शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 24


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


देवताओंके अनुरोधसे वैष्णव ब्राह्मणके वेषमें शिवजीका हिमवान् के घर जाना और शिवकी निन्दा करके पार्वतीका विवाह उनके साथ न करनेको कहना

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! मेना और हिमवान् की भगवान् शिवके प्रति उच्च-कोटिकी अनन्यभक्ति देख इन्द्र आदि सब देवता परस्पर विचार करने लगे।

तदनन्तर गुरु बृहस्पति और ब्रह्माजीकी सम्मतिके अनुसार सभी मुख्य देवताओंने शिवजीके पास जाकर उनको प्रणाम किया और वे हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।

देवता बोले—देवदेव! महादेव! करुणाकर! शंकर! हम आपकी शरणमें आये हैं, कृपा कीजिये।

आपको नमस्कार है।

स्वामिन्! आप भक्तवत्सल होनेके कारण सदा भक्तोंके कार्य सिद्ध करते हैं।

दीनोंका उद्धार करनेवाले और दयाके सिन्धु हैं तथा भक्तोंको विपत्तियोंसे छुड़ानेवाले हैं।

इस प्रकार महेश्वरकी स्तुति करके इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंने मेना और हिमवान् की अनन्य शिवभक्तिके विषयमें सारी बातें आदरपूर्वक बतायीं।

देवताओंकी वह बात सुनकर महेश्वरने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और हँसते हुए उन्हें आश्वासन देकर विदा किया।

तब सब देवता अपना कार्य सिद्ध हुआ मानकर भगवान् सदाशिवकी प्रशंसा करते हुए शीघ्र अपने घरको लौटकर प्रसन्नताका अनुभव करने लगे।

तदनन्तर भक्तवत्सल महेश्वर भगवान् शम्भु, जो मायाके स्वामी हैं, निर्विकार चित्तसे शैलराजके यहाँ गये।

उस समय गिरिराज हिमवान् सभा-भवनमें बन्धुवर्गसे घिरे हुए पार्वतीसहित प्रसन्नतापूर्वक बैठे थे।

इसी अवसरपर वहाँ सदाशिवने पदार्पण किया।

वे हाथमें दण्ड, छत्र, शरीरपर दिव्य वस्त्र, ललाटमें उज्ज्वल तिलक, एक हाथमें स्फटिककी माला और गलेमें शालग्राम धारण किये भक्तिपूर्वक हरिनामका जप कर रहे थे और देखनेमें साधुवेषधारी ब्राह्मण जान पड़ते थे।

उन्हें आया देख सपरिवार हिमवान् उठकर खड़े हो गये।

उन्होंने उन अपूर्व अतिथि-देवताको भूतलपर दण्डके समान पड़कर भक्तिभावसे साष्टांग प्रणाम किया।

देवी पार्वती ब्राह्मणरूपधारी प्राणेश्वर शिवको पहचान गयी थीं।

अतः उन्होंने भी उनको मस्तक झुकाया और मन-ही-मन बड़ी प्रसन्नताके साथ उनकी स्तुति की।

ब्राह्मणरूपधारी शिवने उन सबको प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दिया।

किंतु शिवाको सबसे अधिक मनोवांछित शुभाशीर्वाद प्रदान किया।

शैलाधिराज हिमवान् ने बड़े आदरसे उन्हें मधुपर्क आदि पूजन-सामग्री भेंट की और ब्राह्मणने बड़ी प्रसन्नताके साथ वह सब ग्रहण किया।

तत्पश्चात् गिरिश्रेष्ठ हिमाचलने उनका कुशल-समाचार पूछा।

मुने! अत्यन्त प्रीतिपूर्वक उन द्विजराजकी विधिवत् पूजा करके शैलराजने पूछा—‘आप कौन हैं?’ तब उन ब्राह्मण-शिरोमणिने गिरिराजसे शीघ्र ही आदर-पूर्वक कहा।

वे श्रेष्ठ ब्राह्मण बोले—गिरिश्रेष्ठ! मैं उत्तम विद्वान् वैष्णव ब्राह्मण हूँ और ज्योतिषीकी वृत्तिका आश्रय लेकर भूतलपर भ्रमण करता रहता हूँ।

मनके समान मेरी गति है।

मैं सर्वत्र जानेमें समर्थ और गुरुकी दी हुई शक्तिसे सर्वज्ञ, परोपकारी, शुद्धात्मा, दयासिन्धु और विकारनाशक हूँ।

मुझे ज्ञात हुआ है कि तुम अपनी इस लक्ष्मी-सरीखी सुन्दर रूपवाली दिव्य सुलक्षणा अपनी पुत्रीको एक आश्रयरहित, असंग, कुरूप और गुणहीन वर—महादेवजीके हाथमें देना चाहते हो।

वे रुद्र देवता मरघटमें वास करते, शरीरमें साँप लपेटे रहते और योग साधते फिरते हैं।

उनके पास पहननेके लिये एक वस्त्र भी नहीं है।

वैसे ही नंग-धड़ंग घूमते हैं।

आभूषणकी जगह सर्प धारण करते हैं।

उनके कुलका नाम आजतक किसीको ज्ञात नहीं हुआ।

वे कुपात्र और कुशील हैं।

स्वभावतः विहारसे दूर रहते हैं।

सारे शरीरमें भस्म रमाते हैं।

क्रोधी और अविवेकी हैं।

उनकी अवस्था कितनी है, यह किसीको ज्ञात नहीं।

वे अत्यन्त कुत्सित जटाका बोझ सदा सिरपर धारण किये रहते हैं।

वे भले-बुरे सबको आश्रय देनेवाले, भ्रमणशील, नागहारधारी, भिक्षुक, कुमार्ग-परायण तथा हठपूर्वक वैदिकमार्गका त्याग करनेवाले हैं।

ऐसे अयोग्य वरको आप अपनी बेटी ब्याहना चाहते हैं? अचलराज! अवश्य ही आपका यह विचार मंगलदायक नहीं है।

नारायणकुलमें उत्पन्न! ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ गिरिराज! मेरे कथनका मर्म समझो।

तुमने जिस पात्रको ढूँढ़ रखा है, वह इस योग्य नहीं है कि उसके हाथमें पार्वतीका हाथ दिया जाय।

शैलराज! तुम्हीं देखो, उनके एक भी भाई-बन्धु नहीं हैं।

तुम तो बड़े-बड़े रत्नोंकी खान हो।

किंतु उनके घरमें भूजी भाँग भी नहीं है—वे सर्वथा निर्धन हैं।

गिरिराज! तुम शीघ्र ही अपने भाई-बन्धुओंसे, मेनादेवीसे, सभी बेटोंसे और पण्डितोंसे भी प्रयत्नपूर्वक पूछ लो।

किंतु पार्वतीसे न पूछना; क्योंकि उन्हें शिवके गुण-दोषकी परख नहीं है।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर वे ब्राह्मण देवता, जो नाना प्रकारकी लीला करनेवाले शान्तस्वरूप शिव ही थे, शीघ्र खा-पीकर आनन्दपूर्वक वहाँसे अपने घरको चल दिये।

(अध्याय ३१)


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