श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा
अवन्तिकायां विहितावतारं
मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं
वन्दे महाकालमहासुरेशम्॥
श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग, मध्यप्रदेश के, मालवा क्षेत्र में, क्षिप्रा नदी के तटपर पवित्र उज्जैन नगर में विराजमान है। उज्जैन को प्राचीनकाल में अवंतिकापुरी कहते थे।
महाभारत, पुराणों में और महाकवि कालिदास की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है।
स्वयंभू और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी महत्ता है। ऐसी मान्यता है की इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा – 1
अवलीवासी एक ब्राह्मण के शिवोपासक चार पुत्र थे।
ब्रह्मा से वर प्राप्त दुष्ट दैत्यराज दूषण ने, अवंती मे आकर, वहां के निवासी वेदज्ञ ब्राह्मण को बडा कष्ट दिया। परन्तु शिवजी के ध्यान में लीन ब्राह्मण तनिक भी खिन्न नहीं हुए।
दैत्यराज ने अपने चारो अनुचर दैत्यों को नगरी मे घेर कर वैदिक धर्मानुष्ठान ने होने देने का आदेश दिया।
दैत्यों के उत्पात से पीडित प्रजा ब्राह्मणो के पास आई।
बाह्मण प्रजाजनो को धीरज बंधा कर शिवजी की पूजा में तत्पर हुए।
इसी समय ज्योहिं दूषण दैत्य अपनी सेना सहित उन ब्राह्मणों पर झपटा, त्योहि पार्थिव मूर्ति के स्थान पर एक भयानक शब्द के साथ धरती फटी और वहां पर गड्डा हो गया। उसी गर्त में शिवजी एक विराट रूपधारी महाकाल के रूप में प्रकट हुए।
शिवजी ने उस दुष्ट को ब्राह्मणो के निकट न आने को कहा, परन्तु उस दुष्ट दैत्य ने शिवजी की आज्ञा न मानी।
फलत: शिवजी ने अपनी एक ही हुंकार से उस दैत्य को भस्म कर दिया।
शिवजी को इस रूप मे प्रकट हुआ देखकर ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्रादि देवों ने आकर भगवान शंकर की स्तुति वन्दना की।
श्री महाकालेश्वर की कथा – 2
राजा चन्द्रसेन और गोपीपुत्र
महाकालेश्वर की महिमा अवर्णनीय हे। उज्जयिनी नरेश चन्द्रसेन शास्त्रज्ञ होने के साथ साथ पक्का शिवभक्त भी था। उसके मित्र महेश्वरजी के गण मणिभद्र ने उसे एक सुन्दर चिंतामणि प्रदान की।
चन्द्रसेन जब उस मणि को कण्ठ में धारण करता तो इतना अधिक तेजस्वी दीखता कि देवताओं को भी ईर्ष्या होती।
कुछ राजाओं के मांगने पर मणि देने से इकार करने पर उन्होंने चन्द्रसेन पर चढाई कर दी।
अपने को घिरा देख चंद्रसेन महाकाल की शरण में आ गया। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उसकी रक्षा का उपाय किया।
संयोगवश अपने बालक को गोद में लिए हुए एक ब्राह्मणी भ्रमण करती हुए महाकाल के समीप पहुंची।
अबोध बालक ने महाकालेश्वर मंदिर में राजा को शिव पूजन करते देखा तो उसके मन में भी भक्ति भाव उत्पन्न हुआ।
उसने एक रमणीय पत्थर को लाकर अपने सूने घर में स्थापित किया और उसे शिवरूप मान उसकी पूजा करने लगा।
भजन में लीन बालक को भोजन की सुधि ही न रही।
उसकी माता उसे बुलाने गई, परन्तु माता के बार बार बुलाने पर भी बालक ध्यान मगन मौन बैठा रहा।
इस पर उसकी माया विमोहित माता ने, शिवलिंग को दूर फ़ेंक कर उसकी पूजा नष्ट कर दी।
माता के इस कृत्य पर दुखी होकर वह शिवजी का स्मरण करने लगा।
शिवजी की कृपा होते देर न लगी, और पुत्र द्वारा पूजित पाषाण रत्नजड़ित ज्योतिर्लिंग के रूप में आविर्भूत हो गया।
शिवजी की स्तुति वन्दना के उपरान्त जब बालक घर को गया तो उसने देखा कि उसकी कुटिया का स्थान सुविशाल भवन ने ले लिया है।
इस प्रकार शिवजी की कृपा से वह बालक विपुल धन धान्य से समृद्ध होकर सुखी जीवन बिताने लगा।
इधर विरोधी राजाओं ने जब चन्द्रसेन के नगर पर अभियान किया तो वे आपस में ही एक दूसरे से कहने लगे कि राजा चद्रसेन तो शिवभक्त है, और उज्जैयिनी महाकाल की नगरी हैं, जिसे जीतना असम्भव है।
यह विचार कर राजाओं ने चंद्रसेन से मित्रता कर ली और सबने मिलकर महाकाल का पूजा कि।
इस समय वहां वानराधीश हनुमान जी प्रकट हुए और उन्होनें राजाओं को बताया कि शिवजी के बिना मनुष्यों को गति देने वाला अन्य कोई नहीं है।
शिवजी तो बिना मंत्रों से की गई पूजा से भी प्रसन्न हो जाते है। गोपीपुत्र का उदाहरण तुम्हारे सामने ही है। इसके पश्चात् हनुमान जी चंद्रसेन को स्नेह और कृपा पूर्ण दृष्टि से देखकर वही अन्तर्धान हो गए।
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