<< गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 5
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
शनि को पत्नी द्वारा शाप की प्राप्ति
अब आप एक अत्यन्त गोपनीय और महत्त्वपूर्ण इतिहास सुनिए।
यद्यपि वह न कहने योग्य इतिहास माता के समक्ष लज्जाजनक भी है तो भी उसे कहना होगा।
‘मातेश्वरि! मैं आरम्भ से ही भगवान् श्रीकृष्ण का भक्त रहा हूँ तथा मेरा मन सदैव उन्हीं भगवान् के चरणारविन्दों में लगा रहता था।
विषयों से विरक्त रहता हुआ मैं पूर्ण रूप से तपस्वी बन गया।
किन्तु, उस समय वह तपस्या समाप्त हो गई जब मेरा विवाह हो गया।’
तभी एक सखी बीच में ही बोल उठी ‘विवाह होने पर तो तपस्या का भंग होना स्वाभाविक ही था।
सभी की यही दशा होती है, तब तुम्हारी बात में क्या विशेषता है.?
शनि ने कहा- ‘विशेषता है तभी तो कह रहा हूँ।
उस विशेषता पर भी ध्यान दो।
मेरा विवाह चित्ररथ की अत्यन्त सुन्दरी, तेजस्विनी कन्या से हुआ था।
वह सती भी निरन्तर तपस्या में लगी रहती।
एक बार जब वह ऋतुस्नाता हुई तब उसने सोलहो श्रृंगार किए।
उस समय वह दिव्य अलंकारों से विभूषित और अत्यन्त शोभामयी लग रही थी।
उसके रूप और श्रृंगार दोनों ने मिलकर सोने में सुहागे का ही कार्य किया था।
उस समय उसका रूप मुनियों को भी मोहित कर लेने वाला बन गया।’
‘रात्रि होने पर वह मेरे पास उपस्थित हुई।
मैं भगवान् श्रीकृष्ण के ध्यान में तल्लीन था, इसलिए उसके आगमन पर भी मैंने ध्यान न दिया।
किन्तु, वह तो मदान्वित हो रही थी, कुछ तीखे स्वर में बोली- ‘स्वामिन्! मेरी ओर देखो तो सही।’
किन्तु मैंने उसकी ओर कुछ भी ध्यान न दिया।’
‘वह अपने चञ्चल नेत्रों से देख रही थी, किन्तु मेरी तल्लीनता भंग न हो पाई।
उसने अपने को असफल प्रयास देखा तो क्रोधित हो गई।क्योंकि उसका ऋतुकाल व्यर्थ हो रहा था।
क्रोध में भी उसने मुझे चैतन्य करने का भरसक प्रयत्न किया था।’
‘जब वह मेरा ध्यान भंग करने में सफल नहीं हो सकी तब सहसा कामवती कह बैठी-
“न दृष्टाहं त्वया येन न कृतमृतुरक्षणम्।
त्वया दृष्टञ्च यद्वस्तु मूढ! सर्वं विनश्यति॥”
‘अरे मूढ़! तूने मेरी ओर देखा तक नहीं, इस कारण मेरे ऋतुकाल की रक्षा नहीं हो सकी अर्थात् मेरा ऋतुकाल व्यर्थ ही जा रहा है।
इस कारण अब तू जिस किसी को भी देखेगा, वह अवश्य ही नष्ट हो जायेगा।”उसका शाप मेरे कानों में पड़ा जिससे मेरा ध्यान भंग हो गया।
नेत्र खोलकर देखा तो मेरी पत्नी ही खड़ी है।
वह उस समय अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हो रही थी।
सोचने लगा, यह तो मेरी पत्नी है, इसने मुझे ऐसा शाप क्यों दे दिया? वस्तुतः यह मेरी भूल भी है कि विवाह करके भार्या को सन्तुष्ट करने के अपने कर्त्तव्य से विमुख ही रहा।’
फिर सोचा- ‘यदि अब भी सन्तुष्ट कर लूँ तो शाप से बच सकता हूँ।’
ऐसा विचार दृढ़ करके मैंने शान्त करने का प्रयत्न किया- ‘देवि! प्राणप्रिये! मैं ध्यानावस्थित था।
इसी से तुम्हारी याचना नहीं सुन सका, अन्यथा तुम्हारी उपेक्षा कभी नहीं करता।
अब मुझे जो आज्ञा हो करने को तैयार हूँ।”इसी प्रकार मैंने उसे अनेक बार मनाया और जब वह शांत हो गई तब उसे काम्य प्रदान कर उससे शाप मिथ्या करने का आग्रह करने लगा।
परन्तु, अब ऐसी कोई शक्ति न रह गई थी, जो अपने शाप को वह नष्ट कर सकती।
शाप देने के कारण उसका पातिव्रत धर्म अशक्त हो गया था।
उसने बहुत पश्चात्ताप करते हुए कहा भी था कि ‘मुझसे बड़ी भूल क्योंकि उसका ऋतुकाल व्यर्थ हो रहा था।
क्रोध में भी उसने मुझे चैतन्य करने का भरसक प्रयत्न किया था।’
‘जब वह मेरा ध्यान भंग करने में सफल नहीं हो सकी तब सहसा कामवती कह बैठी-
“न दृष्टाहं त्वया येन न कृतमृतुरक्षणम्।
त्वया दृष्टञ्च यद्वस्तु मूढ! सर्वं विनश्यति॥”
‘अरे मूढ़! तूने मेरी ओर देखा तक नहीं, इस कारण मेरे ऋतुकाल की रक्षा नहीं हो सकी अर्थात् मेरा ऋतुकाल व्यर्थ ही जा रहा है।
इस कारण अब तू जिस किसी को भी देखेगा, वह अवश्य ही नष्ट हो जायेगा।”उसका शाप मेरे कानों में पड़ा जिससे मेरा ध्यान भंग हो गया।
नेत्र खोलकर देखा तो मेरी पत्नी ही खड़ी है।
वह उस समय अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हो रही थी।
सोचने लगा, यह तो मेरी पत्नी है, इसने मुझे ऐसा शाप क्यों दे दिया? वस्तुतः यह मेरी भूल भी है कि विवाह करके भार्या को सन्तुष्ट करने के अपने कर्त्तव्य से विमुख ही रहा।’
फिर सोचा- ‘यदि अब भी सन्तुष्ट कर लूँ तो शाप से बच सकता हूँ।’
ऐसा विचार दृढ़ करके मैंने शान्त करने का प्रयत्न किया- ‘देवि! प्राणप्रिये! मैं ध्यानावस्थित था।
इसी से तुम्हारी याचना नहीं सुन सका, अन्यथा तुम्हारी उपेक्षा कभी नहीं करता।
अब मुझे जो आज्ञा हो करने को तैयार हूँ।”इसी प्रकार मैंने उसे अनेक बार मनाया और जब वह शांत हो गई तब उसे काम्य प्रदान कर उससे शाप मिथ्या करने का आग्रह करने लगा।
परन्तु, अब ऐसी कोई शक्ति न रह गई थी, जो अपने शाप को वह नष्ट कर सकती।
शाप देने के कारण उसका पातिव्रत धर्म अशक्त हो गया था।
उसने बहुत पश्चात्ताप करते हुए कहा भी था कि ‘मुझसे बड़ी भूल हो गई, मैं चाहती हूँ कि मेरे द्वारा दिया गया शाप नष्ट हो जाये।’
‘किन्तु शाप नष्ट नहीं हुआ।
ऐसा ही समझता हुआ मैं उस दिन से किसी की भी ओर आँख उठाकर नहीं देखता।
क्योंकि आँख उठाकर देखने से न जाने किसका अहित हो जाये।
लोक-कल्याणार्थ ही मैं सब समय अपना मस्तक झुकाए रखता हूँ।
इसी कारण हे जगज्ञ्जननि! मैं आपको या आपके शिशु को नहीं देख सका था।
शनि को प्राप्त शाप और उसके कारण सदैव मुख को नीचे किये रहने की बात सुनकर पार्वतीजी हँस पड़ीं।
उनके साथ उनकी सभी सखियाँ, सभी दासियाँ, सभी अप्सराएँ सभी देवकन्याएँ भी हँस पड़ीं।
वह हँसी बहुत देर तक चलती रही।
बेचारे शनिदेव अपना मुख नीचे किये खड़े रहे।
यह कथा कहकर सूतजी कुछ देर के लिए चुप हो गये।
यह देखकर शौनक ने विनीत भाव से प्रश्न किया ‘फिर क्या हुआ सूतजी! यह उपाख्यान तो हमने आज तक नहीं सुना था।
इस प्रकार के गोपनीय रहस्यों को बताने में आप ही सक्षम हैं।
कृपा कर इसको पूर्ण करने का कष्ट करें।’
पार्वती ने शनि को पुत्र-दर्शन की आज्ञा दीं
सूतजी कुछ देर तक मौन रहने के पश्चात् बोले- ‘शौनक! बहुत देर तक हँसने के बाद माता पार्वती ने भगवान् श्रीहरि का स्मरण किया और फिर बोलीं- ‘ग्रहेश्वर! तुम्हें जो शाप मिला है, उसका नाश तो हो नहीं सकता, इसलिए जो परिणाम मिलता हो, उसके लिए तैयार रहना आवश्यक है।
परन्तु, मेरा विचार है कि उस शाप का प्रभाव हमपर नहीं होगा।
इसलिए तू मुझे अथवा मेरे पुत्र को देख।’
शनैश्चर बड़े असमञ्जस में पड़ गए इनमें से किसको देखूँ? अथवा किसी को देखूँ ही नहीं? यदि देखूँ तो कहीं कोई अनिष्ट न हो जाये? परन्तु न देखने पर भी अनिष्ट होना सम्भव है।
इसलिए शिशु को देख लेना चाहिए।
शनिदेव ने धर्म को साक्षी करके पार्वती-पुत्र को देखने का निश्चय किया।
परन्तु पार्वतीजी की ओर न देखना ही उचित होगा।
ऐसा निश्चय करके भी आशंका के कारण खिन्न मन वाले शनि के कण्ठ, ओष्ठ व तालु शुष्क हो गये।
फिर उन्होंने अपने मन को संयत करके अपने दायें नेत्र के कोने से शिशु के मुख की ओर देखा!
शनि की दृष्टि पड़ते ही शिशु का मस्तक छिन्न हो गया!
शनिदेव का उस शिशु को देखना था कि आशंका साकार हो उठी।
उनकी दृष्टि पड़ते ही शिशु का मस्तक छिन्न हो गया! यद्यपि शनि ने दाएँ नेत्र के कोण से शिशु की एक झलक ही देखी थी, तथापि शाप का फल न मिट सका।
बालक के मस्तकीय भाग से रक्त की अविरल धारा बह निकली।
पार्वती की गोद में रक्त-ही-रक्त दिखाई देता था।
परन्तु, वह छिन्न हुआ मस्तक अपने अभीष्ट गोलोक धाम में जाकर भगवान् कृष्ण के शरीर में प्रविष्ट हो गया।
उस विचित्र घटना से सभी व्याकुल हो गये।
देवी गिरिराजनन्दिनी तो अत्यन्त शोकाकुल हो गईं और रोते-रोते उन्हें मूर्च्छा ही आ गई।
जो महिलाएँ उनसे दूर स्थित थीं, वे उधर दौड़ पड़ीं।
अनेक स्त्रियाँ चित्र में बनाई जाने वाली के समान स्तम्भित-सी हुई सखियों ने पार्वती जी को जगाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु कोई सुपरिणाम न निकला।
भवन में होने वाले घोर कोलाहल को सुनकर नन्दीश्वर पता लगाने के लिए दौड़े और फिर लौटकर कहने लगे- ‘हे प्रभो! हे चन्द्रमौलि! भवन में बड़ी विचित्र दुर्घटना घट गई है।
शिशु के दर्शनार्थ आए हुए शनि ने ज्योंही बालक के दर्शन किए, त्योंही उसका मस्तक छिन्न होकर उड़ गया! बेचारा शनैश्चर दीन-हीन हुआ शिर झुकाए वहीं खड़ा है।’
नन्दी की बात सुनकर सभी उपस्थित समाज शोकग्रस्त हो गया।
भगवान् शंकर तो इतने व्याकुल हो गए कि उन्हें मूर्च्छा-सी आ गई।
गिरिराज हिमाचल, देवराज इन्द्र एवं सभी देव, ऋषि, गन्धर्व, किन्नरादि रोने लगे।
परन्तु भगवान् श्रीहरि ने तुरन्त ही गरुड़ का स्मरण किया और कुछ ही देर में गरुड़ आ उपस्थित हुए।
भगवान् श्रीहरि उसपर आरूढ़ होकर उत्तर दिशा की ओर चल पड़े।
श्रीहरि द्वारा गजराज का मस्तक काटना
पुष्पभद्रा नदी के तट के निकट ही भयंकर वन में एक गजराज अपनी सुघड़काय हथिनी के साथ सो रहे थे।
भगवान् श्रीहरि उसे देखते ही गरुड़ से उतरे और अपने सुदर्शन चक्र को प्रेरित कर गजराज का मस्तक काट दिया।
उस समय इतना भयंकर शब्द हुआ कि दशों दिशाएँ काँप उठीं।
उस शब्द ने सभी को जगा दिया।
हथिनी और उसके बच्चे गजराज की वह दशा देखकर चीत्कार करने लगे।
इधर भगवान् ने गजराज का रक्ताक्त मस्तक गरुड़ की पीठ पर रख दिया।
उसी समय हथिनी ने आकर गरुड़ का पंख पकड़ लिया और फिर श्रीकृष्ण पर वाग्वाणों का प्रहार करने लगी।
उसने कहा- ‘तुमने मेरे पति को क्यों मारा? अब उसके शिर को कहाँ लिये जाते हो? मुझे सब वृत्तान्त सत्य-सत्य बताओ, नहीं तो मैं तुम्हें शाप दूँगी।’
भगवान् बोले- ‘गजेश्वरि! शान्त होओ, मैं इसे मारना नहीं चाहता था।
अच्छा तो यही होता कि कोई अन्य जीव मारा जाता।
किन्तु विवशता यह थी कि मेरी दृष्टि में आने वाला प्रथम प्राणी यही था और जिर्स कार्य के लिए यह मारा गया, उसमें प्रथम दृष्टिगत प्राणी का शीश लेने कोही विधान है।’
हथिनी ने उत्कण्ठा से पूछा- ‘किन्तु, तुम्हें किसी प्रथम प्राणों के मस्तक की आवश्यकता ही क्यों हुई? यदि इसका कोई यथार्थ कारण न बता सकोगे तो मैं तुम्हें शाप देकर ही नष्ट कर डालूँगी।
इसलिए मेरे प्रश्न का उत्तर तुरन्त दो।भगवान् बोले- ‘पार्वतीजी के पुत्र का दर्शन करने के उद्देश्य से ग्रहेश्वर शनि उसके भवन में गये थे।
उन्होंने ज्योंही बालक पर एक दृष्टि डाली कि उसका मस्तक छिन्न होकर ऊपर की ओर उड़ गया।
इसके फलस्वरूप जगज्जननी पुत्र-वियोग के शोक में मूच्छित पड़ी हैं।हथिनी बोली-‘तो वह कौन-सा न्याय है कि एक शिशु की प्राण-रक्षा के लिए निरपराध गजराज की ही हत्या कर दी गई? सिर उड़ाना था तो शनैश्चर का ही उड़ाते।
क्योंकि वह दुष्ट सदैव ही लोक-विरुद्ध कार्य ही करता रहता है।’हथिनी को इस तर्क में सत्यता न लगी।
उसने कहा- ‘देव! तुमने ही उसे मारा है तो तुम ही उसे जीवनदान दे सकते हो।
यदि तुम किसी को जीवन प्रदान नहीं कर सकते तो उसके प्राण लेने का ही तुम्हें क्या अधिकार था? कहते हैं कि देवतागण तो किसी का सिर काटने पर अन्य का सिर लगाकर जीवित कर देते हैं।
मैं समझती हूँ कि मेरे पति का सिर भी तुम इसी कार्य के लिए ले जा रहे होगे।’
श्रीहरि बोले- ‘तुम यथार्थ कहती हो देवि! वस्तुतः किसी के प्राण लेने का अधिकार उसी को होना चाहिए जो उसे पुनः जीवन भी प्रदान कर सके।
अच्छा, तो मैं भी तुम्हें निराश नहीं होने दूँगा।
किसी अन्य देहधारी के मस्तक की खोज करता हूँ, उसे तुम्हारे पति के धड़ पर लगा दूँगा।’
हथिनी ने हठ किया- ‘तो मेरे पति का मस्तक ही इस धड़ पर लगा दो, पार्वती के पुत्र के लिए अन्य किसी का मस्तक लगा देना।
मैं समझती हूँ कि तुम मेरे साथ अन्याय न करोगे।’
भगवान् ने उसे समझाते हुए कहा- ‘देवि! यह मस्तक तो हमें नहीं मिल सकता।
क्योंकि प्रथम दृष्टिगत जीव का मस्तक लगाने से मृतक की जीवन-रक्षा हो सकती है।
तुम धैर्य रखो, मैं अभी किसी जीव को लाकर इसे पुनर्जीवित करता हूँ।
गजराज को पुनः जीवन-दान देना
हथिनी चुप हो गई।
भगवान् गरुड़ पर सवार हुए और कुछ ही दूर पर अन्य हाथी को देखकर उसका मस्तक काट लाये।
वह मस्तक गजराज के धड़ पर रख जोड़ दिया और अनुग्रह पूर्वक जीवनदान देकर बोले-‘उठो, गजराज! बहुत देर सो लिये।
अब निद्रा का समय निकल चुका है।’गजराज ने आँखें खोल कर सोते से जागते हुए के समान देखा।
भगवान् को देखकर उनके चरणों पर मस्तक रख दिया और स्तुति करने लगा- ‘प्रभो! आज मैं अत्यन्त धन्य हो गया।
जिन भगवान् श्रीहरि के दर्शन करोड़ों जन्म तपस्या करने पर भी नहीं होते, उनका सौभाग्य मुझे सहज में ही प्राप्त हो गया है-
\”शङ्खचक्रधरं देवं चतुर्बाहुं किरीटिनम्।
सर्वदिव्यायुधैर्युक्तं गरुडोपरि संस्थितम्॥\”
‘हे नाथ! आप चतुर्भुज, किरीटधारी, शंख चक्र आदि से समन्वित, समस्त दिव्य आयुधों से सुसज्जित तथा गरुड़ पर आरूढ़ होकर गमन करने वाले हैं।
आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है।
हे प्रभो! आपने मेरा मस्तक छिन्न किया, यह बड़े सौभाग्य की बात हुई।
साक्षात् आपके द्वारा घारा जाना तो निश्चय ही मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ का कारण होता है।
उससे निश्चय ही मुझे मोक्ष की प्राप्ति होती।
किन्तु अब पुनर्जीवन होने से मैं उस दुर्लभ मोक्ष से वञ्चित ही रह जाऊँगा।’
भगवान् ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘भक्तराज! तुम्हारा इच्छित अवश्य प्राप्त होगा।
तुम्हारी पत्नी पतिव्रता है।
इसी के अनुरोध से तुम्हें पुनर्जीवन की प्राप्ति हुई है।’
हथिनी ने भगवान् की स्तुति की- ‘प्रभो! उस शोकग्रस्त अवस्था में भुझसे जो भूल बन गई हो, उसे क्षमा करें।
उस समय आवेश में आकर मैं आप परमेश्वर के प्रति अनेक दुर्वचन प्रयोग में ला बैठी थी।’
भगवान् ने उसे भी मीठी वाणी से परितुष्ट किया और गरुड़ पर चढ़कर गजराज के काटे हुए मस्तक सहित कैलास की ओर मन के वेग समान चल दिए और शीघ्र ही जगज्जननी पार्वती जी के भव्य भवन में जा पहुँचे।