गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 7


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शिशु के धड़ पर हाथी का मस्तक जोड़ना

भगवान् श्रीहरि को हाथी के मस्तक सहित आते देखकर सब उपस्थित समुदाय ने खड़े होकर उनका स्वागत किया।

जब पार्वती जी को यह ज्ञात हुआ कि शिशु के धड़ पर हाथी का मस्तक जोड़ा जाएगा, तब वे अधिक व्याकुल होती हुई बोलीं- ‘जनार्दन! तुम मेरे पुत्र को निरा पशु ह्रबिना देना चाहते हो? अवश्य ही इसके वध में तुम्हारा ही हाथ रहा होगा, क्योंकि तुम किसी को सुखी नहीं देखना चाहते।

मेरे शिशु होने के समाचार से तुम्हें यह भय हुआ होगा कि कहीं बड़ा होकर मेरी पदवी न छीन ले।

इसीलिए शनैश्चर को साथ लेकर यहाँ आ गये।

फिर हमें अनुग्रहीता बनाने की दृष्टि से हाथी का मस्तक ले आये जिससे कि मेरा पुत्रयिशु और महामूर्ख बना रहे।

कहो, तुम्हारी चाल यही थी न, जो प्रायः सफल हो गई?’

गवान् मुस्कराए, तभी वहाँ खड़े हुए शनैश्चर ने कहा- ‘माता! अपकी अनुमान यथार्थ नहीं है।

भगवान् श्रीहरि तो शिव-सभा में बहुत पहले से विराजमान थे।

उनसे मेरी भेंट भी कभी नहीं हुई।

फिर, यह तो जौं कृष्णभी करते हैं, उसमें लोकहित ही निहित होता है।

तब यह किसी भरकावाशंका, पक्ष अथवा प्रमादवश भी ऐसा कर सकते थे?’

उर्मा बोलीं- ‘तू भी मिथ्या कह रहा है शनैश्चर! जब तू नीची दृष्टि किए इखने के कारण किसी की ओर देखता ही नहीं, तब तूने भगवान् श्रीहसिको वहाँ बैठे हुए किसी प्रकार देख लिया? इससे यही प्रतीत होता है।

कि मेरे पुत्र की हत्या के षड्यन्त्र में तुम भी सम्मिलित रहे हो और तुमने जान-बूझकर ही मेरे पुत्र को मार डाला है।’

शनिदेव ने अत्यन्त विनयपूर्वक कहा- ‘जगज्जननी! आप शंका मत करिए, चाहे मैं किसी ओर नहीं देखता, तो भी बोलचाल को सुनकर किसी को भी सरलता से पहिचान सकता हूँ।

आँखों से काम नहीं लेता तो क्या? मेरे कान ही समूचे दृश्य को मस्तिष्क तक पहुँचा देते हैं।

फिर भी पार्वतीजी को सन्तोष न हुआ जानकर भगवान् श्रीहरि ने समझाते हुए कहा – ‘देवि! मेरे बल-पराक्रम से अनभिज्ञ हो, इसलिए इस कार की बातें कर रही हो।

यदि मैं तुम्हारे बालक की हत्या करना चाहता तो प्रथम तो उसे प्रकट ही न होने देता और प्रकट हो भी जाता तो सभी के सामने सुदर्शन चक्र द्वारा ही सिर कटवा लेता।

विश्वास करो पार्वती! ऐसा गर्हित कार्य कभी मैं नहीं कर सकता।’फिर मेरा पद अक्षय है, उसका न कभी नाश होता है, न वह पराए हाथों में जा सकता है।

मेरे ही समान ब्रह्माजी और महादेवजी के भी पद में जिनके अधिकारी निरन्तर वही रहते हैं, कोई अन्य नहीं होता।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश यह तीनों ही परम शक्तिमान हैं जिनका कार्य क्रमशः सर्वोत्पत्ति, पालन और प्रलय है।

भला इन कार्यों को अन्य कोई करेगा भी तो कैसे?’

‘तुम्हारी अन्य आशंका यह है कि पुत्र के धड़ पर हाथी का मस्तक लग गया तो उसकी सुन्दरता नष्ट हो जायेगी, वह कुरूप और मूर्ख बन जायेगा।

इसलिए सभी उसका तिरस्कार करेंगे तो तुम्हारी शंका निर्मूल-सी है।

जब तुम्हारे पुत्र के धड़ पर हाथी का मस्तक लग जायेगा, तब तो वह अत्यन्त दिव्य और भव्य प्रतीत होगा।

उसकी सुन्दरता अद्वितीय एवं दर्शनीय होगी।

बस, ऐसा लगेगा कि कभी यह रूप देखा ही नहीं।’

‘उसका रूप अत्यन्त मनोहर रहने के साथ ही, उसमें अद्भुत बुद्धि रहेगी।

सुर, असुर, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, नाग एवं मनुष्यादि में कोई भी इसके जैसा बुद्धिमान् न होगा।

इसमें लोकोपकार करने की भी प्रबल शक्ति और सुमति होगी।

जब लोक इनकी महिमा को समझ जायेगा, तब इससे विद्या-बुद्धि की याचना करेगा।

यह अपने भक्तों को सदैव सन्तुष्ट करेगा और प्रथमपूजा का अधिकारी होगा।’

भगवान् श्रीहरि के तर्कसंगत वचन सुनकर देवी पार्वती चुप हो गईं, उन्होंने उत्तर नहीं दिया, क्योंकि उनका मन अभी शान्त नहीं हुआ था।

भगवान् ने उनका उत्तर प्राप्त हुए बिना ही हाथी के मस्तक को शुद्ध जल से स्वच्छ करके शिशु के धड़ पर रख दिया।

इसमें प्राणों का संचार हुआ और नेत्र खुल गये।

गजमुख हुआ बालक चारों ओर आँखें चलाता हुआ देखने लगा।

सभी उपस्थित नर-नारी प्रसन्न होकर “गजानन भगवान् की जय” बोलने लगे।


श्रीहरि द्वारा पार्वती को समझाना वर्णन

मन से या बेमन से माता को भी हर्ष व्यक्त करना पड़ा।

उनके स्तनों में दूध उतर आया तो वे गजमुख को गोद में लेकर स्तन-पान कराने लगीं।

परन्तु पार्वती के चित्त में उसके प्रति अधिक स्नेह जाग्रत न हुआ जानकर भगवान् श्रीहरि उन्हें पुनः समझाने लगे-

\”ब्रह्मादिकीटपर्यन्तं जगद्भु‌ङ्क्ते स्वकर्मणा।

जगद्बुद्धिस्वरूपासि त्वं न जानासि किं शिवे॥\”

‘चतुरानन ब्रह्माजी से कीट पर्यन्त यह सम्पूर्ण विश्व अपने ही कर्मानुसार भोगों को प्राप्त होता है।

हे शिवे! आप तो स्वयं ही इस जगत् के लिए बुद्धिस्वरूपा हो, अतः आप किस तथ्य से अनभिज्ञ हैं, अर्थात् सभी कुछ जानती हैं।’

‘अपने-अपने कर्मानुसार प्राणियों को सैकड़ों कल्प पर्यन्त भोग भोगना पड़ सकता है।

और इसी कारण शुभ-अशुभ कर्मों के वशीभूत हुए प्राणी प्रत्येक योनि में भोगों को निरन्तर प्राप्त करते रहते हैं।

हे सति! यह कर्म-फल का भोग ही है कि इन्द्र को भी कभी-कभी कीट-योनि में जन्म लेना होता है तथा कभी-कभी अत्यन्त तपस्वी पुरुष भी अपने शुभ कर्मों के कारण इन्द्रपद प्राप्त कर लेता है।’

गिरिजे! प्राक्कृत कर्म के बिना सिंह किसी मक्खी को भी नहीं मार सकता।

इसके विपरीत पूर्वजन्म के प्रथम कर्म के फलस्वरूप एक मच्छर भी हाथी को मार डालता है।

कर्मों के फल से ही सुख-दुःख, भय, शोक एवं आनन्द की प्राप्ति होती है।

शुभ कर्मों के फलस्वरूप सुख और हर्ष की तथा अशुभ कर्मों के वश स्वरूप दुःख-शोकादि की प्राप्ति होती है।

कर्मों के शुभ फल के उपार्जनार्थ भारत देश अत्यन्त योग्य एवं पुण्य क्षेत्र है।

अर्थात् इस देश की भूमि पर कर्म करने का फल शीघ्र ही उत्पन्न हो जाता है।’

‘गिरिराजनन्दिनि! भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मा के भी विधाता, काल के काल, निषेक के भी निषेककर्त्ता, कर्मफल के प्रदाता, संहारक के भी संहारक, पालनकर्त्ता के भी पालक, पर से परे तथा गोलोक के स्वामी हैं।

वही सबके नाथ एवं परिपूर्णतम ब्रह्म हैं।’

‘हम ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर सभी जिस पुरुष की एक कला मात्र हैं, उसी का एक अंश यह महाविराट् है।

उस महा विराट् के ही लोम-छिद्रों में यह समस्त विश्व समाविष्ट रहता है।

उसके कुछ कलांश धर्म में विद्यमान हैं तथा कुछ कलाओं के भी विभिन्न अंश होकर यह सम्पूर्ण जगत् बना है तथा बिना यज्ञ की स्थिति भी उसी में है।

इसलिए देवि! तुम सृष्टि के इस रहस्य को समझने की चेष्टा करो।

अपने चित्त में उत्पन्न हुई अशान्ति एवं तर्क-वितर्क को त्याग कर अपने पुत्र को सँभालो।

देखो, वह अत्यन्त प्रतापी एवं महिमावन्त है।’

भगवान् के उक्त वचन सुनकर पार्वती का चित्त कुछ स्वस्थ हुआ और तब उन्होंने श्रीहरि की स्तुति की- ‘प्रभो! आपकी माया बड़ी अद्भुत है, उसमें मैं तो क्या, शिवजी भी मोहग्रस्त हो जाते हैं।

यह मेरी कैसी मूर्खता थी कि आप तो मेरे पुत्र को जीवित करने के प्रयास में लगे थे और मैं मोह में पड़कर आपके प्रति अपशब्द कह रही थी।

‘हे जगन्नाथ! आप विशाल हृदय हैं, मुझ तुच्छ नारी के प्रति रोष को त्यागकर अनुग्रह कीजिए।

आपने मेरे पुत्र को जीवित करके मुझपर अत्यन्त अनुग्रह किया है, उसे मैं कभी भूल नहीं सकती।

हे दीनबन्धो! मुझ मूर्ख स्त्री को क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए प्रभो!’ विष्णु बोले- ‘देवि! मैं प्रसन्न हूँ तुम्हारी यश-वृद्धि हो और शिशु अमरत्व की प्राप्ति करे।

यह सभी देवताओं में अत्यन्त आदरणीय और सदैव प्रथम स्मरण के योग्य रहे।’


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