शिव पुराण – कोटिरुद्र संहिता – 2


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काशी आदिके विभिन्न लिंगोंका वर्णन तथा अत्रीश्वरकी उत्पत्तिके प्रसंगमें गंगा और शिवके अत्रिके तपोवनमें नित्य निवास करनेकी कथा

सूतजी कहते हैं – मुनीश्वरो! गंगाजीके तटपर मुक्तिदायिनी काशीपुरी सुप्रसिद्ध है।

वह भगवान् शिवकी निवासस्थली मानी गयी है।

उसे शिवलिंगमयी ही समझना चाहिये।

इतना कहकर सूतजीने काशीके अविमुक्त कृत्तिवासेश्वर, तिलभाण्डेश्वर, दशाश्वमेध आदि और गंगासागर आदिके संगमेश्वर, भूतेश्वर, नारीश्वर, वटुकेश्वर, पूरेश्वर, सिद्धनाथेश्वर, दूरेश्वर, शृंगेश्वर, वैद्यनाथ, जप्येश्वर, गोपेश्वर, रंगेश्वर, वामेश्वर, नागेश, कामेश, विमलेश्वर, प्रयागके ब्रह्मेश्वर, सोमेश्वर, भारद्वाजेश्वर, शूलटंकेश्वर, माधवेश तथा अयोध्याके नागेश आदि अनेक प्रसिद्ध शिवलिंगोंका वर्णन करके अत्रीश्वरकी कथाके प्रसंगमें यह बतलाया कि अत्रिपत्नी अनसूयापर कृपा करके गंगाजी वहाँ पधारीं।

अनसूयाने गंगाजीसे सदा वहाँ निवास करनेके लिये प्रार्थना की।

तब गंगाजीने कहा – अनसूये! यदि तुम एक वर्षतक की हुई शंकरजीकी पूजा और पतिसेवाका फल मुझे दे दो तो मैं देवताओंका उपकार करनेके लिये यहाँ सदा ही स्थित रहूँगी।

पतिव्रताका दर्शन करके मेरे मनको जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी दूसरे उपायोंसे नहीं होती।

सती अनसूये! यह मैंने तुमसे सच्ची बात कही है।

पतिव्रता स्त्रीका दर्शन करनेसे मेरे पापोंका नाश हो जाता है और मैं विशेष शुद्ध हो जाती हूँ; क्योंकि पतिव्रता नारी पार्वतीके समान पवित्र होती है।

अतः यदि तुम जगत् का कल्याण करना चाहती हो और लोकहितके लिये मेरी माँगी हुई वस्तु मुझे देती हो तो मैं अवश्य यहाँ स्थिररूपसे निवास करूँगी।

सूतजी कहते हैं – मुनियो! गंगाजीकी यह बात सुनकर पतिव्रता अनसूयाने वर्षभरका वह सारा पुण्य उन्हें दे दिया।

अनसूयाके पतिव्रतसम्बन्धी उस महान् कर्मको देखकर भगवान् महादेवजी प्रसन्न हो गये और पार्थिवलिंगसे तत्काल प्रकट हो उन्होंने साक्षात् दर्शन दिया।

शम्भु बोले – साध्वि अनसूये! तुम्हारा यह कर्म देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

प्रिय पतिव्रते! वर माँगो; क्योंकि तुम मुझे बहुत ही प्रिय हो।

उस समय वे दोनों पति-पत्नी अद् भुत सुन्दर आकृति एवं पंचमुख आदिसे युक्त भगवान् शिवको वहाँ प्रकट हुआ देख बड़े विस्मित हुए; उन्होंने हाथ जोड़ नमस्कार और स्तुति करके बड़े भक्तिभावसे भगवान् शंकरका पूजन किया।

फिर उन लोककल्याणकारी शिवसे कहा।

ब्राह्मणदम्पति बोले – देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं और जगदम्बा गंगा भी प्रसन्न हैं तो आप इस तपोवनमें निवास कीजिये और समस्त लोकोंके लिये सुखदायक हो जाइये।

तब गंगा और शिव दोनों ही प्रसन्न हो उस स्थानपर, जहाँ वे ऋषिशिरोमणि रहते थे, प्रतिष्ठित हो गये।

इन्हीं शिवका नाम वहाँ अत्रीश्वर हुआ।

(अध्याय २ – ४)


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