<< गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 4
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
गणपति के दर्शनार्थ शनिश्चर का कैलास जाना
सूतजी बोले- ‘हे शौनक! अब मैं एक अन्य उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसमें भगवान् महागणेश्वर के दर्शनार्थ शनिश्चर का आगमन हुआ था।
शनि ने सोचा- ‘दीर्घकाल से मैं उनके दर्शन से वञ्चित रहा हूँ इसलिए स्वयं ही कैलास-शिखर पर चलना चाहिए।
वहाँ शिव-शिवा के दर्शनों का लाभ सहज में ही हो जायेगा।’
ऐसा निश्चय कर शनिदेव ने कैलास की ओर प्रस्थान किया।
शिवजी की सभा लगी थी।
इधर-उधर अनेकानेक देवगण, ऋषिगण, सिद्धगण आदि बैठे हुए थे।
उस समय भगवान् शिवजी मध्य सिंहासन पर विराजमान थे।
साक्षात् भगवान् श्रीहरि और ब्रह्माजी भी उस समाज में उपस्थित थे।
ब्रह्माजी के सामने समस्त लोकों का साक्षी धर्म मूर्तिमान खड़ा था।
उसी समाज में देवराज इन्द्र भी एक श्रेष्ठ आसन पर आसीन थे।
पार्वती जी के पिता हिमाचल भी पधारे हुए थे और अनेक शिवगण उनके सत्कारादि में लगे हुए थे।
सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही इधर-उधर बैठे हुए उस समय प्रकाश फैला रहे थे।
Shree Ganesh-Puraan – Ganapati Ke Darshanaarth Shanishchar Ka Kailaas Jaana
“ननर्त्त नर्त्तकश्रेणी जगुर्गन्धर्वकिन्नराः।
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं तुष्टुवुः श्रुतयो हरिम्॥”
नृत्य करने वालों की मण्डलियाँ नृत्य में तत्पर थीं।
गन्धर्वगण और किन्नरगण गायन-वादन कर रहे थे।
श्रुतियाँ सुनने में सारभूत एवं सुरदायक भगवान् श्रीहरि के स्तवन में निमग्न थीं।
इस प्रकार कैलास-शिखर पर आनन्द-उत्सव मनाया जा रहा था।
ऐसे ही समय में भगवान् सूर्यदेव के प्रतापी पुत्र ग्रहेश्वर शनिदेव का वहाँ आगमन हुआ।
वह सूर्य-पुत्र सदैव अपने कार्य में निरत, सतत गतिशील एवं महायोगी माने जाते हैं।
हे मुने! उस समय कैलास पर आते हुए ग्रहेश्वर शनि अत्यन्त विनम्र सात्विक मूर्ति एवं नत मस्तक थे।
उनके नेत्र प्रभु के ध्यान में मुँदे हुए थे।
मन में भगवान् सर्वेश्वर श्रीहरि का नाम जप चल रहा था।
लगता था कि कोई तपस्वी महामुनि चले आ रहे हैं, जिनके शरीर का वर्ण काला होते हुए भी मुखमण्डल अग्नि के समान तेजस्वी प्रतीत होता था।
शरीर पर सुन्दर रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे तथा उनकी चाल सीधी और मन्द थी।
धीरे-धीरे शनिदेव भगवान् शङ्कर के समक्ष पहुँचे और सभी उपस्थित देवताओं, प्रमुख मुनियों, सिद्धों, लोकपालों आदि के साथ उन्हें प्रणाम किया तथा आज्ञा पाकर एक ओर बैठ गये।
परन्तु वहाँ के नृत्य-गानादि में उनका मन नहीं लगा।
सोचा, यहाँ बैठकर मुझे क्या करना है? आनन्द-उत्सव में भाग लेकर आनन्दित होना मेरा कार्य नहीं।
जिस कार्य से आया हूँ, वही किसी प्रकार से पूर्ण होना चाहिए।
शनिदेव ने उठकर भगवान् आशुतोष का स्तवन किया और बोले- ‘प्रभो! मैं भगवान् गणेश्वर के दर्शन चाहता हूँ।
इसके लिए मुझे आज्ञा दी जाए।’
शनिदेव की इच्छा देखकर प्रमुख मुनियों और विष्णु आदि देवताओं ने भी भगवान् शङ्कर से अनुरोध किया कि ‘शनिदेव को गणेशजी के दर्शन की सुविधा अवश्य प्रदान की जाए।’
पार्वतीनाथ मुस्कराये, बोले- ‘गणेश्वर के दर्शन करने हैं तो गिरिराजनन्दिनी के पास जाओ वत्स! वह वहीं, उन्हीं के पास खेल रहा होगा।’शनि ने पूछा- ‘माता पार्वती जी इस समय कहाँ होंगी चन्द्रशेखर! मुझे वहाँ भेजने की व्यवस्था कीजिए प्रभो!’ भगवान् शङ्कर ने नन्दी को संकेत किया तो नन्दी ने शनिदेव को अपने पास बुलाकर धीरे से कहा- ‘शनैश्चर! समाज की शान्ति भंग मत करो।
चुपचाप मन्द गति से पार्वतीजी के भवन पर जा पहुँचो।
वहाँ द्वार पर कोई होगा, वह तुम्हें भीतर पहुँचा देगा।
परन्तु देखो, वक्रगति से न जाना वहाँ।’
शनैश्चर मन-ही-मन हँसे।
सोचा- यहाँ परमधाम में भी मेरा वक्रगति का ऐसा भय समाया हुआ है? फिर प्रकट में नन्दीश्वर से बोले- ‘नहीं प्रभो! यहाँ ऐसी धृष्टता कैसे कर सकता हूँ? कृपया मुझे यह स्थान तो बताइये जहाँ जगज्जननी का भवन विद्यमान है।’
नन्दीश्वर हँसे, फिर बोले- ‘शनिदेव! तुम्हारी दृष्टि से कोई स्थान बचा हो, यह मैं नहीं समझता।
घूम-फिरकर तुम सभी स्थानों का निरीक्षण-परीक्षण कर लेते हो, तब जगज्जननी पार्वती जी का भवन तुम्हारी दृष्टि की पहुँच से कैसे बचा रहा?’शनिदेव ने भी हँसकर उत्तर दिया- ‘यहाँ सभी की दृष्टि कुण्ठित हो जाती है नन्दीश्वर! मायामय एवं मायातीत भगवान् शङ्कर की उस महामाया का पार कौन पा सकता है? अब आप कृपा करके मुझे वह स्थान बता दें तो मैं वहाँ पहुँचूँ।’नन्दीश्वर ने कहा- ‘अरे, वह सामने ही तो माता गिरिजा का भवन दिखाई दे रहा है।
देखो, वहाँ वे विशालाक्ष भगवान् द्वारपाल बने हुए द्वार पर खड़े हैं।’
विशालाक्ष का शनिश्चर को रोकना
शनिश्चर ने वहाँ से उठने का उपक्रम किया और भवन की ओर चले।
वास्तव में वहाँ एक अत्यन्त सुन्दर एवं भव्य भवन अवस्थित था।
उसके चारों ओर असंख्य प्रमथगण विद्यमान थे।
भवन के मुख्य द्वार पर अन्य गणों के अतिरिक्त एक विशाल नेत्र वाला सुन्दर पुरुष हाथ में त्रिशूल लिये हुए खड़ा था।
शनिदेव धीरे-धीरे उधर ही चल पड़े।
किन्तु भवनादि को न देख सके।
शनिदेव को आते देखकर विशालाक्ष तन कर खड़े हो गये।
शनि ने देखा कि शिवजी के ही समान रूप, शील, बल वाला, विशालाक्ष त्रिशूल ताने खड़ा है तो दूर से ही बोले-
“शिवाज्ञया शिशुं द्रष्टुं यामि शङ्करकिङ्कर!।
विष्णुप्रमुखदेवानां मुनीनामनुरोधतः॥”
‘हे शिवजी के सेवक! विशालाक्ष! मैं देवताओं में प्रमुख भगवान् विष्णु तथा मुनिगणों के अनुरोध से प्राप्त शिवाज्ञा के अनुसार ही शिशु के दर्शनार्थ यहाँ उपस्थित हुआ हूँ।’विशालाक्ष ने शनैश्चर के निवेदन पर ध्यान नहीं दिया।
यह देखकर उन्होंने पुनः कहा- ‘हे बुद्धिमान! हे वीर! आप कृपया मुझे जगज्जननी पार्वती जी के पास न जाने दें।
मैं केवल बालक के दर्शन करके ही वापस लौट जाऊँगा।’शनि की विनम्र प्रार्थना सुनकर भी उन्हें भीतर नहीं जाने दिया।
वे बोले-‘मैं न तो देवताओं की आज्ञा का वहन करने वाला हूँ और न शिवजी का ही सेवक हूँ।
जो देवताओं का दास, विष्णु का पार्षद या शिव का किङ्कर हो, उससे कहो।’
शनिदेव बड़े असमञ्जस में पड़े।
उन्होंने सोचा-‘अब क्या किया जाए? कोई सामान्य पुरुष होता तो मैं उसे दृष्टिमात्र से तुरन्त पीड़ित कर एक ओर डाल देता।
परन्तु, यह तो अद्वितीय पुरुष जान पड़ता है, जो शिवजी और बैकुण्ठनाथ विष्णु को भी कुछ नहीं समझता।
इसलिए इसके प्रति अधिक विनम्रता का व्यवहार करना होगा।’
ऐसा निश्चय कर शनैश्चर ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और
बोले- ‘प्रभो! मैं आपके पद, पराक्रम और अधिकार से अनभिज्ञ था।
इसी से ऐसा कह बैठा।
अब आप मेरे अपराध को क्षमा कर दें अन्यथा मेरा यहाँ तक आने का परिश्रम तो विफल होगा ही, आशा पर भी तुषार- पात हो जाएगा।
अतएव कृपा कीजिए प्रभो! प्रसन्न हो जाइए नाथ!विशालाक्ष प्रसन्न हो गये।
उन्होंने पूछा- ‘तुम कौन हो? बालक के दर्शन की इतनी उत्कण्ठा क्यों है तुम्हारे मन में? इन प्रश्नों का उत्तर मिलने पर ही कुछ प्रयास किया जा सकता है।’
शनैश्चर ने कुछ विचार कर कहा- ‘नाथ! मैं सूर्य-पुत्र शनि हूँ।
अपनी कल्याण-कामना से भगवान् शङ्कर के दर्शनार्थ आया था, साथ ही जगज्जननी और बालक के दर्शन की भी परम अभिलाषा थी।
भगवान् के दर्शन तो हो गये, माता और बालक के दर्शन शेष हैं, जो आपकी कृपा से ही हो सकते हैं।’
विशालाक्ष बोले- ‘ग्रहेश्वर! माता की आज्ञा के बिना तुम्हें भीतर जाने देना मेरे लिए सम्भव नहीं है।”तो प्रभो!’ शनिदेव ने गिड़गिड़ाते हुए निवेदन किया- ‘मैं यहाँ खड़ा हूँ, आप जगज्जननी गिरिराजनन्दिनी के पास जाकर आज्ञा ले आने की कृपा कीजिए।’विशालाक्ष ने कुछ दृढ़ता से कहा- ‘तुम्हारा अनुरोध मानकर मैं भीतर जाता हूँ, पर कहीं तुम भी मेरे पीछे-पीछे न चले आना।
जब तक मैं न लौदूँ तब तक यहीं खड़े मिलना।’
उन्होंने विश्वास दिलाया ‘निश्चिन्त रहें प्रभो! मैं यहीं खड़ा हुआ आपकी प्रतीक्षा करूँगा।
भला आप जैसे उपकारी देव की आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकता हूँ?’विशालाक्ष उन्हें द्वार पर खड़ा करके भीतर चले गये और जगज्जननी को प्रणाम कर बोले- ‘माता! आपके और शिशु के दर्शन की इच्छा से ग्रहेश्वर शनि सेवा में उपस्थित होना चाहते हैं।’
पार्वती की आज्ञा से शनि का अन्तःपुर में प्रवेश वर्णन
पार्वती जी ने कहा- ‘उसे आने दो वत्स! वह भी सदैव आज्ञा में चलने वाला श्रेष्ठ अनुचर है।’
विशालाक्ष ने द्वार पर लौटकर कहा- ‘ग्रहेश्वर! तुम माता की सेवा में उपस्थित हो सकते हो।’यह कहकर उन्होंने मुख्य द्वार को कुछ खोल दिया।
आज्ञा मिलने से हर्षित हुए शनिदेव भीतर पहुँचे और जगज्जननी उमा को देखते ही उन्हें प्रणाम कर स्तुति करने लगे।
माता एक अत्युच्च रत्नमणि जटित स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हैं।
उनके चारों ओर असंख्य देवियाँ खड़ी थीं।
पाँच प्रमुख सखियाँ श्वेत चामरों द्वारा निरन्तर उनकी सेवा कर रही थीं।
कुछ अन्य सखियाँ ताम्बूल भेंट कर रही थीं तो कुछ सुगन्धित द्रव्य अर्पण कर रही थीं।
माता ने अपनी देह पर अग्नि के समान तेजस्वी वस्त्र धारण किए हुए थे।
गले में स्वर्ण-रत्नादि के दिव्य हार, हाथों में कङ्कणादि आभूषण,भुजदण्ड पर बाजूबन्द, कमर में रत्नजटित श्रृंखला, चरणों में नूपुर सुशोभित थे।
अद्भुत रूप-राशिमयी वे माता अपने तेज से ही समस्त भवन को प्रकाशित किए हुए थीं।
उनकी गोद में अद्वितीय शिशु विद्यमान था।
उनके समक्ष अप्सराएँ और देवांगनाएँ नृत्य कर रही थीं।
किन्नरियाँ और गन्धर्वनियाँ गायन-वादन में तल्लीन थीं।
इस प्रकार भवन में अद्वितीय आनन्दोत्सव मनाया जा रहा था।
वातावरण सर्वत्र शांन्त था।
समस्त नारी-समाज रस-विभोर हो रहा था।
परन्तु, सिर नीचा किए रहने के कारण वह कुछ भी न देख सके।
सूर्यपुत्र शनि को अपने चरणों में दण्डवत् करते देखकर माता प्रसन्न होती हुई बोलीं- ‘शनैश्चर! वत्स! मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ।
तुम निरन्तर लोक-कल्याणार्थ गतिशील रहते हो, अतः आयुष्मान् रहकर अपने कार्य का निर्वाह करते रहो।
बोलो, और क्या चाहते हो? मैं तुम्हारी अभिलाषा सुनना चाहती हूँ।
यदि कुछ इच्छा हो तो वर माँग सकते हो।’शनिदेव ने कहा- ‘जगज्जननी! मैं आपके शिशु-दर्शन की कामना से यहाँ उपस्थित हुआ हूँ।
आप मेरी यह इच्छा पूर्ण करने की कृपा करें।’
उमा ने कहा- ‘वत्स! शिशु तो मेरी गोद में ही है, मेरे दर्शन के साथ उसके दर्शन भी सहज रूप से हो रहे हैं।
अब और जो कुछ चाहते हो वह भी कहो।!’शनैश्चर ने निवेदन किया- ‘मातेश्वरी! संसार में तप ही प्रधान कर्म है।
सभी प्राणी अपने-अपने कर्म रूप तप का ही फल भोगते हैं।
शुभ या अशुभ कोई भी कर्म किसी भी कल्प में लुप्त नहीं होता।
अपने ही कर्म-फल रूप में उसे देवता, दैत्य, गन्धर्व, किन्नर आदि योनियों की प्राप्ति होती है।
कर्मफल से ही जीव इन्द्रादि की पदवी प्राप्त कर लेता अथवा ब्रह्मा प्रभृति रूप ग्रहण कर लेता है।
कर्म ही उसे पशु, पक्षी, कीड़ा-मकोड़ा आदि का जन्म धारण कराते हैं।’
‘कर्म ही मनुष्य-देहधारी को राजा, राज-मन्त्री, सेनापति, आचार्य आदि बना देता है।
उसी से राजा के घर में जन्म की प्राप्ति होती है।
कर्म ही नीच-ऊँच जाति, व्याधि, विपत्ति आदि में कारण होता है।
कर्म ही तिर्यक् योनियों में डालता है, वही जीव को वृक्षादि के रूप में डाल देता है।
कर्म ही अल्प आयु या दीर्घ आयु में भी कारण है।
वही जीव को चिन्ता में डालता और वही सभी चिन्ताओं से उबारने में समर्थ होता है।’
‘कर्म का फल ही मनुष्य को धनवान् बनाता और उसी से अपनी गाँठ का धन भी निकल जाता है।
कर्म से ही मनुष्य को भाई, सन्तान एवं स्त्री आदि की प्राप्ति होती है।
विषयों में आसक्ति अथवा अनासक्ति भी कर्म का ही फल समझो।
यश-अपयश, हानि-लाभ, जीवन-मरण आदि की प्राप्ति भी किए हुए कर्मों से ही होती है।
सभी जानते हैं कि शुभ कर्म से शुभ फल की जीव को जो कुछ भी प्राप्ति, अप्राप्ति या कुप्राप्ति होती है, उस सबका कारण पूर्वकृत कर्म ही अधिक मान्य है।
वर्तमान में किए जाने वाले कर्मों का फल शीघ्र मिल सकता है, किन्तु उनमें जो अधिक गर्हित होते हैं, उनका फल देर से ही अधिक मिलता है।
यदि वर्तमान जीवन में उनका भोग किसी कारणवश प्राप्त नहीं होता तो वह अगले जन्म में भोगना होता है।
‘हे शिवबल्लभे! यह सब तो मैंने प्राक्कथन रूप में संक्षेप में ही कह दिया है।
वस्तुतः आप स्वयं ही कर्मफलादि के विषय में सब कुछ जानती हैं।
इसलिए मेरी उक्त बातों का आपके समक्ष कोई अर्थ नहीं है।
फिर भी, किसी प्रसंग को प्रस्तुत करने के लिए उसका पूर्व रूप भी कहना होता है।’