<<< (संत कबीर के दोहे – भाग 3)
<<< (Sant Kabir ke Dohe – Page 3)
संत कबीर के दोहे – भाग 4 (Sant Kabir ke Dohe – Page 4)
शब्द गुरु का शब्द है,
काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की,
सत्गुरु यौं समुझाय॥
सुमरित सुरत जगाय कर,
मुख के कछु न बोल।
बाहर का पट बन्द कर,
अन्दर का पट खोल॥
जो गुरु ते भ्रम न मिटे,
भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये,
त्यागत देर न लाय॥
गुरु लोभ शिष लालची,
दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे,
चढ़ि पाथर की नाँव॥
मैं अपराधी जन्म का,
नख-सिख भरा विकार।
तुम दाता दु:ख भंजना,
मेरी करो सम्हार॥
सुमिरन में मन लाइए,
जैसे नाद कुरंग।
कहैं कबीर बिसरे नहीं,
प्रान तजे तेहि संग॥
साधू गाँठ न बाँधई
उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े
जब माँगे तब देय॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां,
जहाँ संशय तहाँ रोग।
कह कबीर यह क्यों मिटे,
चारों धीरज रोग॥
सात समंदर की मसि करौं
लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं
हरि गुण लिखा न जाइ॥
माया छाया एक सी,
बिरला जाने कोय।
भगता के पीछे लगे,
सम्मुख भागे सोय॥
कबीर के दोहे – 4 (Kabir ke Dohe – 4)
![](https://www.bhajansandhya.com/images/bj-ckh1.png)
Next (आगे पढें…) >>
![](https://www.bhajansandhya.com/wp-content/uploads/bj-ckh1.png)
Bhakti Yog Darshan • Hindi • Kabir Dohe 2 • Sant Kabir • Z1