई भक्तवत्सला दयामयी उमादेवी उस समय विष्णु आदि देवताओंको सम्बोधित करके हँसकर बोलीं।

उमाने कहा—हे हरे! हे विधे! और हे देवताओ तथा मुनियो! तुम सब लोग अपने मनसे व्यथाको निकाल दो और मेरी बात सुनो।

मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, इसमें संशय नहीं है।

सब लोग अपने-अपने स्थानको जाओ और चिरकालतक सुखी रहो।

मैं अवतार ले मेनाकी पुत्री होकर उन्हें सुख दूँगी और रुद्रदेवकी पत्नी हो जाऊँगी।

यह मेरा अत्यन्त गुप्त मत है।

भगवान् शिवकी लीला अद्भुत है।

वह ज्ञानियोंको भी मोहमें डालनेवाली है।

देवताओ! उस यज्ञमें जाकर पिताके द्वारा अपने स्वामीका अनादर देख जबसे मैंने दक्षजनित शरीरको त्याग दिया है, तभीसे वे मेरे स्वामी कालाग्नि रुद्रदेव तत्काल दिगम्बर हो गये।

वे मेरी ही चिन्तामें डूबे रहते हैं।

उनके मनमें यह विचार उठा करता है कि धर्मको जाननेवाली सती मेरा रोष देखकर पिताके यज्ञमें गयी और वहाँ मेरा अनादर देख मुझमें प्रेम होनेके कारण उसने अपना शरीर त्याग दिया।

यही सोचकर वे घर-बार छोड़ अलौकिक वेष धारण करके योगी हो गये।

मेरी स्वरूपभूता सतीके वियोगको वे महेश्वर सहन न कर सके।

देवताओ! भगवान् रुद्रकी भी यह अत्यन्त इच्छा है कि भूतलपर मेना और हिमाचलके घरमें मेरा अवतार हो; क्योंकि वे पुनः मेरा पाणिग्रहण करनेकी अधिक अभिलाषा रखते हैं।

अतः मैं रुद्रदेवके संतोषके लिये अवतार लूँगी और लौकिक गतिका आश्रय लेकर हिमालय-पत्नी मेनाकी पुत्री होऊँगी।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर जगदम्बा शिवा उस समय समस्त देवताओंके देखते-देखते ही अदृश्य हो गयीं और तुरंत अपने लोकमें चली गयीं।

तदनन्तर हर्षसे भरे हुए विष्णु आदि समस्त देवता और मुनि उस दिशाको प्रणाम करके अपने-अपने धाममें चले गये।

(अध्याय ४)


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