शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 21


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


पार्वतीजीका परमेश्वर शिवकी महत्ताका प्रतिपादन करना, रोषपूर्वक जटिल ब्राह्मणको फटकारना, सखीद्वारा उन्हें फिर बोलनेसे रोकना तथा भगवान् शिवका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दे अपने साथ चलनेके लिये कहना

पार्वती बोलीं—बाबाजी! अबतक तो मैंने यह समझा था कि कोई दूसरे ज्ञानी महात्मा आ गये हैं।

परंतु अब सब ज्ञात हो गया—आपकी कलई खुल गयी।

आपसे क्या कहूँ—विशेषतः उस दशामें, जब आप अवध्य ब्राह्मण हैं? ब्राह्मणदेवता! आपने जो कुछ कहा है, वह सब मुझे ज्ञात है।

परंतु वह सब झूठा ही है, सत्य कुछ नहीं है।

आपने कहा था कि मैं शिवको जानता हूँ।

यदि आपकी यह बात ठीक होती तो आप ऐसी युक्ति एवं बुद्धिके विरुद्ध बात नहीं बोलते।

यह ठीक है कि कभी-कभी महेश्वर अपनी लीलाशक्तिसे प्रेरित हो तथाकथित अद्भुत वेष धारण कर लिया करते हैं।

परंतु वास्तवमें वे साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं।

उन्होंने स्वेच्छासे ही शरीर धारण किया है।

आप ब्रह्मचारीका स्वरूप धारण कर मुझे ठगनेके लिये उद्यत हो यहाँ आये हैं और अनुचित एवं असंगत युक्तियोंका सहारा ले छल-कपटसे युक्त बातें बोल रहे हैं! मैं भगवान् शंकरके स्वरूपको भलीभाँति जानती हूँ।

इसलिये यथायोग्य विचार करके उनके तत्त्वका वर्णन करती हूँ।

वास्तवमें शिव निर्गुण ब्रह्म हैं, कारणवश सगुण हो गये हैं।

जो निर्गुण हैं, समस्त गुण जिनके स्वरूपभूत हैं, उनकी जाति कैसे हो सकती है? वे भगवान् सदाशिव समस्त विद्याओंके आधार हैं।

फिर उन पूर्ण परमात्मा-को किसी विद्यासे क्या काम? पूर्वकालमें कल्पके आरम्भमें भगवान् शम्भुने श्रीविष्णुको उच्छ् वासरूपसे सम्पूर्ण वेद प्रदान किये थे।

अतः उनके समान उत्तम प्रभु दूसरा कौन है? जो सबके आदि कारण हैं, उनकी अवस्था अथवा आयुका माप-तौल कैसे हो सकता है? प्रकृति उन्हींसे उत्पन्न हुई है।

फिर उनकी शक्तिका दूसरा क्या कारण हो सकता है? जो लोग सदा प्रेमपूर्वक शक्तिके स्वामी भगवान् शंकरका भजन करते हैं, उन्हें भगवान् शम्भु प्रभुशक्ति, उत्साहशक्ति और मन्त्रशक्ति—ये तीनों अक्षय शक्तियाँ प्रदान करते हैं।

भगवान् शिवके भजनसे ही जीव मृत्युको जीत लेता और निर्भय हो जाता है।

इसलिये तीनों लोकोंमें उनका ‘मृत्युंजय’ नाम प्रसिद्ध है।

उन्हींके अनुग्रहसे विष्णु विष्णुत्वको, ब्रह्मा ब्रह्मत्वको और देवता देवत्वको प्राप्त हुए हैं।

शिवजीका पक्ष लेकर बहुत बोलनेसे क्या लाभ? वे भगवान् स्वयं ही महाप्रभु हैं।

कल्याणरूपी शिवकी सेवासे यहाँ कौन-सा मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता? उन महादेवजीके पास किस बातकी कमी है, जो वे भगवान् सदाशिव स्वयं मुझे पानेकी इच्छा करें? यदि शंकरकी सेवा न करे तो मनुष्य सात जन्मोंतक दरिद्र होता है और उन्हींकी सेवासे सेवकको लोकमें कभी नष्ट न होनेवाली लक्ष्मी प्राप्त होती है।

जिनके सामने आठों सिद्धियाँ नित्य आकर सिर नीचा किये इस इच्छासे नृत्य करती हैं कि वे भगवान् हमपर संतुष्ट हो जायँ, उनके लिये कोई भी हितकर वस्तु दुर्लभ कैसे हो सकती है? यद्यपि यहाँ मांगलिक कही जानेवाली वस्तुएँ शंकरका सेवन नहीं करतीं, तथापि उनके स्मरणमात्रसे ही सबका मंगल होता है।

जिनकी पूजाके प्रभावसे उपासककी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं, सदा निर्विकार रहनेवाले उन परमात्मा शिवमें विकार कहाँसे आ सकता है? जिस पुरुषके मुखमें निरन्तर ‘शिव’ यह मंगलमय नाम निवास करता है, उसके दर्शनमात्रसे ही अन्य सब सदा पवित्र होते हैं।

जैसा कि आपने कहा है, वे चिताका भस्म लगाते हैं।

परंतु यदि उनका लगाया हुआ भस्म अपवित्र होता तो उनके शरीरसे झड़कर गिरे हुए उस भस्मको देवतालोग सदा अपने सिरपर कैसे धारण करते? (अतः शिवके अंगोंके स्पर्शसे अपवित्र वस्तु भी पवित्र हो जाती है।) जो महादेव सगुण होकर तीनों लोकोंके कर्ता-भर्ता और हर्ता होते हैं तथा निर्गुणरूपमें शिव कहलाते हैं, वे बुद्धिके द्वारा पूर्णरूपसे कैसे जाने जा सकते हैं? परब्रह्म परमात्मा शिवका जो निर्गुण रूप है, उसे आप-जैसे बहिर्मुख लोग कैसे जान सकते हैं? जो दुराचारी और पापी हैं, वे देवताओंसे बहिष्कृत हो जाते हैं।

ऐसे लोग निर्गुण शिवके तत्त्वको नहीं जानते।

जो पुरुष तत्त्वको न जाननेके कारण यहाँ शिवकी निन्दा करता है, उसके जन्मभरका सारा संचित पुण्य भस्म हो जाता है।

आपने जो यहाँ अमित तेजस्वी महादेवजीकी निन्दा की है और मैंने जो आपकी पूजा की है, उससे मुझे पापकी भागिनी होना पड़ा है।

शिवद्रोहीको देखकर वस्त्रसहित स्नान करना चाहिये, शिवद्रोहीका दर्शन हो जानेपर प्रायश्चित्त करना चाहिये।

इतना कहकर पार्वतीजी उस ब्राहाणपर अधिक रुष्ट होकर बोलीं—अरे रे दुष्ट! तूने कहा था कि मैं शंकरको जानता हूँ, परंतु निश्चय ही तूने उन सनातन शिवको नहीं जाना है।

भगवान् रुद्रको तू जैसा कहता है, वे वैसे ही क्यों न हों, उनके-जैसे भी बहुसंख्यक रूप क्यों न हों, सत्पुरुषोंके प्रियतम नित्य-निर्विकार वे भगवान् शिव ही मेरे अभीष्टतम देव हैं।

ब्रह्मा और विष्णु भी कभी उन महात्मा हरके समान नहीं हो सकते।

फिर दूसरे देवताओंकी तो बात ही क्या है? क्योंकि वे सदैव कालके अधीन हैं।

इस प्रकार अपनी शुद्धबुद्धिसे तत्त्वतः विचारकर मैं शिवके लिये वनमें आकर बड़ी भारी तपस्या कर रही हूँ।

वे भक्तवत्सल सर्वेश्वर शिव ही हम सबके परमेश्वर हैं।

दीनोंपर अनुग्रह करनेवाले उन महादेवको ही प्राप्त करनेकी मेरी इच्छा है।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर गिरिराजनन्दिनी गिरिजा चुप हो गयीं और निर्विकार चित्तसे भगवान् शिवका ध्यान करने लगीं।

देवीकी बात सुनकर वह ब्रह्मचारी ब्राह्मण ज्यों ही कुछ फिर कहनेके लिये उद्यत हुआ, त्यों ही शिवमें आसक्तचित्त होनेके कारण उनकी निन्दा सुननेसे विमुख हुई पार्वती अपनी सखी विजयासे शीघ्र बोलीं।

पार्वतीने कहा—सखी! इस अधम ब्राह्मणको यत्नपूर्वक रोको, यह फिर कुछ कहना चाहता है।

यह केवल शिवकी निन्दा ही करेगा, जो शिवकी निन्दा करता है, केवल उसीको पाप नहीं लगता, जो उस निन्दाको सुनता है, वह भी यहाँ पापका भागी होता है।* भगवान् शिवके उपासकोंको चाहिये कि वे शिवकी निन्दा करनेवालेका सर्वथा वध करें।

यदि वह ब्राह्मण हो तो उसे अवश्य ही त्याग दें और स्वयं उस निन्दाके स्थानसे शीघ्र दूर चले जायँ।

यह दुष्ट ब्राह्मण फिर शिवकी निन्दा करेगा।

ब्राह्मण होनेके कारण यह वध्य तो है नहीं, अतः त्याग देनेयोग्य है।

किसी तरह भी इसका मुँह नहीं देखना चाहिये।

इस स्थानको छोड़कर हमलोग आज ही किसी दूसरे स्थानमें शीघ्र चली चलें, जिससे फिर इस अज्ञानीके साथ बात करनेका अवसर न मिले।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर उमाने ज्यों ही अन्यत्र जानेके लिये पैर उठाया, त्यों ही भगवान् शिवने अपने साक्षात् स्वरूपसे प्रकट हो प्रिया पार्वतीका हाथ पकड़ लिया।

शिवा जैसे स्वरूपका ध्यान करती थीं, वैसा ही सुन्दर रूप धारण करके शिवने उन्हें दर्शन दिया।

पार्वतीने लज्जावश अपना मुँह नीचेकी ओर कर लिया।

तब भगवान् शिव उनसे बोले—प्रिये! मुझे छोड़कर कहाँ जाओगी? अब मैं फिर कभी तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा।

मैं प्रसन्न हूँ।

वर माँगो।

मुझे तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है।

देवि! आजसे मैं तपस्याके मोल खरीदा हुआ तुम्हारा दास हूँ।

तुम्हारे सौन्दर्यने भी मुझे मोह लिया है।

अब तुम्हारे बिना मुझे एक क्षण भी युगके समान जान पड़ता है।

लज्जा छोड़ो।

तुम तो मेरी सनातन पत्नी हो।

गिरिराजनन्दिनि! महेश्वरि! मैंने जो कुछ कहा है, उसपर श्रेष्ठ बुद्धिसे विचार करो।

सुस्थिर चित्तवाली पार्वती! मैंने नाना प्रकारसे तुम्हारी बारंबार परीक्षा ली है।

लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले मुझ स्वजनके अपराधको क्षमा कर दो।

शिवे! तीनों लोकोंमें तुम्हारी-जैसी अनुरागिणी मुझे दूसरी कोई नहीं दिखायी देती।

मैं सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ।

तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।

प्रिये! मेरे पास आओ।

तुम मेरी पत्नी हो और मैं तुम्हारा वर हूँ।

तुम्हारे साथ मैं शीघ्र ही अपने निवासस्थान उत्तम पर्वत कैलासको चलूँगा।

ब्रह्माजी कहते हैं—देवाधिदेव महादेवजी-के ऐसा कहनेपर पार्वती देवी आनन्दमग्न हो उठीं।

उनका तपस्याजनित पहलेका सारा कष्ट मिट गया।

मुनिश्रेष्ठ! सती-साध्वी पार्वतीकी सारी थकावट दूर हो गयी; क्योंकि परिश्रम-फल प्राप्त हो जानेपर प्राणीका पहलेवाला सारा श्रम नष्ट हो जाता है।

(अध्याय २८) * न केवलं भवेत् पापं निन्दाकर्तुः शिवस्य हि।

यो वै शृणोति तन्निन्दां पापभाक् स भवेदिह।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० २८।३७)


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