शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 29


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भगवान् शिवका बारात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान

ब्रह्माजी कहते हैं—मुने! तदनन्तर भगवान् शम्भुने नन्दी आदि सब गणोंको अपने साथ हिमाचलपुरीको चलनेकी प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा देते हुए कहा—‘तुमलोग थोड़े-से गणोंको यहाँ रखकर शेष सभी लोग मेरे साथ बड़े उत्साह और आनन्दसे युक्त हो गिरिराज हिमवान् के नगरको चलो।’ फिर तो भगवान् की आज्ञा पाकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, पारिजात, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, संदारक, कन्दुक, कुण्डक, विष्टम्भ, पिप्पल, सनादक, आवेशन, कुण्ड, पर्वतक, चन्द्रतापन, काल, कालक, महाकाल, अग्निक, अग्निमुख, आदित्यमूर्द्धा, घनावह, संनाह, कुमुद, अमोघ, कोकिल, सुमन्त्र, काकपादोदर, संतानक, मधुपिंग, कोकिल, पूर्णभद्र, नील, चतुर्वक्त्र, करण, अहिरोमक, यज्ज्वाक्ष, शतमन्यु, मेघमन्यु, काष्ठागूढ़, विरूपाक्ष, सुकेश, वृषभ, सनातन, तालकेतु, षण्मुख, चैत्र, स्वयम्प्रभु, लकुलीश, लोकान्तक, दीप्तात्मा, दैत्यान्तक, भृंगिरिटि, देवदेवप्रिय, अशनि, भानुक, प्रमथ तथा वीरभद्र अपने असंख्य कोटि-कोटि गणों तथा भूतोंको साथ लेकर चले।

नन्दी आदि गणराज असंख्य गणोंसे घिरे चले तथा क्षेत्रपाल और भैरव भी कोटि-कोटि गणोंको लेकर उत्सव मनाते हुए प्रेम और उत्साहके साथ चल पड़े।

वे सब सहस्र हाथोंसे युक्त थे।

सिरपर जटाका मुकुट धारण किये हुए थे।

उन सबके मस्तकपर चन्द्रमा और गलेमें नील चिह्न थे तथा वे सब-के-सब त्रिनेत्रधारी थे।

उन सबने रुद्राक्षके आभूषण पहन रखे थे।

सभी उत्तम भस्म धारण किये थे और हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुट आदिसे अलंकृत थे।

इस प्रकार देवताओं तथा दूसरे-दूसरे गणोंको साथ ले भगवान् शंकर अपने विवाहके लिये हिमवान् के नगरकी ओर चले।

चण्डीदेवी रुद्रदेवकी बहिन बनकर खूब उत्सव मनाती हुई बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ आ पहुँचीं।

वे शत्रुओंको अत्यन्त भय देनेवाली थीं।

उन्होंने साँपोंके आभूषणसे अपनेको विभूषित कर रखा था।

उनका वाहन प्रेत था।

वे उसीपर आरूढ़ हो अपने माथेपर एक सोनेका भरा हुआ कलश लिये चल रही थीं।

वह कलश महान् प्रभापुंजसे प्रकाशित हो रहा था।

मुने! वहाँ करोड़ों दिव्य भूतगण शोभा पाते थे, जिनका रूप विकराल था।

उनके रूप-रंग भी अनेक प्रकारके थे।

उस समय डमरुओंके डिम-डिम घोषसे, भेरियोंकी गड़गड़ाहटसे और शंखोंके गम्भीर नादसे तीनों लोक गूँज उठे थे।

दुन्दुभियोंकी ध्वनिसे महान् कोलाहल हो रहा था।

वह जगत् का मंगल करता हुआ अमंगलका नाश करता था।

देवता लोग शिवगणोंके पीछे होकर बड़ी उत्सुकताके साथ बारातका अनुसरण करते थे।

सम्पूर्ण सिद्ध और लोकपाल आदि भी देवताओंके साथ थे।

देवमण्डलीके मध्यभागमें गरुड़के आसनपर बैठकर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु चल रहे थे।

मुने! उनके ऊपर महान् छत्र तना हुआ था, जो उनकी शोभा बढ़ाता था।

उनपर चँवर डुलाये जा रहे थे और वे अपने गणोंसे घिरे हुए थे।

उनके शोभाशाली पार्षदोंने उन्हें अपने ढंगसे आभूषण आदिके द्वारा विभूषित किया था।

इसी प्रकार मैं भी मूर्तिमान् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकादि महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा अन्यान्य परिजनोंके साथ मार्गमें चलता हुआ बड़ी शोभा पा रहा था और शिवकी सेवामें तत्पर था।

देवराज इन्द्र भी नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हो ऐरावत हाथीपर आरूढ़ होकर अपने सेनाके बीचसे चलते हुए अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे।

उस समय बारातके साथ यात्रा करते हुए बहुत-से ऋषि भी अपने तेजसे प्रकाशित हो रहे थे।

वे शिवजीका विवाह देखनेके लिये बहुत उत्कण्ठित थे।

शाकिनी, यातुधान, बेताल, ब्रह्मराक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ आदि गण; तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गन्धर्व तथा किंनर भी बड़े हर्षसे भरकर बाजा बजाते हुए चले।

सम्पूर्ण जगन्माताएँ, सारी देवकन्याएँ, गायत्री, सावित्री, लक्ष्मी और अन्य देवांगनाएँ—ये तथा दूसरी देवपत्नियाँ जो सम्पूर्ण जगत् की माताएँ है, शंकरजीका विवाह है, यह सोचकर बड़ी प्रसन्नताके साथ उसमें सम्मिलित होनेके लिये गयीं।

वेदों, शास्त्रों, सिद्धों और महर्षियोंद्वारा जो साक्षात् धर्मका स्वरूप कहा गया है तथा जिसकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिकके समान उज्ज्वल है, वह सर्वांग-सुन्दर वृषभ भगवान् शिवका वाहन है।

धर्मवत्सल महादेवजी उस वृषभपर आरूढ़ हो सबके साथ यात्रा करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे।

देवर्षियोंके समुदाय उनकी सेवामें उपस्थित थे।

इन सब देवताओं और महर्षियोंके एकत्र हुए समुदायसे महेश्वरकी बड़ी शोभा हो रही थी।

उनका बहुत शृंगार किया गया था।

वे शिवाका पाणिग्रहण करनेके लिये हिमालयके भवनको जा रहे थे।

नारद! इस प्रकार बारातकी यात्रा-सम्बन्धी उत्तम उत्सवसे युक्त शम्भुका चरित्र कहा गया।

अब हिमालयनगरमें जो सुन्दर वृत्तान्त घटित हुआ, उसे सुनो।

(अध्याय ४०)


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