गणेश पुराण – षष्ठ खण्ड – अध्याय – 8


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मयूरेश का सिद्धि-बुद्धि के साथ पाणिग्रहण

उग्रेक्षण की मृत्यु का समाचार मिलते ही माता-पिता छाती पीटने लगे।

रानी दुर्गा के करुण-क्रन्दन से दैत्य नगरी में सर्वत्र शोक छा गया।

दैत्यराज के लिए चन्दन-चिता तैयार की गई और रानी दुर्गा भी अपने पति के साथ सती हो गई।

तदुपरान्त उग्रेक्षण के पिता चक्रपाणि उस नगरी के राजा हुए।

विष्णु आदि सब देवताओं को मुक्त कर दिया तथा भगवान् मयूरेश की सेवा में उपस्थित होकर उनकी स्तुति की और फिर निवेदन किया ‘प्रभो! आप ही समस्त चराचरमय विश्व के उत्पत्ति, पालन और संहारकर्त्ता हैं।’

आपकी माया से मोहित हुए जीव आपको जान नहीं पाते।

आज आपके दर्शनों का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है।

इस कारण हमारा जीवन सफल हो गया है।’

मयूरेश ने प्रसन्न होकर कहा- ‘राजन्! तुम्हारे पुत्र को मैंने विवश होकर मारा है।

परन्तु उसे मोक्ष की प्राप्ति हो गई है।

मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, इसलिए इच्छित वर माँग लो।’

चक्रपाणि बोले- ‘नाथ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरे भवन और नगर को पवित्र करने की कृपा कीजिए।’

प्रार्थना सुनकर मयूरेश अपने गणों के सहित गण्डकी नगर में पधारे, जहाँ राजसभा में विद्यमान सभासदों, प्रजाजनों, मुक्त हुए विष्णु आदि देवताओं ने उनका स्वागत किया।

वे स्वर्ण-रत्न निर्मित भव्य सिंहासन पर विराजमान हुए अत्यन्त शोभामय प्रतीत होते थे।


इन्द्र का मान भंग

राजा चक्रपाणि ने मयूरेश का पूजन किया और स्तुति करते हुए बोले- ‘नाथ! आज मेरा जीवन, मेरा भवन, नगर और सभी प्रजाजन धन्य हो गये।

जिन परमात्मा के दर्शन अनेक जन्मों में तपस्या करके भी ऋषि-महर्षिगण प्राप्त नहीं कर पाते, उनके मुझे साक्षात् दर्शन हो रहे हैं।’

तभी भगवान् मयूरेश की माया से मोहित हुए इन्द्र ने कुपित होकर कहा- ‘राजन्! तुमने सब बड़े-बड़े देवताओं की उपस्थिति में एक बालक की प्रथम पूजा करके अपनी मूर्खता का परिचय दिया है।’

चक्रपाणि बोले- ‘देवराज! यद्यपि आप, रुद्र, सूर्य, वायु, वरुण, कुबेर, अग्नि आदि समस्त देवताओं को मेरे पुत्र ने हरा दिया।

उसके भय से समस्त देवता, सिद्ध, गन्धर्व, ऋषि-मुनि आदि यत्र-तत्र छिपे रहे।

भगवान् विष्णु तक अपने अनुयायी देवताओं सहित बंदी बना लिए गये।

किन्तु परमात्मा मयूरेश ही समस्त वीरों सहित मेरे पुत्र का संहार करने में समर्थ हुए।

इन्होंने उसके यहाँ बन्दी देवताओं को मुक्त कराया।

इस कारण मैं तो इन्हीं को प्रथमपूजा का अधिकारी समझता हूँ।’

इन्द्र का समाधान न हुआ देखकर मयूरेश ने घोर गर्जन किया, जिससे समस्त ब्रह्माण्ड काँप उठा।

ऐसा लगा मानो ब्रह्माण्ड विदीर्ण हो जायेगा।

उससे असंख्य प्राणी मूच्छित हो गए।

सूर्य के समान प्रकाश से विश्व व्याप्त हो गया तदुपरांत देवताओं ने मयूरेश के रूप में दसभुजी गजानन भगवान् के साक्षात् दर्शन किए।

फिर तुरन्त ही दसभुजी गजानन के स्थान पर मध्य में पद्मासन पर विराजमान वक्रतुण्ड, अग्निकोश में शिवजी, नैर्ऋत्य में सूर्य, वायव्य में पार्वती जी और ईशान कोण में बैठे भगवान् नारायण के दर्शन हुए।

इससे समस्त देवगण भ्रमित हो गये।

तभी आकाशवाणी हुई- ‘परमपिता परमात्मा गजानन ही पाँच रूपों में प्रकट होते हैं।

वे सभी विघ्नों के नाशक तथा देवता, मनुष्य, यक्ष, राक्षस और नाग सभी के पूज्य हैं।

केवल इनकी पूजा से ही समस्त देवों की पूजा सम्पन्न हो जाती है।

इसलिए भेदबुद्धि का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।’

तभी सब देवताओं ने भगवान् मयूरेश के ओंकार रूप के दर्शन किए।

इससे उनका भ्रम तुरन्त दूर हो गया और सब उच्च स्वर से ‘मयूरेश की जय’ बोलने लगे।

फिर सभी देवताओं ने उनका श्रद्धा-भक्ति सहित पूजन किया।

राजा चक्रपाणि ने भी उनका षोड़शोपचार पूजन कर स्तुति की।

इसके अनन्तर नारदजी ने कहा- ‘भगवान् मयूरेश ने प्रतिज्ञा की थी कि समस्त देवताओं को बन्धन-मुक्त कराने के पश्चात् ही विवाह करूँगा।’

इनकी वह प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी है।

अतएव अब सिद्धि-बुद्धि का विवाह इनके साथ होना शेष है।

अतः कमलोद्भव ब्रह्माजी शीघ्र ही उस कार्य को भी सम्पन्न कर दें।’

ब्रह्माजी प्रसन्न हुए उन्होंने अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह मयूरेश के साथ कर दिया।

फिर विदा करते हुए हाथ जोड़कर निवेदन करने लगे- ‘प्रभो! आज मेरी अभिलाषा पूर्ण हो गई।

इन पुत्रियों का पालन मैंने बड़े लाडू-प्यार से किया है, अब इनकी रक्षा आप स्वयं करते रहें।’

मयूरेश ने ब्रह्माजी की बात स्वीकार की।

तभी दैत्यराज के यहाँ बन्दी देवताओं ने प्रार्थना की- ‘प्रभो! आपकी कृपा से हम बन्धन मुक्त हो गये, इसलिए अब हमें स्वधाम गमन की आज्ञा दें।’

मयूरेश ने देवताओं और ऋषि-मुनियों के प्रति आदर भाव प्रदर्शित करते हुए जाने की आज्ञा दे दी और वे सब उनका जय-जयकार करते हुए अपने-अपने स्थानों को चले गये।


लीला का संवरण

कुछ दिन राजा चक्रपाणि का आतिथ्य ग्रहण करने के पश्चात् मयूरेश ने भी शिव-शिवा और अपनी भार्याओं सहित अपने स्थान पर जाने की इच्छा प्रकट की तो राजा ने बेमन से उसे स्वीकार कर पर्याप्त भेंट आदि के साथ विदा किया।

वे स्वयं उन्हें नगर के बाहर एक योजन दूर तक पहुँचाने आये।

उनके साथ सभी नागरिक भी थे।

मयूरेश को विदा करते समय सभी की आँखें अश्रूपूर्ण हो रही थीं।

वे बोले- ‘प्रभो! आप हम सेवकों को छोड़कर जा रहे हैं, किन्तु हमें आपका वियोग असहनीय हो रहा है।

हमारे ऊपर सदैव आपकी दया बनी रहे।’

मयूरेश ने चक्रपाणि और उनके समस्त प्रजाजनों को समझाया- ‘आप लोग निश्चित रहें।

मेरी कृपा से आपको समस्त सुखों की प्राप्ति होगी।

मेरे स्मरण मात्र से सभी सङ्कट दूर हो जाया करेंगे।’

इस प्रकार आश्वासन देकर मयूरेश अपने नगर को चले।

उनके साथ शिव-शिवा, ब्रह्मा, विष्णु आदि प्रमुख देवता भी थे।

प्रमथादि गण उनका जय-जयकार करते चल रहे थे, निश्चित अवधि में गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर सभी ने विश्राम किया और कुछ दिन बात-की-बात में निकल गए।

दोनों बहुओं को पाकर पार्वती जी बहुत प्रसन्न थीं।

वे भी उनकी बहुत सेवा करतीं तथा आशीर्वाद पाती थीं।

शिवगण भगवान् मयूरेश को प्रसन्न करने का सदैव यत्न करते रहते।

तभी एक दिन शिव-शिवा, ब्रह्मा, विष्णु आदि के समक्ष मयूरेश ने गम्भीर वाणी में कहा- ‘देवगण! मैं एक महत्त्वपूर्ण बात कहता हूँ, आप ध्यान देकर सुनें।

मैंने जिस उद्देश्य से धरती पर अवतार लिया था, वह कार्य सम्पन्न हो गया है।’

‘असुरों के मरने से पृथ्वी का भार भी उतर चुका और दैत्य के कारागार में बन्धनग्रस्त देवता भी मुक्त हो गये।

स्वाहा, स्वधा और वषट्‌कार भी पहिले के समान निःशङ्क रूप से हो रहे हैं।

इसलिए मेरे अवतार का प्रयोजन पूर्ण होने पर मेरा कोई शेष नहीं रहा और मेरे स्वधाम गमन का अवसर आ गया है।’

यह सुनकर दुःखित हुए देवताओं ने सजल नेत्रों से कहा- ‘प्रभो! आप हमें त्यागकर क्यों जा रहे हैं? अब यदि पुनः दैत्य उत्पन्न हो गए तो हमारी रक्षा किस प्रकार होगी?’

चिन्ता न करो’ मयूरेश ने आश्वासन दिया- ‘जब कोई संकट उपस्थित हो तब मुझे याद करना, मैं तुम्हारी सदैव रक्षा करूँगा।’

माता पार्वतीजी को उनके वचन सुनकर मूर्च्छा ही आ गई।

बोलीं- ‘पुत्र! तुम्हारे बिना कैसे जीवित रहूँगी? मुझे छोड़कर कहीं न जाओ।

मयूरेश ने समझाते हुए कहा-माता! मैं भी तुम्हारे वियोग से दुःखित हूँ।

किन्तु सदैव एक स्थान पर नहीं रह सकता, इसलिए विवश हूँ।

जब द्वापर में मुझे एक भयानक असुर को मारने के लिए अवतार लेना होगा, तब तुम्हारे पुत्र रूप से प्रकट होकर पुनः सुख प्रदान करूँगा।’

तभी षडानन ने रोते हुए कहा- ‘मुझे भी साथ ले चलो।’

इसपर उन्होंने अपना मयूर षडानन को प्रदान करते हुए कहा- ‘मयूरध्वज, मैं सभी के अन्तर में निवास करने वाला होने के कारण हृदय में भी सदैव विद्यमान रहता हूँ।

इसलिए मुझे निरन्तर अपने साथ समझो।’

ऐसा कहकर गणेश्वर वहीं अन्तर्धान हो गये।


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