शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 26


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


सप्तर्षियोंके समझाने तथा मेरु आदिके कहनेसे पत्नीसहित हिमवान् का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना तथा सप्तर्षियोंका शिवके पास जा उन्हें सब बात बताकर अपने धामको जाना

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! तदनन्तर वसिष्ठने प्राचीनकालमें राजा अनरण्यके द्वारा अपनी कन्या पद्माका पिप्पलादके साथ विवाह करनेकी तथा धर्मके वरदानसे पिप्पलादके तरुण अवस्था, रूप, गुण, सदा स्थिर रहनेवाले यौवन, कुबेर और इन्द्रसे भी बढ़कर धन-ऐश्वर्य, भक्ति, सिद्धि एवं समता प्राप्त करनेकी तथा पद्माके स्थिर यौवन, सौभाग्य, सम्पत्ति एवं भर्ताके द्वारा परम गुणवान् दस पुत्रोंके प्राप्त करनेकी कथा सुनाकर कहा—‘शैलेन्द्र! तुम मेरे कथनके सारतत्त्वको समझकर अपनी पुत्री पार्वतीका हाथ महादेवजीके हाथमें दे दो और मेनासहित तुम्हारे मनमें जो कुरोष है, उसे त्याग दो।

आजसे एक सप्ताह व्यतीत होनेपर अत्यन्त शुभ और दुर्लभ मुहूर्त आनेवाला है।

उस समय चन्द्रमा लग्नके स्वामी होकर अपने पुत्र बुधके साथ लग्नमें ही स्थित होंगे।

उनका रोहिणी नक्षत्रके साथ योग होगा।

चन्द्रमा और तारे शुद्ध होंगे।

मार्गशीर्षमासके अन्तर्गत सम्पूर्ण दोषोंसे रहित सोमवारको, जब कि लग्नपर सम्पूर्ण शुभग्रहोंकी दृष्टि होगी, पापग्रहोंकी दृष्टि नहीं होगी तथा बृहस्पति ऐसे स्थानपर स्थित होंगे, जहाँसे वे उत्तम संतान और पतिका सौभाग्य देनेमें समर्थ होंगे।

ऐसे मुहूर्तमें तुम अपनी कन्या मूलप्रकृति ईश्वरी जगदम्बा पार्वतीको जगत्पिता भगवान् शिवके हाथमें देकर कृतार्थ हो जाओ।’ ऐसा कहकर ज्ञानशिरोमणि मुनिवर वसिष्ठ नाना प्रकारकी लीला करनेवाले भगवान् शिवका स्मरण करके चुप हो गये।

वसिष्ठजीकी बात सुनकर सेवकों और पत्नीसहित गिरिराज हिमालय बड़े विस्मित हुए और दूसरे-दूसरे पर्वतोंसे बोले।

हिमालयने कहा—गिरिराज मेरु, सह्य, गन्धमादन, मन्दराचल, मैनाक और विन्ध्याचल आदि पर्वतेश्वरो! आप सब लोग मेरी बात सुनें।

वसिष्ठजी ऐसी बात कह रहे हैं।

अब मुझे क्या करना चाहिये, इस बातका विचार करना है।

आपलोग अपने मनसे सब बातोंका निर्णय करके जैसा ठीक समझें, वैसा करें।

हिमाचलकी यह बात सुनकर सुमेरु आदि पर्वत भलीभाँति निर्णय करके उनसे प्रसन्नतापूर्वक बोले।

पर्वतोंने कहा—महाभाग! इस समय विचार करनेसे क्या लाभ? जैसा ऋषिलोग कहते हैं, उसके अनुसार ही कार्य करना चाहिये।

वास्तवमें यह कन्या देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये ही उत्पन्न हुई है।

इसने शिवके लिये ही अवतार लिया है, इसलिये यह शिवको ही दी जानी चाहिये।

यदि इसने रुद्रदेवकी आराधना की है और रुद्रने आकर इसके साथ वार्तालाप किया है तो इसका विवाह उन्हींके साथ होना चाहिये।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! उन मेरु आदि पर्वतोंकी यह बात सुनकर हिमाचल बड़े प्रसन्न हुए और गिरिजा भी मन-ही-मन हँसने लगीं।

अरुन्धतीने भी अनेक कारण बताकर, नाना प्रकारकी बातें सुनाकर और विविध प्रकारके इतिहासोंका वर्णन करके मेनादेवीको समझाया।

तब शैलपत्नी मेनका सब कुछ समझ गयीं और प्रसन्नचित्त हो उन्होंने मुनियोंको, अरुन्धतीजीको और हिमाचलको भी भोजन कराकर स्वयं भोजन किया।

तदनन्तर ज्ञानी गिरिश्रेष्ठ हिमाचलने उन मुनियोंकी भलीभाँति सेवा की।

उनका मन प्रसन्न और सारा भ्रम दूर हो गया था।

उन्होंने हाथ जोड़ प्रसन्नतापूर्वक उन महर्षियोंसे कहा।

हिमालय बोले—महाभाग सप्तर्षियो! आपलोग मेरी बात सुनें।

मेरा सारा संदेह दूर हो गया।

मैंने शिव-पार्वतीके चरित्र सुन लिये; अब मेरा शरीर, मेरी पत्नी मेना, मेरे पुत्र-पुत्री, ऋद्धि-सिद्धि तथा अन्य सारी वस्तुएँ भगवान् शिवकी ही हैं, दूसरे किसीकी नहीं! ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर हिमाचलने अपनी पुत्रीकी ओर आदर-पूर्वक देखा और उसे वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके ऋषियोंकी गोदमें बिठा दिया।

तत्पश्चात् वे शैलराज पुनः प्रसन्न हो उन ऋषियोंसे बोले—‘यह भगवान् रुद्रका भाग है।

इसे मैं उन्हींको दूँगा, ऐसा निश्चय कर लिया है।’ ऋषि बोले—गिरिराज! भगवान् शंकर तुम्हारे याचक हैं, तुम स्वयं उनके दाता हो और पार्वतीदेवी भिक्षा हैं।

इससे उत्तम और क्या हो सकता है? हिमाचल! तुम समस्त पर्वतोंके राजा, सबसे श्रेष्ठ और धन्य हो।

अतः तुम्हारे शिखरोंकी सामान्य गति है—तुम्हारे सभी शिखर सामान्यरूपसे पवित्र एवं श्रेष्ठ हैं।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर निर्मल अन्तःकरणवाले उन मुनियोंने गिरिराजकुमारी पार्वतीको हाथसे छूकर आशीर्वाद देते हुए कहा—‘शिवे! तुम भगवान् शिवके लिये सुखदायिनी होओ।

तुम्हारा कल्याण होगा।

जैसे शुक्लपक्षमें चन्द्रमा बढ़ते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे गुणोंकी वृद्धि हो।’ ऐसा कहकर सब मुनियोंने गिरिराजको प्रसन्नतापूर्वक फल-फूल दे विवाहके पक्के होनेका दृढ़ विश्वास कर लिया।

उस समय परम सती सुमुखी अरुन्धतीने प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शिवके गुणोंका बखान करके मेनाको लुभा लिया।

तदनन्तर गिरिराज हिमवान् ने परम उत्तम मांगलिक लोकाचारका आश्रय ले हल्दी और कुंकुमसे अपनी दाढ़ी-मूछका मार्जन किया।

तत्पश्चात् चौथे दिन उत्तम लग्नका निश्चय करके परस्पर संतोष दे, वे सप्तर्षि भगवान् शिवके पास चले गये।

वहाँ जाकर शिवको नमस्कार और विविध सूक्तियोंसे उनका स्तवन करके वे वसिष्ठ आदि सब मुनि परमेश्वर शिवसे बोले।

ऋषियोंने कहा—देवदेव! महादेव! परमेश्वर! महाप्रभो! आप प्रेमपूर्वक हमारी बात सुनें।

आपके इन सेवकोंने जो कार्य किया है, उसे जान लें।

महेश्वर! हमने नाना प्रकारके सुन्दर वचन और इतिहास सुनाकर गिरिराज और मेनाको समझा दिया है।

गिरिराजने आपके लिये पार्वतीका वाग्दान कर दिया है।

अब इसमें कोई ननु-नच नहीं है।

अब आप अपने पार्षदों तथा देवताओंके साथ उनके यहाँ विवाहके लिये जाइये।

महादेव! प्रभो! अब शीघ्र हिमाचलके घर पधारिये और वेदोक्त रीतिके अनुसार पार्वतीका अपने लिये पाणिग्रहण कीजिये।

सप्तर्षियोंका यह वचन सुनकर लोकाचारपरायण महेश्वर प्रसन्नचित्त हो हँसते हुए इस प्रकार बोले।

महेश्वरने कहा—महाभाग सप्तर्षियो! विवाहको तो मैंने न कभी देखा है और न सुना ही है।

तुमलोगोंने पहले जैसा देखा हो, उसके अनुसार विवाहकी विशेष विधिका वर्णन करो।

महेश्वरके उस लौकिक शुभ वचनको सुनकर वे ऋषि हँसते हुए देवाधिदेव भगवान् सदाशिवसे बोले।

ऋषियोंने कहा—प्रभो! आप पहले तो भगवान् विष्णुको, विशेषतः उनके पार्षदोंसहित शीघ्र बुला लें।

फिर पुत्रोंसहित ब्रह्माजीको, देवराज इन्द्रको, समस्त ऋषियोंको, यक्ष, गन्धर्व, किंनर, सिद्ध, विद्याधर और अप्सराओंको प्रसन्नतापूर्वक आमन्त्रित करें।

इनको तथा अन्य सब लोगोंको यहाँ सादर बुलवा लें।

वे सब मिलकर आपके कार्यका साधन कर लेंगे, इसमें संशय नहीं है।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर वे सातों ऋषि उनकी आज्ञा ले भगवान् शंकरकी स्थितिका वर्णन करते हुए वहाँसे प्रसन्नतापूर्वक अपने धामको चले गये।

(अध्याय ३४—३६)


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