शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 15

शिव पुराण – रुद्र संहिता – पार्वती खण्ड – 15


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श्रीशिवकी आराधनाके लिये पार्वतीजीकी दुष्कर तपस्या

ब्रह्माजी कहते हैं—देवर्षे! तुम्हारे चले जानेपर प्रफुल्लचित्त हुई पार्वतीने महादेवजी-को तपस्यासे ही साध्य माना और तपस्याके लिये ही मनमें निश्चय किया।

तब उन्होंने अपनी सखी जया और विजयाके द्वारा पिता हिमाचल और माता मेनासे आज्ञा माँगी।

पिताने तो स्वीकार कर लिया; परंतु माता मेनाने स्नेहवश अनेक प्रकारसे समझाया और घरसे दूर वनमें जाकर तप करनेसे पुत्रीको रोका।

मेनाने तपस्याके लिये वनमें जानेसे रोकते हुए ‘उ’, ‘मा’ (बाहर न जाओ) ऐसा कहा; इसलिये उस समय शिवाका नाम उमा हो गया।

मुने! शैलराजकी प्यारी पत्नी मेनाने रोकनेसे शिवाको दुःखी हुई जान अपना विचार बदल दिया और पार्वतीको तपस्याके लिये जानेकी आज्ञा दे दी।

मुनिश्रेष्ठ! माताकी वह आज्ञा पाकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाली पार्वतीने भगवान् शंकरका स्मरण करके अपने मनमें बड़े सुखका अनुभव किया।

माता-पिताको प्रसन्नता पूर्वक प्रणाम करके शिवके स्मरणपूर्वक दोनों सखियोंके साथ वे तपस्या करनेके लिये चली गयीं।

अनेक प्रकारके प्रिय वस्त्रोंका परित्याग करके पार्वतीने कटि प्रदेशमें सुन्दर मूँजकी मेखला बाँध शीघ्र ही वल्कल धारण कर लिये।

हारका परिहार करके उत्तम मृगचर्मको हृदयसे लगाया।

तत्पश्चात् वे तपस्याके लिये गंगावतरण (गंगोत्तरी) तीर्थकी ओर चलीं।

जहाँ ध्यान लगाते हुए भगवान् शंकरने कामदेवको दग्ध किया था, हिमालयका वह शिखर गंगावतरणके नामसे प्रसिद्ध है।

वहीं परम उत्तम शृंगितीर्थमें पार्वतीने तपस्या प्रारम्भ की।

गौरीके तप करनेसे ही उसका ‘गौरी-शिखर’ नाम हो गया।

मुने! शिवाने अपने तपकी परीक्षाके लिये वहाँ बहुत-से सुन्दर एवं पवित्र वृक्ष लगाये, जो फल देनेवाले थे।

सुन्दरी पार्वतीने पहले भूमि-शुद्ध करके वहाँ एक वेदीका निर्माण किया।

तदनन्तर ऐसी तपस्या आरम्भ की, जो मुनियोंके लिये भी दुष्कर थी।

वे मनसहित सम्पूर्ण इन्द्रियोंको शीघ्र ही काबूमें करके उस वेदीपर उच्चकोटिकी तपस्या करने लगीं।

ग्रीष्म-ऋतुमें अपने चारों ओर दिन-रात आग जलाये रखकर वे बीचमें बैठतीं और निरन्तर पंचाक्षर-मन्त्रका जप करती रहती थीं।

वर्षा-ऋतुमें वेदीपर सुस्थिर आसनसे बैठकर अथवा किसी पत्थरकी चट्टानपर ही आसन लगाकर वे निरन्तर वर्षाकी जलधारासे भीगती रहती थीं।

शीतकालमें निराहार रहकर भगवान् शंकरके भजनमें तत्पर हो वे सदा शीतल जलके भीतर खड़ी रहतीं तथा रातभर बरफकी चट्टानोंपर बैठा करती थीं।

इस प्रकार तप करती हुई पंचाक्षर-मन्त्रके जपमें संलग्न हो शिवा सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंके दाता शिवका ध्यान करती थीं।

प्रतिदिन अवकाश मिलनेपर वे सखियोंके साथ अपने लगाये हुए वृक्षोंको प्रसन्नतापूर्वक सींचतीं और वहाँ पधारे हुए अतिथिका आतिथ्य-सत्कार भी करती थीं।

शुद्ध चित्तवाली पार्वतीने प्रचण्ड आँधी, कड़ाकेकी सर्दी, अनेक प्रकारकी वर्षा तथा दुस्सह धूपका भी सेवन किया।

उनके ऊपर वहाँ नाना प्रकारके दुःख आये, परंतु उन्होंने उन सबको कुछ नहीं गिना।

मुने! वे केवल शिवमें मन लगाकर वहाँ सुस्थिरभावसे खड़ी या बैठी रहती थीं।

उनका पहला वर्ष फलाहारमें बीता और दूसरा वर्ष उन्होंने केवल पत्ते चबाकर बिताया! इस तरह तपस्या करती हुई देवी पार्वतीने क्रमशः असंख्य वर्ष व्यतीत कर दिये।

तदनन्तर हिमवान् की पुत्री शिवादेवी पत्ते खाना भी छोड़कर सर्वथा निराहार रहने लगीं, तो भी तपश्चर्यामें उनका अनुराग बढ़ता ही गया।

हिमाचलपुत्री शिवाने भोजनके लिये पर्णका भी परित्याग कर दिया।

इसलिये देवताओंने उनका नाम ‘अपर्णा’ रख दिया।

इसके बाद पार्वती भगवान् शिवके स्मरणपूर्वक एक पैरसे खड़ी हो पंचाक्षर-मन्त्रका जप करती हुई बड़ी भारी तपस्या करने लगीं।

उनके अंग चीर और वल्कलसे ढके थे।

वे मस्तकपर जटाओंका समूह धारण किये रहती थीं।

इस प्रकार शिवके चिन्तनमें लगी हुई पार्वतीने अपनी तपस्याके द्वारा मुनियोंको जीत लिया।

उस तपोवनमें महेश्वरके चिन्तनपूर्वक तपस्या करती हुई कालीके तीन हजार वर्ष बीत गये।

तदनन्तर जहाँ महादेवजीने साठ हजार वर्षोंतक तप किया था, उस स्थानपर क्षणभर ठहरकर शिवादेवी इस प्रकार चिन्ता करने लगीं—‘क्या महादेवजी इस समय यह नहीं जानते कि मैं उनके लिये नियमोंके पालनमें तत्पर हो तपस्या कर रही हूँ? फिर क्या कारण है कि सुदीर्घकालसे तपस्यामें लगी हुई मुझ सेविकाके पास वे नहीं आये? लोकमें, वेदमें और मुनियोंद्वारा सदा गिरीशकी महिमाका गान किया जाता है।

सब यही कहते हैं कि भगवान् शंकर सर्वज्ञ, सर्वात्मा, सर्वदर्शी, समस्त ऐश्वर्योंके दाता, दिव्य शक्तिसम्पन्न, सबके मनोभावोंको समझ लेनेवाले, भक्तोंको उनकी अभीष्ट वस्तु देनेवाले और सदा समस्त क्लेशोंका निवारण करनेवाले हैं।

यदि मैं समस्त कामनाओंका परित्याग करके भगवान् वृषभध्वजमें अनुरक्त हुई हूँ तो वे कल्याणकारी भगवान् शिव यहाँ मुझपर प्रसन्न हों।

यदि मैंने नारदतन्त्रोक्त शिवपंचाक्षर-मन्त्रका सदा उत्तम भक्तिभावसे विधिपूर्वक जप किया हो तो भगवान् शंकर मुझपर प्रसन्न हों।

यदि मैं सर्वेश्वर शिवकी भक्तिसे युक्त एवं निर्विकार होऊँ तो भगवान् शंकर मुझपर अत्यन्त प्रसन्न हों।’ इस तरह नित्य चिन्तन करती हुई जटा-वल्कलधारिणी निर्विकारा पार्वती मुँह नीचे किये सुदीर्घकालतक तपस्यामें लगी रहीं।

उन्होंने ऐसी तपस्या की, जो मुनियोंके लिये भी दुष्कर थी।

वहाँ उस तपस्याका स्मरण करके पुरुषोंको बड़ा विस्मय हुआ।

महर्षे! पार्वतीकी तपस्याका जो दूसरा प्रभाव पड़ा था, उसे भी इस समय सुनो।

जगदम्बा पार्वतीका वह महान् तप परम आश्चर्यजनक था।

जो स्वभावतः एक-दूसरेके विरोधी थे, ऐसे प्राणी भी उस आश्रमके पास जाकर उनकी तपस्याके प्रभावसे विरोधरहित हो जाते थे।

सिंह और गौ आदि सदा रागादि दोषोंसे संयुक्त रहनेवाले पशु भी पार्वतीके तपकी महिमासे वहाँ परस्पर बाधा नहीं पहुँचाते थे।

मुनिश्रेष्ठ! इनके अतिरिक्त जो स्वभावतः एक-दूसरेके वैरी हैं, वे चूहे-बिल्ली आदि दूसरे-दूसरे जीव भी उस आश्रमपर कभी रोष आदि विकारोंसे युक्त नहीं होते थे।

वहाँके सभी वृक्षोंमें सदा फल लगे रहते थे।

भाँति-भाँतिके तृण और विचित्र पुष्प उस वनकी शोभा बढ़ाते थे।

वहाँका सारा वनप्रान्त कैलासके समान हो गया।

पार्वतीके तपकी सिद्धिका साकार रूप बन गया।

(अध्याय २२)


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