गणेश पुराण – तृतीय खण्ड – अध्याय – 2


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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


गिरिजा द्वारा पुण्य-व्रत का अनुष्ठान करना

भगवान् शङ्कर की आज्ञा सुनकर गिरिजानन्दिनी अत्यन्त आनन्द में मग्न हो गईं और पुण्यक-व्रत का अनुष्ठान आरम्भ करने के लिए आवश्यक सामग्री एकत्र करने लगीं।

तभी भगवान् आशुतोष की आज्ञा से अनेकानेक ब्राह्मण, भृत्य एवं गण वहाँ आ उपस्थित हुए।

माघ मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी आने पर उन्होंने शुभ मुहूर्त में व्रत का आरम्भ किया।

उसी अवसर पर ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार, सपत्नीक चतुरानन एवं पार्वततीपति भगवान् शङ्कर भी वहाँ आ गए।

भगवान् विष्णु भी अपनी प्रियतमा लक्ष्मीजी के सहित वहाँ पधारे।

साथ में उनके पार्षदगण भी थे।

तदनन्तर सनक, सनन्दन, सनातन, कपिलदेव, धर्मपुत्र नर-नारायण तथा समस्त प्रसिद्ध एवं दिव्य ऋषि-मुनि भी वहाँ समुपस्थित हो गये।

समस्त प्रमुख देवता, यक्ष, नाग, किन्नर आदि तथा सभी दिक्पाल एवं पर्वतराज हिमालय भी अपनी पत्नी, पुत्रादि के साथ वहाँ आ गए।

उनके साथ धरती में उत्पन्न होने वाले रत्न, मणि आदि अनेक दुर्लभ पदार्थ थे।

एक लाख गज-रत्न, तीन लाख वरद-रत्न, दस लाख गो-रत्न, एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ, चार लाख मोती, एक हजार कौस्तुभ-मणियाँ तथा अत्यन्त स्वादिष्ट मिष्ठान्नों एवं पक्वान्नों के एक लाख भाग भी उनमें सम्मिलित थे।

साथ ही, अन्यान्य व्रतोपयोगी वस्तुएँ भी वे शैलराज ले आये थे।

मनु, मुनि, ब्राह्मण, विद्याधर आदि के भी अनेकानेक समुदाय उस व्रतायोजन के आरम्भ में ही वहाँ आकर ठहर गये।

संन्यासी, भिक्षुक एवं वन्दीगणों की संख्या भी कम नहीं थी।

संसार में विद्यमान प्रमुख योनियों के करोड़ों प्राणी उस उत्सव को देखने के लिए वहाँ आ उपस्थित हुए थे।

कैलास पर्वत की उस समय की शोभा देखने योग्य थी।

राजमार्ग को झाड़-बुहार कर स्वच्छ किया गया था और उसपर चन्दन मिश्रित द्रव्य का छिड़काव किया गया था।

भगवान् शङ्कर का भवन पद्मराग मणियों द्वारा बना था, जिसमें सर्वत्र बन्दनवार बँधे थे और वह अनेक प्रकार से सजाया गया था।

उसमें धान्य, लाजा, फल, दूर्वा, पुष्प एवं कदली वृक्ष की अद्भुत चित्रकारी की गई थी।

उस विचित्र शोभा को देखकर सभी आश्चर्यचकित हो रहे थे।

सर्वत्र प्रसन्नता का वातावरण व्याप्त था।

जन-जन में आनन्द और उल्लास भरा था।

लगता था, जैसे परमानन्द मूर्तिमान होकर साक्षात् नृत्य कर रहा है।

भगवान् शङ्कर स्वयं भी समागत व्यक्तियों का अभिनन्दन और समर्चन कर रहे थे।

जो जिस योग्य था, उसके लिए उसी के अनुरूप निवास और परिचर्या आदि की व्यवस्था की गई।

भोजनादि का प्रबन्ध भी सर्वोत्तम था।

शिवजी के समस्त गण उस उत्सव को अत्यन्त शोभनीय बनाने में तत्पर थे।

सृष्टि-स्थिति-संहारकारिणी जगदम्बा पार्वती जी के व्रतानुष्ठान में दीक्षित होने के अवसर पर देवराज इन्द्र दानाध्यक्ष, धनेश्वर कुबेर धनाध्यक्ष तथा भगवान् भास्कर कार्याध्यक्ष के पद पर विराजमान हुए।

वरुणदेव को भोजनाध्यक्ष बनाया गया, जिनका कार्य पाकशाला और भोजनशाला दोनों पर निगरानी रखना था।

सामग्री-भण्डार में गेहूँ, चावल, दाल, जौ, तिल आदि अनाज समा नहीं रहे थे।

बाहर अनेक स्थानों पर उनके ढेर लग गये तथा दूध, दही, घृत, तैल आदि की तो मानो नदियाँ ही प्रवाहित होने लगीं।

गुड़, शर्करा आदि के पर्वत तुल्य अनहित ढेर लगे थे।

रजत और स्वर्ण से धरती लिप गई, जिस पर मणि, रत्न आदि के अनेकानेक ढेर लगते जा रहे थे।

तैयार भोजन-सामग्री भी गिरि-शिखर के समान ऊँचे-ऊँचे ढेरों में रखी थी।

जिसे, जब, जिस वस्तु की आवश्यकता हो, वह तभी बिना किसी रोक-टोक के स्वयं ही प्राप्त कर सकता था।

उस सामग्री के अतिरिक्त विशिष्ट समागतों के लिए रसोई तैयार कराने का कार्य-भार सिन्धुतनया लक्ष्मीजी ने अपने हाथ में लिया तथा अनेक प्रकार के सुन्दर, सुस्वादु व्यञ्जन तैयार किए गये।

उस भोजन को परोसने का कार्य एक लाख ब्राह्मण कर रहे थे।

अनेक प्रमुख देवताओं तथा देवराज इन्द्र आदि के साथ उस समय स्वयं भगवान् नारायण रुचिपूर्वक भोजन कर रहे थे।

देवता दिव्य ऋषि-मुनि आदि के भोजन से निवृत्त होने पर सभी एक विशाल वितान के नीचे बैठे।

वहाँ बैठने के लिए सुन्दर, कोमल मखमली गद्दे बिछाये गये थे।

पदानुसार बैठने की व्यवस्था थी।

भगवान् नारायण के लिए एक सुन्दर, दर्शनीय भव्य रत्न-सिंहासन था, जिसपर वे विराजमान थे।

उनके सब ओर प्रमुख देवता एवं ऋषिगण स्थित थे।

उनके तेजस्वी पार्षदगण उनपर चॅवर डुला रहे थे, उस समय सिद्ध, चारणादि उनका स्तवन करने लगे।

गन्धर्वों ने श्रुतिमधुर गीतों का आरम्भ किया।

चतुर ब्राह्मणों ने भगवान् को सुगन्धित ताम्बूल दिया।

उसी समय चतुरानन की प्रेरणा पर भगवान् शंकर ने हाथ जोड़कर उनसे निवेदन किया- ‘हे जगदीश! भक्तों की कामना के कल्पतरु नाथ! मेरी प्रार्थना श्रवण कीजिए।

हे प्रभो! गिरिराजनन्दिनी आज उत्तम व्रत का आरम्भ करना चाहती है।

उसे श्रेष्ठ पुत्र एवं पति-सौभाग्य की कामना है।

आप सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी एवं समस्त कर्म फलों के देने वाले हैं, अतएव परम मंगलकारिणी आज्ञा प्रदान करने की कृपा करें।’

तदुपरान्त पार्वतीपति ने उनका अनेक प्रकार से स्तवन किया और फिर ब्रह्माजी के मुख की ओर देखते हुए मौन खड़े हो गये।

यह देखकर भगवान् लक्ष्मीनाथ ने गम्भीर वाणी में कहा- ‘गिरिजानाथ! आपकी धर्मपत्नी पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्य से जिस पुण्यक-व्रत का आरम्भ करना चाहती है, वह व्रतराज समस्त व्रतों का सारभूत एवं समस्त अभीष्ट फलों के प्रदान करने में समर्थ, समस्त सुखों और कल्याणों को देने वाला तथा अन्त में मोक्ष का दाता है।

इसके अनुष्ठान से हजारों राजसूय यज्ञों का पुण्य सहज में ही प्राप्त हो जाता है।

‘त्रिनेत्र! इस व्रत के अनुष्ठान में हजारों राजसूय यज्ञों के समान ही साधन जुटाने में धन का व्यय होता है।

इसलिए इसे सामान्य साध्वी स्त्रियाँ नहीं कर सकतीं।

परन्तु साध्वी शिवा इसके करने में सहज समर्थ हैं, इसलिए उन्हें यह अवश्य करना चाहिए।

इसके प्रभाव से उनके अङ्क में भगवान् गोलोकनाथ साक्षात् क्रीड़ा करेंगे।

वे ‘गणेश’ नाम से अवतार लेंगे, जिनके स्मरण मात्र से ही समस्त विघ्नों का नाश हो जायेगा।’

भगवान् रमानाथ के कृपापूर्ण वचन सुनकर भगवान् वृषभध्वज प्रसन्न हो गए।

उनका हृदय गद्गद हो गया।

तदुपरान्त वे वहाँ से उठकर अन्तःपुर में गए और गिरिराजनन्दिनी को भगवान् नारायण के कहे हुए वचन सुनाये।

इससे शैलपुत्री भी अत्यन्त प्रसन्न हुईं।

तभी व्रतारम्भ का शुभ मुहूर्त आ गया।

पार्वती जी के व्रतारम्भ काल में भगवान् शिव की प्रेरणा से अनेक प्रकार के दिव्य बाजे बजने लगे।

तभी शैलनन्दिनी ने पवित्र गङ्गाजल से स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण किए और विप्रों ने पूजा-विधि का आरम्भ किया।

चावलों पर विधिपूर्वक रत्न मणि-मण्डित स्वर्ण कलश स्थापित किया गया और तब श्रेष्ठ मुनियों एवं पुरोहित को रत्नमय सिंहासनों पर बैठाकर उनका पूजन किया गया।

फिर आदिदेव गणेश्वर की पूजा के पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश का पूजन किया गया।

तदुपरान्त स्वस्तिवाचन, पुण्याहवाचन, मातृका पूजन आदि के साथ ही व्रत का आरम्भ किया।

मङ्गल कलश पर गोलोकनाथ परब्रह्म श्रीकृष्ण का आवाहन कर षोड़शोपचार से उनका अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजन में त्रैलोक्यदुर्लभ पदार्थ अर्पण किये गये।

तदुपरान्त पुष्पांजलि एवं भावाञ्जलि समर्पण के साथ स्तवन किया।

तदनन्तर तिल-घृत की तीन लाख आहुतियों से शिवप्रिया ने हवन किया और फिर ब्राह्मणों, मुनियों, देवगणों एवं अतिथियों आदि को विविध प्रकार सुस्वादु दिव्य व्यञ्जनों से भोजन कराया और विप्रों को स्वर्णादि की दक्षिणाएँ दीं।

सभी पार्वती जी की प्रशंसा करने लगे।

चारणादि ने शिव-शिवा का यशोगान किया तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं।


व्रत की समाप्ति, पुरोहित का दक्षिणा याचना

इस प्रकार परम साध्वी गिरिराजनन्दिनी ने पुण्यक-व्रत का आरम्भ किया और एक वर्ष तक जब-जब जिस-जिस नियम का पालन करने का विधान था, तब-तब उस-उस नियम का निष्ठापूर्वक पालन करती रहीं।

धीरे-धीरे दिन खिसकते गये और व्रत पूर्ण होने के दिन निकट आते गये।

अन्तिम पन्द्रह दिनों में निराहार रहने के पश्चात् व्रत पूर्ण रूप से सम्पन्न हो गया।

व्रत समाप्त होने पर पुरोहित ने कहा- ‘सुव्रते! आपका व्रत पूर्ण हो गया।

अब मुझे दक्षिणा दीजिए।’

पार्वती जी ने कहा- ‘द्विजवर! आज्ञा कीजिए कि आपको दक्षिणा में क्या दूँ? मैं आपको इच्छित दक्षिणा दूँगी।

ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आपको न दी जा सके।’

‘देवि!’ पुरोहित ने कुछ हिचकते हुए कहा- ‘मेरी माँग आपको कुछ अटपटी-सी लगेगी, इसलिए सोचता हूँ कि दक्षिणा लूँ ही नहीं।

किन्तु एक द्विविधा यह भी है कि दक्षिणा न लेने से व्रतानुष्ठान का जो फल मिलना चाहिए, वह मिलेगा या नहीं?

गौरी ने कहा- ‘पुरोहितजी! कार्य की सम्पन्नता-स्वरूप दक्षिणा का दिया जाना आवश्यक होता है।

फिर जो लोग देने में समर्थ न हों, उनकी बात दूसरी है, मैं तो अभीष्ट दक्षिणा देने में समर्थ हूँ, तब न देने से कार्य की पूर्ति कैसे होगी?’

पुरोहित बोले- ‘देवि! मैं इसीलिए नहीं माँगना चाहता कि कहीं आप दक्षिणा दे ही न सकें।

फिर भी आपका आग्रह है तो निवेदन करता हूँ-मैं आपके पति भगवान् वृषभध्वज को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूँ।

आप उन्हीं को दक्षिणा में दे दें।’

पार्वतीजी को ऐसी दक्षिणा माँगने की आशा नहीं थी।

भगवान् त्रिलोचन उनके प्राणाधार हैं, भला वह उन्हें किसी को कैसे दे सकती हैं? फिर पुरोहित उन्हें लेकर करेंगे भी क्या? नहीं, ये पागल तो नहीं हो गये हैं वह? शैलपुत्री पुरोहित की माँग पर रह-रहकर विचार करती हुई व्याकुल हो रही थीं।

उनका समस्त आनन्द-उल्लास लुप्त हो गया और वे रोती-रोती मूच्छित होकर वहीं गिर गईं।

मोहनाशिनी पराम्बा को मोह-विवश एवं मूच्छित हुई देखकर समस्त उपस्थित समाज हँसने लगा।

भगवान् विष्णु, कमलासन ब्रह्मा एवं दिव्य ऋषिमुनियों को भी हँसी आ गयी।

तभी भगवान् श्रीहरि की प्रेरणा से उमानाथ अपनी प्राणप्रिया के पास पहुँचकर उन्हें सचेत करते हुए बोले- ‘गिरिराजनन्दिनि! उठो, पुरोहित को अभीष्ट दक्षिणा देने से अवश्य ही तुम्हारा मङ्गल होगा।

देखो, देवकार्य, पितृकार्य एवं नित्यनैमित्तिक कर्म भी यदि दक्षिणा-रहित होता है तो फल-रहित हो जाता है।

उसके कारण कर्म-कर्त्ता को कालसूत्र नामक नरक की प्राप्ति होती है।

तदुपरान्त उसे दीन-हीन अवस्था के साथ शत्रुओं से भी पीड़ित होना पड़ता है।

इसलिए, वह सङ्कल्प की हुई दक्षिणा उसी समय दे देनी चाहिए, अन्यथा वह दक्षिणा बढ़ती हुई कई-गुनी हो जाती है।’

पार्वती जी को चेत हो गया और उन्होंने अपने पतिदेव की उक्त बातें भी सुन लीं, किन्तु सोच-विचार करती हुई मौन खड़ी रहीं।

यह देखकर भगवान् विष्णु और चतुरानन ब्रह्माजी ने भी उन्हें समझाया और कहा – ‘देवि! आपके द्वारा धर्म की रक्षा किया जाना बहुत आवश्यक है।’

धर्म ने भी कहा- ‘शैलनन्दिनि! आपने पुरोहित को अभीष्ट दक्षिणा देने का वचन दिया है, इसलिए उसे इच्छित प्रदान करके मेरी रक्षा कीजिए।

क्योंकि मेरी रक्षा में ही सब प्रकार का मङ्गल होना निहित है।’

पार्वती जी को इन्द्रादि देवताओं ने भी बहुत समझाया।

जब उन्होंने कोई उत्तर न दिया तो प्रमुख ऋषि-मुनियों ने उन्हें विश्वास दिलाया – ‘शिवे! आप स्वयं ही धर्म को जानने वाली हैं, उसकी रक्षा करना आपका परम कर्त्तव्य है।

फिर हम सबके यहाँ उपस्थित रहते हुए आपका किसी भी प्रकार से अकल्याण नहीं हो सकता।’

इसपर भी उमा मौन रहीं।

तब ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार, जो उस अनुष्ठान में पुरोहित थे, कुछ तीखे स्वर में बोले- ‘देवि! या तो मुझे अभीष्ट दक्षिणा दो, अथवा आपको अपनी दीर्घकालीन तपश्चर्या का शुभ फल भी त्याग देना होगा।

क्योंकि इस महान् कर्म की दक्षिणा प्राप्त न होने पर मैं इसका फल तो प्राप्त कर ही लूँगा, अन्य सब शुभ कर्मों के फल का भी मैं अधिकारी हो जाऊँगा।’

देवी पार्वती ने व्याकुलतापूर्वक कहा- ‘अपने सर्व समर्थ पति से वञ्चित करने वाले कर्म के फल से मैं कोई लाभ नहीं देखती, फिर दक्षिणा देने, धर्म की रक्षा करने और पुत्रलाभ होने में भी मेरा कौन-सा हित होगा? मूल को न सींचकर वृक्ष की शाखा को सींचने से क्या वृक्ष हरा रह सकता है विप्रवर? यदि प्राण ही जाने लगें तो यह देह की रक्षा से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?’

‘देवाधिपो! महर्षियो! पति से अधिक पुत्र नहीं हो सकता।

साध्वी स्त्रियों के प्राण तो पति ही है।

सौ पुत्र एक ओर और अकेला पति एक ओर रहे तो भी पति की ही महिमा अधिक रहेगी।

आप ही बतायें कि जब पति को ही दक्षिणा में दे दूँगी तो मेरे पास क्या रहेगा? फिर पति से वञ्चित होने पर पुत्र मिलता हो तो वह वस्तुतः किसी काम का नहीं।

पुत्र का एकमात्र मूल पति ही है, क्योंकि वह उसी के अंश से उत्पन्न होता है।

जब मूलधन ही चला जायेगा, तब विश्व में कोई भी व्यापार सम्भव नहीं होगा।

इसलिए मैं तो यही समझती हूँ कि पुत्र के लोभ से पति का त्याग कोई गर्हिता नारी ही कर सकती हो तो करे, मैं नहीं कर सकती।’

पार्वती इस प्रकार व्याकुल हुई बैठी थीं।

वह पुरोहित की व्रत-समाप्ति की दक्षिणा स्वरूप अपना पति प्रदान करने के लिए प्रस्तुत नहीं हुईं, इससे समस्त समाज में सन्नाटा छा गया था।

सभी उपस्थित जन किंकर्त्तव्यविमूढ़ बैठे थे।

किसी की भी समझ में यह नहीं आ रहा था कि उपस्थित समस्या को किस प्रकार सुलझाया जाय?


समस्या का समाधान त्रिलोकीनाथ ने किया

उसी समय अन्तरिक्ष से एक अत्यन्त अद्भुत रत्नादि से निर्मित दिव्य रथ उतरता हुआ दिखाई दिया, जो कि घननील वर्ण के पार्षदों से घिरा था।

वे सभी पार्षद रत्नालङ्कारों से सुसज्जित एवं दिव्य पुष्पहारों से समन्वित थे।

देवताओं, ऋषि-मुनियों, शिवगणों आदि ने देखा कि उस रथ में भगवान् त्रिलोकीनाथ चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं, जो कि रथ से उतर उसी स्थान पर समागत हो रहे हैं।

उनकी चारों भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म स्थित थे।

इनको समागत देखकर समस्त देवता आदि उठ खड़े हुए।

ब्रह्मा, विष्णु, शिव ने उन्हें अर्ध्यादि देकर एक सर्वोत्तम सिंहासन पर विराजमान कराया और फिर सभी ने उनके अभय एवं पाप-ताप नष्ट करने वाले पदारविन्दों में भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और गद्गद कण्ठ से उनकी स्तुति करने लगे।

भगवान् त्रिलोकीनाथ बोले- ‘देवगण! मुझे यहाँ उपस्थित विवाद का समाधान करने के लिए ही आना पड़ा है।

गिरिराजनन्दिनी पार्वती का यह व्रत केवल लोकशिक्षा के लिए ही है, अन्यथा यह तो सभी व्रतों और तपश्चर्याओं का फल प्रदान करने में स्वयं ही समर्थ हैं।

इनकी माया से समस्त चराचर विश्व मोहित हो रहा है तो यह स्वयं मोह में क्यों पड़तीं? इसलिए इनके द्वारा किया जाने वाला अनुष्ठान अपने लिए कदापि नहीं है।

‘और, व्रतादि की समस्त विधियों के ज्ञाता, वेद-वेदाङ्गों के प्रकाण्ड विद्वान्, ईश्वर और सृष्टि के रहस्य-ज्ञान पूर्ण पारङ्गत तथा परम हरिभक्त और सर्वज्ञ महर्षि सनत्कुमार की भी अद्भुत दक्षिणा याचना का रहस्य भी यही कि व्रतानुष्ठान-कर्त्ता अपना पूर्ण समर्पण कर दे! वह अपना कुछ भी न समझकर सबकुछ परब्रह्म परमात्मा का ही समझे।

अनुष्ठान कराने वाला पुरोहित भी साक्षात् परब्रह्म रूप ही है, ऐसा मानता हुआ ही किसी वस्तु के प्रति मोह न रहे।

इसलिए इनके द्वारा दक्षिणा में व्रतानुष्ठान करने वाली साध्वी से उसकी सर्वाधिक प्रिय वस्तु माँग लेना भी उचित ही है।’

इसके पश्चात् उन्होंने गिरिराजनन्दिनी को सम्बोधित किया-‘हे शिवे! शिवप्रिये! तुम्हें अपने पति भगवान् नीलकण्ठ को प्रदान कर पुण्यक-व्रत पूर्ण कर लेना चाहिए।

नियम यह है कि दक्षिणा में प्रदत्त कोई भी पदार्थ उसका समुचित मूल्य देकर वापस लिया जा सकता है।

इसलिए समुचित मूल्य देकर तुम अपने प्राणनाथ को वापस ले लेना।

भगवान् त्रिलोकीनाथ के शरीर जैसे शिव हैं, वैसे गौ भी हैं।

इसलिए पुरोहित को अपने पति के मूल्य में गौ देकर अपना पति लौटा लेना।’

यह कहकर भगवान् त्रिलोकीनाथ तुरन्त अन्तर्धान हो गए।

उनके साथ ही वह रथ और पार्षदगण भी अदृश्य हो गये।

भगवान् के मुखारविन्द से सुने हुए इन वचनों ने सभी समस्या तथा समस्त विवाद सुलझा दिया, इस कारण समस्त उपस्थित समुदाय हर्ष-विभोर हो गया।

शैलनन्दिनी भी हर्षित होती हुई उठीं और अपने प्राणनाथ चन्द्रमौलि को दक्षिणा में देने को तत्पर हो गईं।

पुरोहित ने हवन की पूर्णाहुति कराके दक्षिणा माँगी तो शिवा ने अपने प्राणधन शिव को दक्षिणा रूप में प्रदान कर दिया।

उपस्थित जनसमूह की हर्ष-ध्वनि के मध्य महर्षि सनत्कुमार ने ‘स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ग्रहण कर ली।


पार्वती के अनुपम धैर्य की जाँच

समस्त कार्य पूर्ण हो चुका।

देवी पार्वती ने पुरोहित से निवेदन किया- ‘विप्रवर! मेरे पति में और गौ में समानता है।

फिर भी मैं आपको एक लाख अत्यन्त सुन्दर, श्रेष्ठ, दुधारू गौएँ दूँगी, जो कि साक्षात् कामधेनु के समान हैं।

इनके बदले में आप मेरे प्राणधन को मुझे लौटा दीजिए।’

सनत्कुमार बोले- ‘देवि! मैं तो ब्राह्मण हूँ कोई व्यापारी नहीं।

इसलिए मैं आपके द्वारा दी जाने वाली एक लाख गौओं का क्या करूँगा? उल्टे उनके पालन की समस्या मेरे समक्ष आ खड़ी होगी और उस स्थिति में मैं अपने नित्य नैमित्तिक कर्म भी ठीक प्रकार से करने में असमर्थ रहूँगा।

इसलिए मैं अपना भला इसी में समझता हूँ कि इन अहिभूषण भगवान् को ही अपने साथ रखता हुआ इन्हें आगे करके तीनों लोकों का भ्रमण करूँ।

उस समय इनके अद्भुत रूप को देखकर बालक-बालिकाएँ प्रसन्न हो-होकर ताली बजाएँगे और अट्टहासपूर्वक हो-हो करते चलेंगे।’

यह कहकर महर्षि ने उमानाथ से कहा- ‘आशुतोष! अब आप मेरे अधिकार में हैं, इसलिए यहाँ आकर बैठिए।’

यह सुनकर भगवान् शङ्कर सनत्कुमार के पास जाकर शांत बैठ गए।

अब तो देवी शैलपुत्री को बड़ी व्याकुलता हुई।

उन्हें यह आशङ्का न थी कि सीधा-सादा दिखाई देने वाला ब्राह्मण इतना हठ पर उतर आएगा और भगवान् त्रिलोकीनाथ के वचनों पर भी ध्यान नहीं देगा।

और फिर यह भी दुर्भाग्य की ही बात है कि मुझे न तो अभीष्टदेव का दर्शन ही मिला और न व्रत का फल ही।

तब क्या किया जाए? ‘परन्तु समस्या का समाधान था ही नहीं तो उन्होंने सोचा-इससे तो प्राण त्याग करना ही श्रेष्ठ है।

जब कोई उपाय दिखाई न दे तो यही अन्तिम अस्त्र रह जाता है।

किन्तु, कहते हैं कि आत्मघात पाप है, तो उसका भी जो फल मिलेगा भोग लूँगी।’

ऐसा निश्चय कर गिरिजा प्राण त्याग के लिए प्रस्तुत हुईं।

उनका निश्चय समझने में ब्रह्मा-विष्णु को देर न लगी।

उन्होंने समझाया – ‘देवि! विपत्ति के समय धैर्य का त्याग ही विनाश का प्रमुख कारण होता है।

किसी भी संकट से मुक्ति पाने का उपाय आत्मघात नहीं है, वरन् विवेक बुद्धि से काम लेना है।’


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