शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 14


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


ब्रह्माजीका शिवकी क्रोधाग्निको वडवानलकी संज्ञा दे समुद्रमें स्थापित करके संसारके भयको दूर करना, शिवके विरहसे पार्वतीका शोक तथा नारदजीके द्वारा उन्हें तपस्याके लिये उपदेशपूर्वक पंचाक्षर-मन्त्रकी प्राप्ति

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! जब भगवान् रुद्रके तीसरे नेत्रसे प्रकट हुर्इ अग्निने कामदेव-को शीघ्र जलाकर भस्म कर दिया, तब वह बिना किसी प्रयोजनके ही प्रज्वलित हो सब ओर फैलने लगी।

इससे चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंमें महान् हाहाकार मच गया।

तात! सम्पूर्ण देवता और ऋषि तुरंत मेरी शरणमें आये।

उन सबने अत्यन्त व्याकुल होकर मस्तक झुका दोनों हाथ जोड़ मुझे प्रणाम किया और मेरी स्तुति करके वह दुःख निवेदन किया।

वह सुनकर मैं भगवान् शिवका स्मरण करके उसके हेतुका भलीभाँति विचारकर तीनों लोकोंकी रक्षाके लिये विनीतभावसे वहाँ पहुँचा! वह अग्नि ज्वालामालाओंसे अत्यन्त उद्दीप्त हो जगत् को जला देनेके लिये उद्यत थी।

परंतु भगवान् शिवकी कृपासे प्राप्त हुए उत्तम तेजके द्वारा मैंने उसे तत्काल स्तम्भित कर दिया।

मुने! त्रिलोकीको दग्ध करनेकी इच्छा रखनेवाली उस क्रोधमय अग्निको मैंने एक ऐसे घोड़ेके रूपमें परिणत कर दिया, जिसके मुखसे सौम्य ज्वाला प्रकट हो रही थी।

भगवान् शिवकी इच्छासे उस वाडव शरीर (घोड़े)-वाली अग्निको लेकर मैं लोकहितके लिये समुद्रतटपर गया।

मुने! मुझे आया देख समुद्र एक दिव्य पुरुषका रूप धारण करके हाथ जोड़े हुए मेरे पास आया।

मुझ सम्पूर्ण लोकोंके पितामहकी भलीभाँति विधिवत् स्तुति-वन्दना करके सिन्धुने मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहा।

सागर बोला—सर्वेश्वर ब्रह्मन्! आप यहाँ किसलिये पधारे हैं? मुझे अपना सेवक समझ इस बातको प्रीतिपूर्वक कहिये।

सागरकी बात सुनकर भगवान् शंकरका स्मरण करके लोकहितका ध्यान रखते हुए मैंने उससे प्रसन्नतापूर्वक कहा—‘तात समुद्र! तुम बड़े बुद्धिमान् और सम्पूर्ण लोकोंके हितकारी हो।

मैं शिवकी इच्छासे प्रेरित हो हार्दिक प्रीतिपूर्वक तुमसे कह रहा हूँ।

यह भगवान् महेश्वरका क्रोध है, जो महान् शक्तिशाली अश्वके रूपमें यहाँ उपस्थित है।

यह कामदेवको दग्ध करके तुरंत ही सम्पूर्ण जगत् को भस्म करनेके लिये उद्यत हो गया था।

यह देख पीड़ित हुए देवताओंकी प्रार्थनासे मैं शंकरेच्छावश वहाँ गया और इस अग्निको स्तम्भित किया।

फिर इसने घोड़ेका रूप धारण किया और इसे लेकर मैं यहाँ आया।

जलाधार! मैं जगत् पर दया करके तुम्हें यह आदेश दे रहा हूँ—इस महेश्वरके क्रोधको, जो वाडवका रूप धारण करके मुखसे ज्वाला प्रकट करता हुआ खड़ा है, तुम प्रलयकालपर्यन्त धारण किये रहो।

सरित्पते! जब मैं यहाँ आकर वास करूँगा, तब तुम भगवान् शंकरके इस अद्भुत क्रोधको छोड़ देना।

तुम्हारा जल ही प्रतिदिन इसका भोजन होगा।

तुम यत्नपूर्वक इसे ऊपर ही धारण किये रहना, जिससे यह तुम्हारी अनन्त जलराशिके भीतर न चला जाय।’ ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! मेरे ऐसा कहनेपर समुद्रने रुद्रकी क्रोधाग्निरूप वडवानलको धारण करना स्वीकार कर लिया, जो दूसरेके लिये असम्भव था।

तदनन्तर वह वडवाग्नि समुद्रमें प्रविष्ट हुई और ज्वालामालाओंसे प्रदीप्त हो सागरकी जलराशिका दहन करने लगी।

मुने! इससे संतुष्टचित्त होकर मैं अपने लोकको चला आया और वह दिव्यरूपधारी समुद्र मुझे प्रणाम करके अदृश्य हो गया।

महामुने! रुद्रकी उस क्रोधाग्निके भयसे छूटकर सम्पूर्ण जगत् स्वस्थताका अनुभव करने लगा और देवता तथा मुनि सुखी हो गये।

नारदजी बोले—दयानिधे! मदन-दहनके पश्चात् गिरिराजनन्दिनी पार्वती देवीने क्या किया? वे अपनी दोनों सखियोंके साथ कहाँ गयीं? यह सब मुझे बताइये।

ब्रह्माजीने कहा—भगवान् शंकरके नेत्रसे उत्पन्न हुई आगने जब कामदेवको दग्ध किया, तब वहाँ महान् अद्भुत शब्द प्रकट हुआ, जिससे सारा आकाश गूँज उठा।

उस महान् शब्दके साथ ही कामदेवको दग्ध हुआ देख भयभीत और व्याकुल हुई पार्वती दोनों सखियोंके साथ अपने घर चली गयीं।

उस शब्दसे परिवारसहित हिमवान् भी बड़े विस्मयमें पड़ गये और वहाँ गयी हुई अपनी पुत्रीका स्मरण करके उन्हें बड़ा क्लेश हुआ।

इतनेमें ही पार्वती दूरसे आती हुई दिखायी दीं।

वे शम्भुके विरहसे रो रही थीं।

अपनी पुत्रीको अत्यन्त विह्वल हुई देख शैलराज हिमवान् को बड़ा शोक हुआ और वे शीघ्र ही उसके पास जा पहुँचे।

वे फिर हाथसे उसकी दोनों आँखें पोंछकर बोले—‘शिवे! डरो मत, रोओ मत।’ ऐसा कहकर अचलेश्वर हिमवान् ने अत्यन्त विह्वल हुई पार्वतीको शीघ्र ही गोदमें उठा लिया और उसे सान्त्वना देते हुए वे अपने घर ले आये।

कामदेवका दाह करके महादेवजी अदृश्य हो गये थे।

अतः उनके विरहसे पार्वती अत्यन्त व्याकुल हो उठी थीं।

उन्हें कहीं भी सुख या शान्ति नहीं मिलती थी।

पिताके घर जाकर जब वे अपनी मातासे मिलीं, उस समय पार्वती शिवाने अपना नया जन्म हुआ माना।

वे अपने रूपकी निन्दा करने लगीं और बोलीं—‘हाय! मैं मारी गयी।’ सखियोंके समझानेपर भी वे गिरिराजकुमारी कुछ समझ नहीं पाती थीं।

वे सोते-जागते, खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-फिरते और सखियोंके बीचमें खड़े होते समय भी कभी किंचिन्मात्र भी सुखका अनुभव नहीं करती थीं।

‘मेरे स्वरूपको तथा जन्म-कर्मको भी धिक्कार है’ ऐसा कहती हुई वे सदा महादेवजीकी प्रत्येक चेष्टाका चिन्तन करती थीं।

इस प्रकार पार्वती भगवान् शिवके विरहसे मन-ही-मन अत्यन्त क्लेशका अनुभव करती और किंचिन्मात्र भी सुख नहीं पाती थीं।

वे सदा ‘शिव, शिव’ का जप किया करती थीं।

शरीरसे पिताके घरमें रहकर भी वे चित्तसे पिनाकपाणि भगवान् शंकरके पास पहुँची रहती थीं।

तात! शिवा शोकमग्न हो बारंबार मूर्च्छित हो जाती थीं।

शैलराज हिमवान् उनकी पत्नी मेनका तथा उनके मैनाक आदि सभी पुत्र, जो बड़े उदारचेता थे, उन्हें सदा सान्त्वना देते रहते थे।

तथापि वे भगवान् शंकरको भूल न सकीं।

बुद्धिमान् देवर्षे! तदनन्तर एक दिन इन्द्रकी प्रेरणासे इच्छानुसार घूमते हुए तुम हिमालय पर्वतपर आये।

उस समय महात्मा हिमवान् ने तुम्हारा स्वागत-सत्कार किया और कुशल-मंगल पूछा।

फिर तुम उनके दिये हुए उत्तम आसनपर बैठे।

तदनन्तर शैलराजने अपनी कन्याके चरित्रका आरम्भसे ही वर्णन किया।

किस तरह उसने महादेवजीकी सेवा आरम्भ की और किस तरह उनके द्वारा कामदेवका दहन हुआ—यह सब कुछ बताया।

मुने! यह सब सुनकर तुमने गिरिराजसे कहा—‘शैलेश्वर! भगवान् शिवका भजन करो।’ फिर उनसे विदा लेकर तुम उठे और मन-ही-मन शिवका स्मरण करके शैलराजको छोड़ शीघ्र ही एकान्तमें कालीके पास आ गये।

मुने! तुम लोकोपकारी, ज्ञानी तथा शिवके प्रिय भक्त हो; समस्त ज्ञानवानोंके शिरोमणि हो, अतः कालीके पास आ उसे सम्बोधित करके उसीके हितमें स्थित हो उससे सादर यह सत्य वचन बोले।

नारदजीने (तुमने) कहा—कालिके! तुम मेरी बात सुनो।

मैं दयावश सच्ची बात कह रहा हूँ।

मेरा वचन तुम्हारे लिये सर्वथा हितकर, निर्दोष तथा उत्तम काम्य वस्तुओंको देनेवाला होगा।

तुमने यहाँ महादेवजीकी सेवा अवश्य की थी, परंतु वह बिना तपस्याके गर्वयुक्त होकर की थी।

दीनोंपर अनुग्रह करनेवाले शिवने तुम्हारे उसी गर्वको नष्ट किया है।

शिवे! तुम्हारे स्वामी महेश्वर विरक्त और महायोगी हैं।

उन्होंने केवल कामदेवको जलाकर जो तुम्हें सकुशल छोड़ दिया है, उसमें यही कारण है कि वे भगवान् भक्तवत्सल हैं।

अतः तुम उत्तम तपस्यामें संलग्न हो चिरकालतक महेश्वरकी आराधना करो।

तपस्यासे तुम्हारा संस्कार हो जानेपर रुद्रदेव तुम्हें अपनी सहधर्मिणी बनायेंगे और तुम भी कभी उन कल्याणकारी शम्भुका परित्याग नहीं करोगी।

देवि! तुम हठपूर्वक शिवको अपनानेका यत्न करो।

शिवके सिवा दूसरे किसीको अपना पति स्वीकार न करना।

ब्रह्माजी कहते हैं—मुने! तुम्हारी यह बात सुनकर गिरिराजकुमारी काली कुछ उल्लसित हो तुमसे हाथ जोड़ प्रसन्नता-पूर्वक बोलीं।

शिवाने कहा—प्रभो! आप सर्वज्ञ तथा जगत् का उपकार करनेवाले हैं।

मुने! मुझे रुद्रदेवकी आराधनाके लिये कोई मन्त्र दीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! पार्वतीका यह वचन सुनकर तुमने पंचाक्षर शिवमन्त्र (नमः शिवाय) का उन्हें विधिपूर्वक उपदेश किया।

साथ ही उस मन्त्रराजमें श्रद्धा उत्पन्न करनेके लिये तुमने उसका सबसे अधिक प्रभाव बताया।

नारद (तुम) बोले—देवि! इस मन्त्रका परम अद्भुत प्रभाव सुनो।

इसके श्रवणमात्रसे भगवान् शंकर प्रसन्न हो जाते हैं।

यह मन्त्र सब मन्त्रोंका राजा और मनोवांछित फलको देनेवाला है।

भगवान् शंकरको बहुत ही प्रिय है तथा साधकको भोग और मोक्ष देनेमें समर्थ है।

सौभाग्यशालिनि! इस मन्त्रका विधिपूर्वक जप करनेसे तुम्हारे द्वारा आराधित हुए भगवान् शिव अवश्य और शीघ्र तुम्हारी आँखोंके सामने प्रकट हो जायँगे।

शिवे! शौच-संतोषादि नियमोंमें तत्पर रहकर भगवान् शिवके स्वरूपका चिन्तन करती हुई तुम पंचाक्षर-मन्त्रका जप करो।

इससे आराध्यदेव शिव शीघ्र ही संतुष्ट होंगे।

साध्वी! इस तरह तपस्या करो।

तपस्यासे महेश्वर वशमें हो सकते हैं।

तपस्यासे ही सबको मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! तुम भगवान् शिवके प्रिय भक्त और इच्छानुसार विचरनेवाले हो।

तुमने कालीसे उपर्युक्त बात कहकर देवताओंके हितमें तत्पर हो स्वर्गलोकको प्रस्थान किया।

तुम्हारी बात सुनकर उस समय पार्वती बहुत प्रसन्न हुईं।

उन्हें परम उत्तम पंचाक्षर-मन्त्र प्राप्त हो गया था।

(अध्याय २०-२१)


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