शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 20


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


पार्वतीकी बात सुनकर जटाधारी ब्राह्मणका शिवकी निन्दा करते हुए पार्वतीको उनकी ओरसे मनको हटा लेनेका आदेश देना

पार्वती बोलीं—जटाधारी विप्रवर! मेरा सारा वृत्तान्त सुनिये।

मेरी सखीने जो कुछ कहा है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है; उसमें असत्य कुछ भी नहीं है।

मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा सत्य ही कहती हूँ, असत्य नहीं।

मैंने साक्षात् पतिभावसे भगवान् शंकरका ही वरण किया है।

यद्यपि जानती हूँ, वह दुर्लभ वस्तु भला मुझे कैसे प्राप्त हो सकती है; तथापि मनकी उत्कण्ठासे विवश हो मैं तपस्या कर रही हूँ।

ब्राह्मणसे ऐसी बात कहकर पार्वतीदेवी उस समय चुप हो रहीं।

तब उनकी वह बात सुनकर ब्राह्मणने कहा।

ब्राह्मण बोले—इस समयतक मेरे मनमें यह जाननेकी प्रबल इच्छा थी कि ये देवी किस दुर्लभ वस्तुको चाहती हैं? जिसके लिये ऐसा महान् तप कर रही हैं।

किंतु देवि! तुम्हारे मुखारविन्दसे सब कुछ सुनकर उस अभीष्ट वस्तुको जान लेनेके बाद अब मैं यहाँसे जा रहा हूँ।

तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो।

यदि तुम मुझसे न कहती तो मित्रता निष्फल होती।

अब जैसा तुम्हारा कार्य है, वैसा ही उसका परिणाम होगा।

जब तुम्हें इसीमें सुख है, तब मुझे कुछ नहीं कहना है।

वहाँ ऐसी बात कहकर ब्राह्मणने ज्यों ही जानेका विचार किया, त्यों ही पार्वती देवीने प्रणाम करके उनसे इस प्रकार कहा।

पार्वती बोलीं—विप्रवर! आप क्यों जायँगे? ठहरिये और मेरे हितकी बात बताइये।

पार्वतीके ऐसा कहनेपर दण्डधारी ब्राह्मणदेवता रुक गये और इस प्रकार बोले—‘देवि! यदि मेरी बात सुननेका मन है और मुझे भक्तिभावसे ठहरा रही हो तो मैं वह सब तत्त्व बता रहा हूँ, जिससे तुम्हें हिताहितका ज्ञान हो जायगा।

महादेवजीके प्रति मेरे मनमें गौरव-बुद्धि है, अतः मैं उनको सब प्रकारसे जानता हूँ; तो भी यथार्थ बात कहता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो।

वृषभके चिह्नसे अंकित ध्वजा धारण करनेवाले महादेवजी सारे शरीरमें भस्म रमाये रहते हैं, सिरपर जटा धारण करते हैं, धोतीकी जगह बाघका चाम पहनते और चादरकी जगह हाथीकी खाल ओढ़ते हैं।

हाथमें भीख माँगनेके लिये एक खोपड़ी लिये रहते हैं।

झुंड-के-झुंड साँप उनके सारे अंगोंमें लिपटे देखे जाते हैं।

वे विष खाकर ही पुष्ट होते हैं, अभक्ष्यभक्षी हैं, उनके नेत्र बड़े भद्दे हैं और देखनेमें डरावने लगते हैं।

उनका जन्म कब, कहाँ और किससे हुआ, यह आजतक प्रकट नहीं हुआ।

घर-गृहस्थीके भोगसे वे सदा दूर ही रहते हैं, नंग-धड़ंग घूमते हैं और भूत-प्रेतोंको सदा साथ रखते हैं।

उनके एक-दो नहीं, दस भुजाएँ हैं।

देवि! मैं समझ नहीं पाता कि किस कारणसे तुम उन्हें अपना पति बनाना चाहती हो।

तुम्हारा ज्ञान कहाँ चला गया, इस बातको आज सोच-विचारकर मुझे बताओ।

दक्षने अपने यज्ञमें अपनी ही पुत्री सतीको केवल यही सोचकर नहीं बुलाया कि वह कपालधारी भिक्षुककी भार्या है।

इतना ही नहीं, उन्होंने यज्ञमें भाग देनेके लिये सब देवताओंको बुलाया, किंतु शम्भुको छोड़ दिया।

सती उसी अपमानके कारण अत्यन्त क्रोधसे व्याकुल हो उठी।

उसने अपने प्यारे प्राणोंको तो छोड़ा ही; शंकरजीको भी त्याग दिया।

‘तुम तो स्त्रियोंमें रत्न हो, तुम्हारे पिता समस्त पर्वतोंके राजा हैं, फिर तुम क्यों इस उग्र तपस्याके द्वारा वैसे पतिको पानेकी अभिलाषा करती हो? सोनेकी मुद्रा (अशर्फी) देकर बदलेमें उतना ही बड़ा काँच लेना चाहती हो? उज्ज्वल चन्दन छोड़कर अपने अंगोंमें कीचड़-लपेटना चाहती हो? सूर्यके तेजका परित्याग करके जुगनूकी चमक पाना चाहती हो? महीन वस्त्र त्यागकर अपने शरीरको चमड़ेसे ढकनेकी इच्छा करती हो? घरमें रहना छोड़कर वनमें धूनी रमाना चाहती हो? तथा देवेश्वरि! यदि तुम इन्द्र आदि लोकपालोंको त्यागकर शिवके प्रति अनुरक्त हो तो अवश्य ही रत्नोंके उत्तम भंडारको त्यागकर लोहा पानेकी इच्छा करती हो।

लोकमें इस बातको अच्छा नहीं कहा गया है।

शिवके साथ तुम्हारा सम्बन्ध मुझे इस समय परस्परविरुद्ध दिखायी देता है।

कहाँ तुम, जिसके नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान शोभा पाते हैं और कहाँ वे रुद्र, जो तीन भद्दी आँखें धारण करते हैं।

तुम तो चन्द्रमुखी* हो और शिव पंचमुख कहे गये हैं।

तुम्हारे सिरपर दिव्य वेणी सर्पिणी-सी शोभा पा रही है; परंतु शिवके मस्तकपर जो जटाजूट बताया जाता है, वह प्रसिद्ध ही है।

तुम्हारे अंगमें चन्दनका अंगराग होगा और शिवके शरीरमें चिताका भस्म! कहाँ तुम्हारी सुन्दर मृदुल साड़ी और कहाँ शंकरजीके उपयोगमें आनेवाली हाथीकी खाल? कहाँ तुम्हारे अंगोंमें दिव्य आभूषण और कहाँ शंकरके सर्वांगमें लिपटे हुए सर्प? कहाँ तुम्हारी सेवाके लिये उद्यत रहनेवाले सम्पूर्ण देवता और कहाँ भूतोंकी दी हुई बलिको पसंद करनेवाले शिव? कहाँ तो मृदंगकी मधुर ध्वनि और कहाँ डमरूकी डिमडिम? कहाँ भेरियोंके समूहकी गड़गड़ाहट और कहाँ अशुभ शृंगीनाद? कहाँ ढक्काका शब्द और कहाँ अशुभ गलनाद? तुम्हारा यह उत्तम रूप शिवके योग्य कदापि नहीं है।

यदि उनके पास धन होता तो वे दिगम्बर (नंगे) क्यों रहते? सवारीके नामपर उनके पास एक बूढ़ा बैल है और दूसरी कोई भी सामग्री उनके पास नहीं है।

कन्याके लिये ढूँढ़े जानेवाले वरोंमें जो नारियोंको सुख देनेवाले गुण बताये गये हैं, उनमेंसे एक भी गुण भद्दी आँखवाले रुद्रमें नहीं है।

तुम्हारे परम प्रिय कामको भी उन हर देवताने दग्ध कर दिया और तुम्हारे प्रति उनका अनादर तो तभी देख लिया गया, जब वे तुम्हें छोड़कर अन्यत्र चले गये।

उनकी कोई जाति नहीं देखी जाती।

उनमें विद्या तथा ज्ञानका भी पता नहीं चलता।

पिशाच ही उनके सहायक हैं और विष तो उनके कण्ठमें ही दिखायी देता है।

वे सदा अकेले रहनेवाले और विशेषरूपसे विरक्त हैं।

इसलिये तुम्हें हरके साथ अपने मनको नहीं जोड़ना चाहिये।

कहाँ तुम्हारे कण्ठमें सुन्दर हार और कहाँ उनके गलेमें नरमुण्डोंकी माला? देवि! तुम्हारे और हरके रूप आदि सब एक-दूसरेके विरुद्ध हैं।

अतः मुझे तो यह सम्बन्ध नहीं रुचता।

फिर तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो।

संसारमें जो कुछ भी असद्वस्तु है, वह सब तुम स्वयं चाहने लगी हो।

अतः मैं कहता हूँ कि तुम उस असत् की ओरसे अपने मनको हटा लो।

अन्यथा जो चाहो, वह करो; मुझे कुछ नहीं कहना है।’ ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! यह बात सुनकर पार्वती शिवकी निन्दा करनेवाले ब्राह्मणपर मन-ही-मन कुपित हो उठीं और उससे इस प्रकार बोलीं।

(अध्याय २७) * अंकोंकी संज्ञाओंमें चन्द्रमाको एक संख्याका बोधक माना गया है।

एक मुखवाले पुरुष और स्त्रियाँ ही सुन्दर माने जाते हैं, एकसे अधिक मुखवाले नहीं।

इस प्रकार एकमुख और पंचमुखकी भी तुलना की गयी है।

‘चन्द्रमुखी’ पदका दूसरा भाव है—तुम्हारा मुख चन्द्रमाके समान मनोहर है और वे पंचानन सिंहके समान भयंकर हैं।


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