शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 19


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


भगवान् शंकरका जटिल तपस्वी ब्राह्मणके रूपमें पार्वतीके आश्रमपर जाना, उनसे सत्कृत हो उनकी तपस्याका कारण पूछना तथा पार्वतीजीका अपनी सखी विजयासे सब कुछ कहलाना

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! उन सप्तर्षियोंके अपने लोकमें चले जानेपर सुन्दर लीला करनेवाले साक्षात् भगवान् शंकरने देवीके तपकी परीक्षा लेनेका विचार किया।

वे मन-ही-मन पार्वतीसे बहुत संतुष्ट थे।

परीक्षाके ही बहाने पार्वतीजीको देखनेके लिये जटाधारी तपस्वीका रूप धारण करके भगवान् शम्भु उनके वनमें गये।

अपने तेजसे प्रकाशमान अत्यन्त बूढ़े ब्राह्मणका रूप धारण करके प्रसन्नचित्त हो वे दण्ड और छत्र लिये वहाँसे प्रस्थित हुए।

आश्रममें पहुँचकर उन्होंने देखा देवी शिवा सखियोंसे घिरी हुई वेदीपर बैठी हैं और चन्द्रमाकी विशुद्ध कला-सी प्रतीत होती हैं।

ब्रह्मचारीका स्वरूप धारण किये भक्तवत्सल शम्भु पार्वतीदेवीको देखकर प्रीतिपूर्वक उनके पास गये।

उन अद्भुत तेजस्वी ब्राह्मणदेवताको आया देख उस समय देवी शिवाने समस्त पूजन-सामग्रियों-द्वारा उनकी पूजा की।

जब उनका भलीभाँति सत्कार हो गया, सामग्रियोंद्वारा उनकी पूजा सम्पन्न कर ली गयी, तब पार्वतीने बड़ी प्रसन्नता और प्रेमके साथ उन ब्राह्मणदेवसे आदरपूर्वक कुशल-समाचार पूछा।

पार्वती बोलीं—ब्रह्मचारीका स्वरूप धारण करके आये हुए आप कौन हैं और कहाँसे पधारे हैं? वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ विप्रवर! आप अपने तेजसे इस वनको प्रकाशित कर रहे हैं।

मैंने जो कुछ पूछा है, उसे बतलाइये।

ब्राहाणने कहा—मैं इच्छानुसार विचरनेवाला वृद्ध ब्राह्मण हूँ।

पवित्रबुद्धि, तपस्वी, दूसरोंको सुख देनेवाला और परोपकारी हूँ—इसमें संशय नहीं है।

तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो और इस निर्जन वनमें किसलिये ऐसी तपस्या कर रही हो, जो पंजेके बलपर खड़े हो तप करनेवाले मुनियोंके लिये भी दुर्लभ है।

तुम न बालिका हो, न वृद्धा ही हो, सुन्दरी तरुणी जान पड़ती हो।

फिर किसलिये पतिके बिना इस वनमें आकर कठोर तपस्या करती हो? भद्रे! क्या तुम किसी तपस्वीकी सहचारिणी तपस्विनी हो? देवि! क्या वह तपस्वी तुम्हारा पालन-पोषण नहीं करता, जो तुम्हें छोड़कर अन्यत्र चला गया है? बोलो, तुम किसके कुलमें उत्पन्न हुई हो? तुम्हारे पिता कौन हैं और तुम्हारा नाम क्या है? तुम महासौभाग्यरूपा जान पड़ती हो।

तुम्हारा तपस्यामें अनुराग व्यर्थ है।

क्या तुम वेदमाता गायत्री हो, लक्ष्मी हो अथवा क्या सुन्दर रूपवाली सरस्वती हो? इन तीनोंमें तुम कौन हो—यह मैं अनुमानसे निश्चय नहीं कर पाता।

पार्वती बोलीं—विप्रवर! न तो मैं वेदमाता गायत्री हूँ, न लक्ष्मी हूँ और न सरस्वती ही हूँ।

इस समय मैं हिमाचलकी पुत्री हूँ और मेरा नाम पार्वती है।

पूर्वकालमें इससे पहलेके जन्ममें मैं प्रजापति दक्षकी पुत्री थी।

उस समय मेरा नाम सती था।

एक दिन पिताने मेरे पतिकी निन्दा की थी, जिससे कुपित हो मैंने योगके द्वारा शरीरको त्याग दिया था।

इस जन्ममें भी भगवान् शिव मुझे मिल गये थे, परंतु भाग्यवश कामको भस्म करके वे मुझे भी छोड़कर चले गये।

ब्रह्मन्! शंकरजीके चले जानेपर मैं विरहतापसे उद्विग्न हो उठी और तपस्याके लिये दृढ़ निश्चय करके पिताके घरसे यहाँ गंगाजीके तटपर चली आयी।

यहाँ दीर्घ-कालतक कठोर तपस्या करके भी मैं अपने प्राणवल्लभको न पा सकी।

इसलिये अग्निमें प्रवेश कर जाना चाहती थी।

इतनेमें ही आपको आया देख मैं क्षणभरके लिये ठहर गयी।

अब आप जाइये।

मैं अग्निमें प्रवेश करूँगी; क्योंकि भगवान् शिवने मुझे स्वीकार नहीं किया।

किंतु जहाँ-जहाँ मैं जन्म लूँगी, वहाँ-वहाँ शिवका ही पतिरूपमें वरण करूँगी।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर पार्वती उन ब्राह्मण-देवताके सामने ही अग्निमें समा गयीं, यद्यपि ब्राह्मणदेव सामनेसे उन्हें बारंबार ऐसा करनेसे रोक रहे थे।

अग्निमें प्रवेश करती हुई पर्वतराजकुमारी पार्वतीकी तपस्याके प्रभावसे वह आग उसी क्षण चन्दनपंकके समान शीतल हो गयी।

क्षणभर उस आगके भीतर रहकर जब पार्वती आकाशमें ऊपरकी ओर उठने लगीं, तब ब्राह्मण-रूपधारी शिवने सहसा हँसते हुए उनसे पुनः पूछा—‘अहो भद्रे! तुम्हारा तप क्या है, यह कुछ भी मेरी समझमें नहीं आया।

इधर अग्निसे तुम्हारा शरीर नहीं जला, यह तो तपस्याकी सफलताका सूचक है; परंतु अबतक तुम्हें अपना मनोरथ प्राप्त नहीं हुआ, इससे उसकी विफलता प्रकट होती है।

अतः देवि! सबको आनन्द देनेवाले मुझ श्रेष्ठ ब्राह्मणके सामने तुम अपने अभीष्ट मनोरथको सच-सच बताओ।’ ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ब्राह्मणके इस प्रकार पूछनेपर उत्तम व्रतका पालन करनेवाली अम्बिकाने अपनी सखीको उत्तर देनेके लिये प्रेरित किया।

पार्वतीसे प्रेरित हो उनकी विजया नामक प्राणप्यारी सखीने, जो उत्तम व्रतको जाननेवाली थी, जटाधारी तपस्वीसे कहा।

सखी बोली—साधो! तुमसे पार्वतीके उत्तम चरित्रका और इनकी तपस्याके समस्त कारणोंका वर्णन करती हूँ।

आप सुनना चाहते हों तो सुनिये।

मेरी सखी गिरिराज हिमाचलकी पुत्री हैं।

ये पार्वती और काली नामसे विख्यात हैं तथा माता मेनकाकी कन्या हैं।

अबतक किसीने इनके साथ विवाह नहीं किया है।

ये भगवान् शिवके सिवा दूसरे किसीको चाहती भी नहीं।

उन्हींके लिये तीन हजार वर्षोंसे तपस्या कर रही हैं।

भगवान् शिवकी प्राप्तिके लिये ही मेरी इन सखीने ऐसा तप प्रारम्भ किया है।

विप्रवर! इसमें जो कारण है, उसे बताती हूँ; सुनिये।

ये पर्वतराजकुमारी ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवताओंको भी छोड़कर केवल पिनाकपाणि भगवान् शंकरको ही पतिरूपमें प्राप्त करना चाहती हैं और नारदजीके आदेशसे यह कठोर तपस्या कर रही हैं।

द्विजश्रेष्ठ! आपने जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार मैंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी सखीका मनोरथ बता दिया।

अब आप और क्या सुनना चाहते हैं? ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! विजयाका यह यथार्थ वचन सुनकर जटाधारी तपस्वी रुद्र हँसते हुए बोले—‘सखीने यह जो कुछ कहा है, उसमें मुझे परिहासका अनुमान होता है।

यदि यह सब ठीक हो तो पार्वतीदेवी अपने मुँहसे कहें।’ जटिल ब्राह्मणके इस प्रकार कहनेपर पार्वतीदेवी अपने मुँहसे ही यों कहने लगीं।

(अध्याय २६)


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