<< शिव पुराण – कोटिरुद्र संहिता – 8
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विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग और उनकी महिमाके प्रसंगमें पंचक्रोशीकी महत्ताका प्रतिपादन
सूतजी कहते हैं – मुनिवरो! अब मैं काशीके विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंगका माहात्म्य बताऊँगा, जो महापातकोंका भी नाश करनेवाला है।
तुमलोग सुनो, इस भूतलपर जो कोई भी वस्तु दृष्टिगोचर होती है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्विकार एवं सनातन ब्रह्मरूप है।
अपने कैवल्य (अद्वैत)-भावमें ही रमनेवाले उन अद्वितीय परमात्मामें कभी एकसे दो हो जानेकी इच्छा जाग्रत् हुई।* फिर वे ही परमात्मा सगुणरूपमें प्रकट हो शिव कहलाये।
वे शिव ही पुरुष और स्त्री दो रूपोंमें प्रकट हो गये।
उनमें जो पुरुष था, उसका ‘शिव’ नाम हुआ और जो स्त्री हुई, उसे ‘शक्ति’ कहते हैं।
उन चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्तिने स्वयं अदृष्ट रहकर स्वभावसे ही दो चेतनों (प्रकृति और पुरुष)-की सृष्टि की।
मुनिवरो! उन दोनों माता-पिताओंको उस समय सामने न देखकर वे दोनों प्रकृति और पुरुष महान् संशयमें पड़ गये।
उस समय निर्गुण परमात्मासे आकाशवाणी प्रकट हुई – ‘तुम दोनोंको तपस्या करनी चाहिये।
फिर तुमसे परम उत्तम सृष्टिका विस्तार होगा।’ वे प्रकृति और पुरुष बोले – ‘प्रभो! शिव! तपस्याके लिये तो कोई स्थान है ही नहीं।
फिर हम दोनों इस समय कहाँ स्थित होकर आपकी आज्ञाके अनुसार तप करें।’ तब निर्गुण शिवने तेजके सारभूत पाँच कोस लंबे-चौड़े शुभ एवं सुन्दर नगरका निर्माण किया, जो उनका अपना ही स्वरूप था।
वह सभी आवश्यक उपकरणोंसे युक्त था।
उस नगरका निर्माण करके उन्होंने उसे उन दोनोंके लिये भेजा।
वह नगर आकाशमें पुरुषके समीप आकर स्थित हो गया।
तब पुरुष – श्रीहरिने उस नगरमें स्थित हो सृष्टिकी कामनासे शिवका ध्यान करते हुए बहुत वर्षोंतक तप किया।
उस समय परिश्रमके कारण उनके शरीरसे श्वेत जलकी अनेक धाराएँ प्रकट हुईं, जिनसे सारा शून्य आकाश व्याप्त हो गया।
वहाँ दूसरा कुछ भी दिखायी नहीं देता था।
उसे देखकर भगवान् विष्णु मन-ही-मन बोल उठे – यह कैसी अद्भुत वस्तु दिखायी देती है? उस समय इस आश्चर्यको देखकर उन्होंने अपना सिर हिलाया, जिससे उन प्रभुके सामने ही उनके एक कानसे मणि गिर पड़ी।
जहाँ वह मणि गिरी, वह स्थान मणिकर्णिका नामक महान् तीर्थ हो गया।
जब पूर्वोक्त जलराशिमें वह सारी पंचक्रोशी डूबने और बहने लगी, तब निर्गुण शिवने शीघ्र ही उसे अपने त्रिशूलके द्वारा धारण कर लिया।
फिर विष्णु अपनी पत्नी प्रकृतिके साथ वहीं सोये।
तब उनकी नाभिसे एक कमल प्रकट हुआ और उस कमलसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए।
उनकी उत्पत्तिमें भी शंकरका आदेश ही कारण था।
तदनन्तर उन्होंने शिवकी आज्ञा पाकर अद्भुत सृष्टि आरम्भ की।
ब्रह्माजीने ब्रह्माण्डमें चौदह भुवन बनाये।
ब्रह्माण्डका विस्तार महर्षियोंने पचास करोड़ योजनका बताया है।
फिर भगवान् शिवने यह सोचा कि ‘ब्रह्माण्डके भीतर कर्मपाशसे बँधे हुए प्राणी मुझे कैसे प्राप्त कर सकेंगे?’ यह सोचकर उन्होंने मुक्तिदायिनी पंचक्रोशीको इस जगत् में छोड़ दिया।
“यह पंचक्रोशी काशी लोकमें कल्याणदायिनी, कर्मबन्धनका नाश करनेवाली, ज्ञानदात्री तथा मोक्षको प्रकाशित करनेवाली मानी गयी है।
अतएव मुझे परम प्रिय है।
यहाँ स्वयं परमात्माने ‘अविमुक्त’ लिंगकी स्थापना की है।
अतः मेरे अंशभूत हरे! तुम्हें कभी इस क्षेत्रका त्याग नहीं करना चाहिये।” ऐसा कहकर भगवान् हरने काशीपुरीको स्वयं अपने त्रिशूलसे उतार कर मर्त्यलोकके जगत् में छोड़ दिया।
ब्रह्माजीका एक दिन पूरा होनेपर जब सारे जगत् का प्रलय हो जाता है, तब भी निश्चय ही इस काशीपुरीका नाश नहीं होता।
उस समय भगवान् शिव इसे त्रिशूलपर धारण कर लेते हैं और जब ब्रह्माद्वारा पुनः नयी सृष्टि की जाती है, तब इसे फिर वे इस भूतलपर स्थापित कर देते हैं।
कर्मोंका कर्षण करनेसे ही इस पुरीको ‘काशी’ कहते हैं।
काशीमें अविमुक्तेश्वरलिंग सदा विराजमान रहता है।
वह महापातकी पुरुषोंको भी मोक्ष प्रदान करनेवाला है।
मुनीश्वरो! अन्य मोक्षदायक धामोंमें सारूप्य आदि मुक्ति प्राप्त होती है।
केवल इस काशीमें ही जीवोंको सायुज्य नामक सर्वोत्तम मुक्ति सुलभ होती है।
जिनकी कहीं भी गति नहीं है, उनके लिये वाराणसी पुरी ही गति है।
महापुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओंका विनाश करनेवाली है।
यहाँ समस्त अमरगण भी मरणकी इच्छा करते हैं।
फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है।
यह शंकरकी प्रिय नगरी काशी सदा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है।
कैलासके पति, जो भीतरसे सत्त्वगुणी और बाहरसे तमोगुणी कहे गये हैं, कालाग्नि रुद्रके नामसे विख्यात हैं।
वे निर्गुण होते हुए भी सगुणरूपमें प्रकट हुए शिव हैं।
उन्होंने बारंबार प्रणाम करके निर्गुण शिवसे इस प्रकार कहा।
रुद्र बोले – विश्वनाथ! महेश्वर! मैं आपका ही हूँ, इसमें संशय नहीं है।
साम्ब महादेव! मुझ आत्मजपर कृपा कीजिये।
जगत्पते! लोकहितकी कामनासे आपको सदा यहीं रहना चाहिये।
जगन्नाथ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ।
आप यहाँ रहकर जीवोंका उद्धार करें।
सूतजी कहते हैं – तदनन्तर मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले अविमुक्तने भी शंकरसे बारंबार प्रार्थना करके नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए ही प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा।
अविमुक्त बोले – कालरूपी रोगके सुन्दर औषध देवाधिदेव महादेव! आप वास्तवमें तीनों लोकोंके स्वामी तथा ब्रह्मा और विष्णु आदिके द्वारा भी सेवनीय हैं।
देव! काशीपुरीको आप अपनी राजधानी स्वीकार करें।
मैं अचिन्त्य सुखकी प्राप्तिके लिये यहाँ सदा आपका ध्यान लगाये स्थिरभावसे बैठा रहूँगा।
आप ही मुक्ति देनेवाले तथा सम्पूर्ण कामनाओंके पूरक हैं? दूसरा कोई नहीं।
अतः आप परोपकारके लिये उमासहित सदा यहाँ विराजमान रहें।
सदाशिव! आप समस्त जीवोंको संसार-सागरसे पार करें।
हर! मैं बारंबार प्रार्थना करता हूँ कि आप अपने भक्तोंका कार्य सिद्ध करें।
सूतजी कहते हैं – ब्राह्मणो! जब विश्वनाथने भगवान् शंकरसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वेश्वर शिव समस्त लोकोंका उपकार करनेके लिये वहाँ विराजमान हो गये।
जिस दिनसे भगवान् शिव काशीमें आ गये, उसी दिनसे काशी सर्वश्रेष्ठ पुरी हो गयी।
(अध्याय २२) * ‘स द्वितीयमैच्छत्’ (बृहदारण्यक उ० – १।४।३) इस श्रुतिसे भी यही बात सिद्ध होती है।
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