जीवन का उद्देश्य क्या है?


इस लेख में संतों के प्रवचनों से जो बाते दी गयी है,
उसमे बताया गया है की जीवन का उद्देश्य क्या है और
मनुष्य कैसे उस उद्देश्य से भटक जाता है,
अर्थात उसका पतन होने लगता है।

और अंत में
कैसे फिर से मनुष्य सही रास्ते पर आता है,
यह दिया गया है।


मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए?

याद रक्खो, मानव-शरीर विषयभोगके लिये नहीं मिला है।

इन्द्रियोंके भोग तो सभी योनियोंमें (जैसे पशुयोनि आदिमें) प्राप्त होते हैं।

यहाँ भी, अर्थात मनुष्य जीवन में भी प्रारब्धानुसार प्राप्त होंगे ही।

मानव जीवनका तो एकमात्र उद्देश्य है – ईश्वरकी प्राप्ति यानी की भगवत्प्राप्ति।

इसीको मोक्ष, निर्वाण, आत्मसाक्षात्कार या मुक्ति भी कहते हैं।

ईश्वरकी भक्ति में लगे हुए भक्त भी
मानव जीवनका चरम और परम उदेश्य
भगवत्प्रेमकी प्राप्ति बतलाते हैं।

दोनों में, अर्थात मोक्ष में और भगवत प्रेम की प्राप्ति में, बात एक ही है।

दोनों में, विषयभोगोंसे तथा सांसारिक पदार्थोंसे आसक्ति हटानी पड़ती है।

दोनों में ही कामना तथा अहंकारको मिटाना पड़ता है।


मोक्ष या भगवत्प्रेम-प्राप्ति

विषयों में आसक्त मनुष्य न भगवानको प्राप्त होता है, न भगवत्प्रेमको।

मनुष्य जब ईश्वर की प्राप्ति को ही
अपने जीवनका एकमात्र उद्देश्य मानकर
उसीके लिये प्रयत्न करनेका निश्चय करता है,
तभी उसमें यथार्थ मानवताका सूत्रपात या प्रारम्भ होता है।

नहीं तो वह मानव-शरीरमें या तो पशु है या असुर।

आहार, निद्रा, भय और वैरकी ओर झुका हुआ मनुष्य
पशुता से युक्त है और
अत्याधिक भोग-वासनाओंमें फंसा अहंकारी मनुष्य
दानवता या आसुरी सम्पदासे।


कौन सा मनुष्य, पशु से भी गया बिता है

1. जो केवल भोजनकी और
भौतिक वस्तुओं की चिन्तामें लगा हुआ
और उसके लिये प्रयत्नशील रहता है।

2. भौतिक वस्तुओं को ही सबसे मुख्य वस्तु जानकर,
उनको ही जीवनका एकमात्र ध्येय मानकर,
उन वस्तुओं की प्राप्तिके लिये
येन-केन-प्रकारेण उघोग में लगा रहता है –
चाहे वे हिंसासे मिले, चाहे अहिंसासे।

3. सांसारिक वस्तुएं मिलने में
किसी प्रकार बाधा न आ जाय,
मिली हुई वस्तुएं चली ना जाए,
इस भयसे जो सदा भयभीत रहता है।

4. इनमें बाधा देनेवालेके साथ जो लड़ने लगता है,
तथा परम आत्मीयको, सगे-सम्बन्धियों को भी
शत्रु मान लेता है। और

5. पेट भरकर,
भौतिक वस्तुओं का सुख प्राप्त कर,
बाधा देनेवालोंसे लड़-भिडकर,
जो सो जानेमें ही जीवनका सुख प्राप्त करता है,
ऐसा मनुष्य
मानव-शरीरधारी होनेपर भी मानव नहीं है।

क्योंकि भगवत्प्राप्तिकी इच्छा,
जहाँसे मानवताका प्रारम्भ होता है,
उसमें जाग्रत् ही नहीं हुई।

कई बातोंमें तो वह पशुसे भी गया बीता है।


कैसे मनुष्य पशु से भी निम्नश्रेणी का हो जाता है

पशुका आहार-भोग आदि नियमित होता है,
उसकी विचारशक्ति तथा सामर्थ्य-शक्ति भी सीमित होती है,
इससे उसकी पशुताका भी विशेष विकास नहीं होता।

सिंह, बाघ, हाथी, कुत्ता, भेड़, बकरी आदि पशु
अपने शरीर के अनुसार जितनी चेष्टा कर सकते हैं और
जैसी चेष्टा कर सकते हैं, उतनी ही करते हैं।

पर मनुष्य जब अपनी बुद्धिको तथा प्राप्त ज्ञानको
पशुताकी वृद्धिमें लगाता है,
तब तो वह इतना घोर पशु बनता जाता है,
जो पशु-जगतके लिये सम्भव ही नहीं है।

इसीसे ऐसा मनुष्य पशुजातिके पशुकी अपेक्षा
कहीं अधिक निम्नश्रेणीका होता है।

पशु उससे उन्नत रह जाते हैं और
वह नीची गतिमें चला जाता है।


भगवान् को भूलकर मनुष्य कैसे असुर हो जाता है

भगवानको जीवनकी परम गति न मानकर,
जो केवल भोगोंके प्राप्त करने और
उन्हें भोगनेमें ही जीवनकी इतिकर्तव्यता
अर्थात अपना कर्तव्य मानता है, और

उन वस्तुओं का भोग ही
जिसके जीवनका सिद्धान्त है –
वह असुर है।

ऐसा मनुष्य दम्भ, घमंड,
अभिमान, क्रोध, कठोर वचन
तथा अज्ञानको अपनी सम्पत्ति माने रहता है।

यथार्थमें कौन-सा कर्म करना चाहिये,
कौन-सा नहीं करना चाहिये,
इसको यह जानता ही नहीं;

इसलिये उसके जीवनमें
न तो बाहर-भीतरकी शुद्धि रहती है,
न श्रेष्ठ आचरण रहते हैं और
न सत्यका व्यवहार या दर्शन ही।


कौन से विचार मनुष्य को नीचे की ओर ले जाते है?

वह मानता है –
संसारका कोई न तो बनानेवाला है,
न कोई आधार है,
प्रकृतिके द्वारा अपने आप ही यह उत्पन्न हो जाता है ।

स्त्री-पुरुषोंका संयोग ही इसमें प्रधान हेतु है।

अतएव संसारमें भोग भोगना ही
जीवनका सार-सर्वस्व है।

इस प्रकार मानकर वह असुर-मानव
अपने मानव-भावको खो देता है।

उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।

दूसरेका बुरा करनेमें ही
वह अपना स्वार्थ समझता है।

ऐसा कोई उग्र-क्रूर कर्म नहीं,
जो वह नहीं कर सकता हो।

दूसरों का चाहे जो हो,
उसका स्वार्थ सिद्ध होना चाहिये।

वह सदा मान तथा मदसे भरा ही रहता है।

उसकी विषयकामना कभी पूरी होती ही नहीं।

परंतु कामनाओंकी पूर्तिके लिये
वह मिथ्या मतवादोंको ग्रहण करके
भ्रष्टाचारमें प्रवृत्त हो जाता है।

भौतिक वस्तुएं ही जीवनका सार सिद्धान्त है,
इस मान्यताके कारण वह पुरे जीवन में
अनन्त-अनन्त चिन्ता-ज्वालाओंसे जलता रहता है।

जन, धन, परिस्थिति आदिकी
सैकड़ों सैकड़ों आशाकी दृढ़ फाँसियोंसे
जकड़ा हुआ वह असुर-मानव
भौतिक वस्तुओं के लिये अन्यायपूर्वक
अर्थसंग्रहमें लगा रहता है।

रात-दिन यही सोचता रहता है,
आज इतना मिल गया,
अब प्रयत्न करके और भी पा लूंगा ।

इतना धन तो मेरे पास हो गया,
उसके पास मुझसे अधिक है,
मैं ऐसे उपाय करूँगा कि
जिससे उससे भी अधिक धन-सम्पन्न हो जाऊँगा ।

आज यह अधिकार मिला, इस कुर्सीपर बैठा,
कल इससे भी ऊँचा अधिकार प्राप्त करूँगा।

लेकिन अमुक-अमुक व्यक्ति मेरे मार्गमें बाधक हैं,
वे सदा सर्वदा मेरे विरोधमें ही लगे रहते हैं।

इन मेरे विपक्षी वैरियोंके रहते मेरा काम नहीं बनेगा।
अतएव मुझे इन मार्गके काँटोंको हटाना ही पड़ेगा।

कुछ काँटोंको तो हटा दिया गया है।
जो बचे उनको भी हटाना है।
पर यह मेरे लिये कौन-सा कठिन कार्य है।

हाथमें सत्ता है! ईश्वर क्या होता है।
मैं ही ऐश्वर्यका भोगनेवाला है,
सारी सिद्धि मेरे करतलगत हैं ।

मेरा अतुल बल है।
किसकी शक्ति है जो मेरे सामने आकर टिक सके।

सारे भोग-सुख मैं भोग रहा हूँ।

कितनी सम्पत्तिका स्वामी हूँ।

सभी मेरे ही ईशारोपे नाचते है और नाचेंगे।

मैं बड़े-बड़े काम करूँगा और मेरा नाम अमर रहेगा।


ऐसे स्वभाव और कर्मोंका परिणाम क्या होता है?

इस प्रकार वह लोभी मनुष्य मोह-जालके अंदर
मनोरथोंके चक्रमें भटकता रहता है और
मनोरथ-सिद्धिके लिये
दिन-रात ऐसे अमानवीय कार्य करता रहता है,
जिनके कारण यहाँ दिन-रात जलता है।

महलोंमें रहता, आरामकुर्सियोंपर बैठता,
मखमली गद्दोंपर सोता, वायुयानोंमें उड़ता
तथा हुकूमत करता हुआ भी
रात-दिन महान् मानस संताप से संतप्त रहता है और
अपनी अमानवी करतूतों फलस्वरूप
घोर अपवित्र नरकोंमें गिरनेको बाध्य होता है।

अहंकार, बलाभिमान, घमंड, काम, क्रोध और
सबके अन्तरमें नित्य विराजित श्रीभगवान्से द्वेष,
ये ही उसके जीवनके सहज स्वभाव बन जाते हैं।

अतः भगवान् भी उस नराधमको बार-बार
पशु और आसुरी योनियोंमें और
भीषण नरकोंमें डालते रहते हैं।

उसके अनर्थमय कर्मोंका
यही अनिवार्य फल होता है।


लोभ, क्रोध आदि विकारों से क्या होता है?

काम, क्रोध और लोभ,
ये नरकके तीन प्रधान साधन कहे गए हैं।

ये आत्माका नाश, पतन करनेवाले,
जीवको अधोगतिमें ले जानेवाले हैं।

ये ही आसुरी सम्पदाके प्रधान योद्धा हैं।

ये योद्धा –
धन-दौलत, मान-प्रतिष्ठा, घर-मकान,
अधिकार-पद आदिका स्वांग धरकर
और क्रोध –
अपनी क्रूर आकृति धारण कर
मानव जीवनको जकड़ लेते हैं,
दृढ़ बन्धनमें बाँध लेते हैं और
दिन-रात उसे अधिक-से-अधिक अपनी ओर खींचते रहते हैं।

लोभी और भौतिक चीजों में फंसा मनुष्य
उनकी ओर खिंचे रहने,
उनसे अभिभूत रहनेमें ही वह अपना परम लाभ,
जीवनकी सिद्धि और सफलता समझता है।


विकारों के इन योद्धाओं के चंगुल से मनुष्य कैसे बाहर निकलता है?

भगवानकी कृपा तथा सत्संग के फलस्वरूप
उसे जब कभी अपनी दुर्दशाका अनुभव होता है,
तब वह भगवानकी ओर मुड़ना चाहता है,
तथा भगवान् से प्रार्थना करता है।

उस अवस्थामें भी ये तीनों प्रबल खल दुर्दान्त शत्रु
उसका पीछा छोड़ना नहीं चाहते।

पर यदि वह आर्त होकर
सच्चे हृदयसे प्रार्थना करता है और
इनसे छूटना चाहता है,
तो भगवान् कृपा करके
उसके इस नरक बन्धनको काट देते हैं।

परंतु जबतक वह कामोपभोगको ही परम पुरुषार्थ मानता है,
तबतक उसकी मानवता प्रकट ही नहीं होती,
यही असुर-मानवका स्वरुप है।


मनुष्य क्यों नीचे की ओर गिरता जाता है

प्रकृति स्वाभाविक अधोगामिनी है।

सत्वगुणसम्पन्न पुरुष भी
यदि सावधानीके साथ आगे बढ़नेका,
गुणातीत अवस्थामें पहुँचनेका प्रयत्न नहीं करता है,
तो सहज ही उसका सत्वगुण
क्रमशः रजोमुखी, फिर रजोगुण तमोमुखी होकर
घोर तमसाच्छन्न हो जाता है।

इसलिये सदा सावधानीके साथ
प्रकृतिको ऊँचा उठानेका प्रयत्न करते रहना चाहिये।

जगतमें सभी क्षेत्रोंमें फिसलाहट है,
जरा-सी असावधानीसे मनुष्य फिसलकर नीचे गिर सकता है।

फिर आसुरी शक्ति तो मनुष्यको
सदा विभिन्न प्रकारके प्रलोभन
तथा भय दिखलाकर अपनी ओर खींचती ही रहती है।


मनुष्यके पतन के लक्षण क्या है?

आसुरी शक्तिका सबसे पहला काम होता है,
ईश्वर तथा धर्मसे विश्वास उठाकर
प्रकृतिमें विश्वास करा देना।

यही पतनका प्रथम लक्षण है।

इसके होते ही क्षुद्र “अहं” आ जाता है।

और फिर स्वार्थ, हिंसा, असत्य,
व्यभिचार, संग्रह-प्रवृत्ति, विलासिता,
अहंकार, मद, अधिकारलिप्सा,
विषमता, भोगपरायणता, द्वेष,
युद्ध आदि दुर्गुण, दुर्भाव और
दुराचार जीवनमें व्याप्त हो जाते हैं।

आसुरी भावों वाला व्यक्ति,
बड़ी लुभाई दृष्टिसे इनकी ओर देखता है
और पतित हो जाता है।


मनुष्य जीवन के सही रास्ते पर कैसे आता है?

कहीं सौभाग्यसे सत्पुरुषका शुभ संग मिलता है,
तो उससे उसकी इन दुर्गुण, दुर्भाव और
दुराचारोंके विरोधी सद्गुण, सद्भाव और
सदाचारोंकी ओर प्रवृत्ति होती है।

सत्पुरुष उसे इधरसे हटाकर ईश्वरमें विश्वास,
परार्थभाव, अहिंसा, सत्य,
ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सादगी, सेवा-भाव,
विनय, कर्तव्यशीलता, समता,
त्याग और प्रेमकी ओर प्रवृत्त करना चाहता है,
वह हाथ पकड़कर उसके जीवनको इधर घुमाता है।

तब किसी महान् आदर्शकी ओर आकृष्ट होकर
उसके जीवनकी गति इधर होती है।

उपर्युक्त दुर्गुण, दुर्भाव और दुराचारोंका परिणाम होता है
दु:ख और विनाश, आत्माका घोर पतन एवं

उपर्युक्त सगुण, सद्भाव और सदाचारोंका फल होता है,
शाश्वत शान्ति, आत्यन्तिक आनन्द और
नित्य आत्म सच्चिदानन्दघन जीवनकी प्राप्ति।

इन सद्गुणों की ओर मुड़कर
आध्यात्मिक साधनामें प्रवृत्त होकर
आत्म-जीवन प्राप्त करनेवाला ही “मानव” है।

इस साधनामें प्रवृत्ति ही मानवताका आरम्भ है और
इस जीवनमें स्थिति ही सची मानवता है,
मानवके मानव जीवनकी सफलता है।


सच्ची मानवताको प्राप्त मनुष्य का स्वभाव कैसा होता है?

सच्ची मानवताको प्राप्त मानव
समस्त प्राणियों के साथ वैसा ही बर्ताव करता है,
जैसे हम अपने शरीरके सब अङ्गोंके साथ करते हैं।

हाथ-पैर, नाक-कान,
मुख-आँख आदिके भेदसे
हमारे शरीरके अङ्गों में बड़ा भेद है,
उनके आकार-प्रकारमें भी
तथा उनके कायोंमें भी।

कोई यदि चाहे कि उनका आकार-प्रकार
एक-सा बना दें
या उनके सबके काम एक-से बना दें
तो यह कभी सम्भव नहीं है।

न उनका आकारप्रकार बदला जा सकता है,
न उनके कार्य एक-से बनाये जा सकते हैं और
न उनके ऊपर-नीचेके स्थानों में ही
परिवर्तन किया जा सकता है।

इतना रूपभेद, क्रियाभेद और
स्थानभेद होनेपर भी
सबमें आत्मभावना एक है, सम है और
वह सहज अखण्ड है।

इसलिये सबके दुःखमें एक-सा दुःख,
सबके सुखमें एक-सा सुख,
सबके दुःखनिवारणकी एक-सी चेष्टा,
सबके सुख-सम्पादनकी एक-सी चेष्टा,
सबके सम्भावित दुःखको न आने देनेका एक-सा प्रयत्न और
सबके सम्भावित सुखके शीघ्र प्राप्त करनेका एक-सा प्रयत्न होता है।

जितनी आवश्यकता और प्रीति मस्तिष्कमें है,
उतनी ही चरणोंमें है।

जितना निजत्व मुखमें है,
उतना ही नीचेके अङ्गोंमें है।

एक अङ्गके विपदप्रस्त होनेपर
सारे अङ्ग खाभाविक ही
उसकी विपत्तिको हटानेमें लग जाते हैं और
एक अङ्गके द्वारा दूसरे अङ्गपर
सहज आघात लग जानेपर भी
आघात करनेवाले अङ्गको दण्ड नहीं दिया जाता।

दाँतसे जीभ कट जानेपर
कोई भी दाँतोंको दण्ड नहीं देता;
क्योंकि दाँत और जीभ दोनों में ही
समान आत्मभाव, समान प्रेमभाव है।

जैसे शरीरके सभी अङ्गोंकी
समान रूपसे पुष्टि-तुष्टि अभीष्ट होती है,
वैसे ही समस्त चराचर प्राणिमात्रकी
पुष्टि-तुष्टि समानरूपसे अभीष्ट होनी चाहिये।

शरीरके किसी एक अङ्गका पोषण किया जाय और
दूसरोंकी अवहेलना की जाय,
तो वह अनर्थका कारण होता है।

ऐसे ही किसी एक व्यक्तिका पोषण किया जाय,
उसीकी उन्नति की जाय, और
शेषकी अवहेलना हो, तो उससे भी बड़ा अनर्थ होता है।

सची मानवताको प्राप्त मानवके द्वारा
ऐसा अनर्थ नहीं हो सकता।

इसलिए, सच्ची मानवताको प्राप्त मनुष्यका
प्रेमभाव किसी एक मनुष्य में नहीं,
बल्कि सम्पूर्ण प्राणिमात्रमें उसका आत्मभाव,
प्रेमभाव नित्य बना रहता है।