<< शिव पुराण – कोटिरुद्र संहिता – 19
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शिवरात्रि-व्रतके उद्यापनकी विधि
ऋषि बोले – सूतजी! अब हमें शिवरात्रि-व्रतके उद्यापनकी विधि बताइये, जिसका अनुष्ठान करनेसे साक्षात् भगवान् शंकर निश्चय ही प्रसन्न होते हैं।
सूतजीने कहा – ऋषियो! तुमलोग भक्तिभावसे आदरपूर्वक शिवरात्रिके उद्यापनकी विधि सुनो, जिसका अनुष्ठान करनेसे वह व्रत अवश्य ही पूर्ण फल देनेवाला होता है।
लगातार चौदह वर्षोंतक शिवरात्रिके शुभव्रतका पालन करना चाहिये।
त्रयोदशीको एक समय भोजन करके चतुर्दशीको पूरा उपवास करना चाहिये।
शिवरात्रिके दिन नित्यकर्म सम्पन्न करके शिवालयमें जाकर विधिपूर्वक शिवका पूजन करे।
तत्पश्चात् वहाँ यत्नपूर्वक एक दिव्य मण्डल बनवाये, जो तीनों लोकोंमें गौरीतिलक नामसे प्रसिद्ध है।
उसके मध्यभागमें दिव्य लिंगतोभद्र मण्डलकी रचना करे अथवा मण्डपके भीतर सर्वतोभद्र मण्डलका निर्माण करे।
वहाँ प्राजापत्य नामक कलशोंकी स्थापना करनी चाहिये।
वे शुभ कलश वस्त्र, फल और दक्षिणाके साथ होने चाहिये।
उन सबको मण्डपके पार्श्वभागमें यत्नपूर्वक स्थापित करे।
मण्डपके मध्यभागमें एक सोनेका अथवा दूसरी धातु ताँबे आदिका बना हुआ कलश स्थापित करे।
व्रती पुरुष उस कलशपर पार्वतीसहित शिवकी सुवर्णमयी प्रतिमा बनाकर रखे।
वह प्रतिमा एक पल (तोले) अथवा आधे पल सोनेकी होनी चाहिये या जैसी अपनी शक्ति हो, उसके अनुसार प्रतिमा बनवा ले।
वामभागमें पार्वतीकी और दक्षिणभागमें शिवकी प्रतिमा स्थापित करके रात्रिमें उनका पूजन करे।
आलस्य छोड़कर पूजनका काम करना चाहिये।
उस कार्यमें चार ऋत्विजोंके साथ एक पवित्र आचार्यका वरण करे और उन सबकी आज्ञा लेकर भक्तिपूर्वक शिवकी पूजा करे।
रातको प्रत्येक प्रहरमें पृथक्-पृथक् पूजा करते हुए जागरण करे।
व्रती पुरुष भगवत्सम्बन्धी कीर्तन, गीत एवं नृत्य आदिके द्वारा सारी रात बिताये।
इस प्रकार विधिवत् पूजनपूर्वक भगवान् शिवको संतुष्ट करके प्रातःकाल पुनः पूजन करनेके पश्चात् सविधि होम करे।
फिर यथाशक्ति प्राजापत्य विधान करे।
फिर ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक भोजन कराये और यथाशक्ति दान दे।
इसके बाद वस्त्र, अलंकार तथा आभूषणोंद्वारा पत्नीसहित ऋत्विजोंको अलंकृत करके उन्हें विधिपूर्वक पृथक्-पृथक् दान दे।
फिर आवश्यक सामग्रियोंसे युक्त बछड़ेसहित गौका आचार्यको यह कहकर विधिपूर्वक दान दे कि इस दानसे भगवान् शिव मुझपर प्रसन्न हों।
तत्पश्चात् कलश-सहित उस मूर्तिको वस्त्रके साथ वृषभकी पीठपर रखकर सम्पूर्ण अलंकारोंसहित उसे आचार्यको अर्पित कर दे।
इसके बाद हाथ जोड़ मस्तक झुका बड़े प्रेमसे गद् गद वाणीमें महाप्रभु महेश्वरदेवसे प्रार्थना करे।
प्रार्थना देवदेव महादेव शरणागतवत्सल।
व्रतेनानेन देवेश कृपां कुरु ममोपरि।।
मया भक्त्यनुसारेण व्रतमेतत् कृतं शिव।
न्यूनं सम्पूर्णतां यातु प्रसादात्तव शङ्कर।।
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया।
कृतं तदस्तु कृपया सफलं तव शङ्कर।।
‘देवदेव! महादेव! शरणागतवत्सल! देवेश्वर! इस व्रतसे संतुष्ट हो आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये।
शिव-शंकर! मैंने भक्तिभावसे इस व्रतका पालन किया है।
इसमें जो कमी रह गयी हो, वह आपके प्रसादसे पूरी हो जाय।
शंकर! मैंने अनजानमें या जान-बूझकर जो जप-पूजन आदि किया है, वह आपकी कृपासे सफल हो।’ इस तरह परमात्मा शिवको पुष्पांजलि अर्पण करके फिर नमस्कार एवं प्रार्थना करे।
जिसने इस प्रकार व्रत पूरा कर लिया, उसके उस व्रतमें कोई न्यूनता नहीं रहती।
उससे वह मनोवांछित सिद्धि प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है।
(अध्याय ३९)
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