गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 8


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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


आभूषण स्वरूप शिशु को शक्ति प्रदान करना

तदुपरान्त भगवान् विष्णु ने अपने कण्ठ में धारण की हुई कौस्तुभ- मणि बालक के गले में पहिना दी।

फिर ब्रह्माजी ने उसे अपना मुकुट पहिनाया और धर्मराज ने रत्नों का एक दिव्य अलंकार धारण कराया।

इसी प्रकार समस्त उपस्थित देवी-देवताओं ने अपने-अपने आभूषण-आभरण, अलंकार आदि प्रदान किए।

तब सब प्रकार से सन्तुष्ट हुए शिवजी ने बालक का स्तवन किया।

बोले- ‘गजानन! आपके यहाँ आने से मैं धन्य हो गया।

नरदेह पर गज का मुख कैसा शोभायमान प्रतीत होता है, जिसका वर्णन भी इस वाणी से नहीं हो सकता।

इसपर सभी देवताओं ने आभूषणादि के रूप में तुम्हें शक्ति प्रदान की है, इसलिए तुम सदैव विजयी रहोगे।

सुर, असुर, दैत्य, राक्षस, मनुष्य, नागादि में ऐसा कोई भी नहीं, जो तुम्हारी समता कर सके।’

तदुपरान्त ब्रह्माजी ने निवेदन किया- ‘हे देवाधिदेव! हे गजमुख! तुम सभी शास्त्रों, समस्त विद्याओं, सभी कर्मों में स्वयंसिद्ध निष्णात हो।

अन्य तो क्या, मैं भी तुम्हारे पाण्डित्य का सामना करने में समर्थ नहीं हूँ।

हमारी प्रार्थना है कि तुम सदैव देवताओं के पक्ष का निर्वाह करते रहना।’

इसके पश्चात् समस्त उपस्थित देवताओं, मुनियों, गन्धर्वों, किन्नरों, यक्षों, अप्सराओं, देवियों आदि ने भी विभिन्न प्रकार से अपने-अपने मतानुसार गजमुख की स्तुति की।

तदन्तर शिव-शिवा दोनों ने ब्राह्मणों को करोड़ों रत्न-मणि आदि का दान किया।

वन्दीजनों को सैकड़ों-हजारों हाथी-घोड़े प्रदान किये।तदुपरान्त शिव-शिवा ने मंगलोत्सव मनाते हुए ब्राह्मणों को भोजन कराया तथा वेद-पाठ एवं पुराण-पाठ के भी आयोजन हुए।

नृत्य-गीत आदि भी चलने लगे।

अप्सराएँ और सुर-वनिताएँ विविध प्रकार के नाच द्वारा उत्सव को और भी अधिक शोभायमान बना रही थीं।

इस प्रकार यह उत्सव दीर्घकाल तक निर्बाध रूप से चलता रहा।’


शनिदेव को पार्वती का शाप

बेचारे शनिदेव अब भी उसी प्रकार नीचा मुख किए खड़े थे।

वे संकोच के कारण न तो जा सके और न उत्सव में ही भाग ले सके।

तभी पार्वतीजी की दृष्टि शनिदेव पर पड़ी तो उन्हें क्रोध हो आया-

“शनिं सलज्जितं दृष्ट्वा पार्वती कोपशालिनी।
शशाप च सभामध्येऽप्यङ्ग‌हीनो भवेति च॥”

शनिदेव को लज्जा से सिकुड़े हुए देखकर क्रोधित हुई पार्वती ने उन्हें शाप दे दिया कि ‘तू सभा के मध्य में ही अंगहीन हो जा।’

सूर्यदेव, कश्यप तथा यमराज का पार्वती पर क्रोधित होना

पार्वती के द्वारा सूर्यपुत्र शनि को इस प्रकार शाप दिये जाने पर भगवान् सूर्यदेव कुपित हो गये और लाल नेत्रों से देखते हुए बोले- ‘सभी उपस्थित सज्जन देख लें कि गिरिजा ने मेरे पुत्र को व्यर्थ ही शाप दिया है।

उस बेचारे का किञ्चित् मात्र भी दोष नहीं था।

वह दर्शनार्थ आया था और गिरिजा की अनुज्ञा प्राप्त होने पर ही उसने बालक की केवल झलक ही देखी थी।

फिर अब, जबकि बालक पुनर्जीवित हो गया और उसी उपलक्ष्य में उत्सव भी मनाया जा रहा है, तो इस अवस्था में उसे शाप देने का प्रयोजन ही क्या था?’

कश्यप और यमराज भी क्रुद्ध हो गए और तीव्रता से कहने लगे- ‘शनि का कोई अपराध नहीं था, जब जो कुछ भवितव्य होता है, वह होकर ही रहता है।

फिर शनैश्चर तो लज्जा से सिर झुकाए खड़ा था।

इसलिए उसे अभिशप्त करने की अपेक्षा उसपर दया करनी चाहिए थी।’


सूर्यदेव आदि का विष्णु से भी रुष्ट होना

इसी प्रकार कुछ अन्य देवता भी उठ खड़े हुए।

क्रोध के कारण उनके नेत्र लाल हो रहे थे, ओष्ठ फड़क रहे थे और आवेग के कारण शरीर काँप रहे थे।

तभी वे पुनः बोले- ‘इस शाप की प्रमुख अपराधिनी गिरिजा और दूसरे अपराधी विष्णु हैं।

हम इन दोनों को ही आज ऐसा शाप देंगे कि यह जीवनभर अपने कर्मफल रूप का स्मरण रखें।’

यह कहते हुए वे जगज्जननी पार्वती जी और श्रीहरि को शाप देने को उद्यत हुए देखकर ब्रह्माजी उठे और उन्होंने उन सबको इस प्रकार समझाया- ‘हे दिनकर! हे कश्यप! हे यमराज! एवं अन्यान्य देवगण! इस विवाद को शान्त किया जाना ही श्रेयस्कर है।

‘जो कुछ होने वाला था वह हो चुका।

अब आगे किसी के भी द्वारा शापों का आदान-प्रदान होने से हम सभी की हानि है।

क्योंकि उससे दुष्कर्मी असुरादि अधिक प्रबल हो जायेंगे जिसके फलस्वरूप हम सभी को तिरस्कृत और भयभीत रहना होगा।

अतएव, विवेक से काम लेते हुए क्रोध का निवारण करो।’


श्रीहरि और पार्वती का शाप देने को तैयार होना

उधर विष्णु और पार्वती भी उन्हें शाप देने को उद्यत हो रहे थे।

ब्रह्माजी ने उनके प्रति भी ऐसा ही निवेदन किया- ‘भगवन्! आप सभी के ईश्वर, ज्ञान और बुद्धि के प्रेरक, काल के भी नियन्ता एवं सर्व समर्थ हैं।

आपका क्रोध समस्त त्रिलोकी को भस्म करने में समर्थ है तथा हे जगन्निवास! यह समस्त विश्व आपने ही उत्पन्न किया है तो अब आपके ही शाप से नष्ट नहीं होना चाहिए।

हे प्रभो! यही मेरी प्रार्थना है कि आप क्रोध को त्याग कर शान्त होने की कृपा करें।’

फिर उन्होंने पार्वती से कहा- ‘देवि! आप भगवान् शंकर की अर्द्धांगिनी हैं।

आपके निमेष-उन्मेष में ही संसार का विनाश और प्राकट्य निहित है।

इसीलिए आपको ‘शिवा’ कहते हैं।

हे कल्याणि! आप अन्य किसी की बात पर ध्यान न देकर मेरी बात मानिये।

इस जगत् को नष्ट होने से बचाइये परमेश्वरी! अन्यथा घोर विनाश उपस्थित हो सकता है।’

ब्रह्माजी के इस प्रकार के कोमल एवं सारगर्भित वचन सुनकर महर्षि कश्यप बोले- ‘पितामह! यह बेचारा शनैश्चर तो पत्नी के शाप से दृष्टि- दोषी हो ही गया था और वह तथ्य इसने छिपाया भी नहीं।

बालक की माता ने इसके दृष्टि-दोष जानते हुए भी बालक को देखने की आज्ञा दे दी और तभी उसे देखा था, तब उसके छिन्न मस्तक होने में इस बेचारे का क्या दोष रहा?’

तभी सूर्य बोल पड़े- ‘मेरे पुत्र ने धर्म को साक्षी बनाकर बालक की माता से आज्ञा ली, तभी उसके पुत्र की ओर देखा, फिर उस निरपराध को अंग-भंग होने का शाप दे डाला।

इसलिए अंग-भंग को रोका जाने पर ही शान्ति संभव है।’

यमराज बोले- ‘गिरिराजनन्दिनी ने स्वयं ही देखने की आज्ञा दी थी तब मुझे साक्षी बनाकर शनि ने उस बालक को प्रयत्नपूर्वक स्वल्प ही देखा था और जब बालक का अंग-भंग होने के पश्चात् वह पुनर्जीवित हो गया, तो भी शनि को शापित कर डाला।

इसलिए यदि हमलोग किसी बधिक को शाप देना चाहते हैं तो उसमें दोष ही क्या है।’

ब्रह्माजी बोले-‘आप लोग शान्त हो जायें।

मैं शीघ्र ही वह यत्न करता हूँ कि पार्वती के शाप का विमोचन हो जाये।

पार्वती ने सहज चञ्चलतावश शाप दे डाला था।

वह उनकी भूल थी, किन्तु सज्जनों द्वारा तो बड़े-से-बड़े अपराधी भी क्षमा कर दिये जाते हैं।’

इस प्रकार पितामह ने उन सबको शान्त किया और फिर शनिदेव से बोले- ‘ग्रहेश्वर! तुम तुरन्त ही देवी पार्वती की शरण में चलो।

तुम्हारे शाप का निवारण उन्हीं की कृपा से संभव है।

यदि तुम्हारे पिता और उनके पक्ष वाले देवता माता पार्वती को शाप दे भी दें तो उससे तुम्हारे कोई उपकार नहीं हो सकता।

इसलिए, आओ मेरे साथ।’चतुरानन का आदेश मानकर शनि उनके साथ माता के आश्रय में पहुँचे और तब ब्रह्माजी ने पार्वती जी से निवेदन किया, ‘जगज्जननि! दुर्गे! आपने अपने पुत्र के दर्शन की आज्ञा दे दी थी तो शनि का क्या दोष था, फिर भी आपने उस निर्दोष को शाप दे डाला।

इसलिए अब उस शाप का प्रतिकार होना आवश्यक है।’


पार्वती द्वारा शनैश्चर को वर प्रदान करना

पार्वती जी ने ब्रह्माजी की बात पर कुछ देर विचार किया और बोलीं- ‘पितामह! मेरा शाप अमोघ है, उसका व्यर्थ होना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है।’

ब्रह्माजी बोले- ‘गिरिराजनन्दिनी! इसका कुछ उपाय तो करना ही होगा।

अन्यथा सूर्य, कश्यप, धर्म आदि देवताओं के कोप से तीनों ही लोक भस्म हो जायेंगे।’

पार्वती बोलीं- ‘चतुरानन! मैं शाप दे सकती हूँ तो वर भी दे सकती हूँ।

इसे और इनके पक्ष के सभी देवताओं को मैं वरदान से सन्तुष्ट कर दूँगी।

ब्रह्मन्! आप उन सभी को यहाँ बुला लीजिए।’

सूर्य आदि सभी वहाँ बुला लिये गए।

उन्होंने आकर जगज्जननी के चरणों में प्रणाम किया और जय-जयकार करते हुए बोले- ‘परमेश्वरी! कृपा करो।

इस निर्दोष शनैश्चर को अपनी अनुग्रहात्मक दृष्टि से निहारिए।’

इस प्रकार से सूर्य, कश्यप आदि द्वारा किए गए स्तवन से शिवा सन्तुष्ट हो गईं और शनि के प्रति कहने लगीं-

“ग्रहराजो भव शने मद्वरेण हरिप्रियः।
चिरजीवी च योगीन्द्रो हरिभक्तस्य का विपत्॥”

‘हे शने! तुम भगवान् श्रीहरि के प्रिय हो।

मेरे वरदान से ग्रहों के राजा होगे।

योगियों में परम योगी रूप योगीन्द्र और चिरजीवी बनोगे।

अरे, हरि-भक्त का विपत्ति क्या कर सकती है? मेरा यह भी वर है कि भगवान् श्रीहरि के तुम परम भक्त होओ।

तुम्हारे हृदय में उनकी दृढ़ भक्ति रहेगी।

परन्तु वत्स! मेरा शाप अमोघ होने के कारण नष्ट तो नहीं हो सकता, किन्तु उसका किञ्चित् प्रभाव पाँव पर ही पड़कर रह जायेगा।

तुम कुछ लँगड़े हो जाओगे।’

पार्वतीजी के वचन सुनकर शनिदेव को सन्तोष हुआ।

साथ ही, सूर्य, कश्यप, धर्म आदि भी सन्तुष्ट हो गए और गिरिराजनन्दिनी की स्तुति करने लगे- ‘हे देवि! आप महान हैं।

हम तुच्छ प्राणी आपकी महिमा को कैसे जान सकते हैं? आप संसार की स्वामिनी हैं।

आपके दृष्टिमात्र में ही संसार का उत्थान और पतन निहित है।

यदि आप क्रोधपूर्वक हैं तो विनाश और प्रसन्न होकर देखती हैं तो विकास एवं सुख ही सुख है।

‘जगज्ञ्जननि! हमपर ऐसी कृपा अवश्य करें कि हम आपके चरणों को सदैव याद रखें और आप मातेश्वरी का अनुग्रह निरन्तर प्राप्त करते रहें।

हमपर कभी कोई विपत्ति न आवे और हम किसी प्रकार के दुख में न पड़ें।

आपकी ऐसी कृपा में ही हमारा कल्याण निहित है।’

भगवती उमा उक्त स्तुति को सुनकर प्रसन्न होती हुई कहने लगीं- ‘देवगण! मैं आपके स्तवन से अत्यन्त सन्तुष्ट हुई, तुमने जो कुछ भी अभिलाषा की है, वह सब पूर्ण होगी।

तुमपर प्रथम तो कोई संकट आयेगा ही नहीं और कभी आयेगा भी तो मैं अपने दुर्गा रूप में तुम्हारे स्मरण मात्र से पहुँचकर रक्षा करूँगी।

अब आप सभी प्रसन्नतापूर्वक अपने- अपने स्थान को पधारें।

निश्चय ही मेरा अनुग्रह तुम सबके साथ है।’

अब पार्वती जी ने बालक को गोद में उठाया और उसे पुचकारती हुई प्रसन्न मन से अपने भव्य सिंहासन पर विश्राम करने लगीं और तब-

“शनिर्जगाम देवानां समीपं हृष्टमानसः।
प्रणम्य भक्त्या तां ब्रह्मन्नम्बिकां जगदम्बिकाम्॥”

प्रसन्न मन हुए शनिदेव माता जगदम्बा को प्रणाम करके अपने पिता सूर्यादि देवताओं के पास चले गये।


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