गणेश पुराण – षष्ठ खण्ड – अध्याय – 7


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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


दैत्येश्वर उग्रेक्षण के साथ मयूरेश्वर का युद्ध आरम्भ

नन्दीश्वर ने शिव-शिवा की सेवा में उपस्थित होकर मयूरेश्वर से दैत्यसभा के समस्त समाचार कहे और अपने तथा दैत्यराज के मध्य हुई बातों से भी अवगत कराया।

तब मयूरेश्वर ने शिवजी से आज्ञा लेकर प्रमथगणों और देवताओं आदि को दैत्यों पर आक्रमण करने का आदेश दिया।

वे बोले- ‘अब यह स्पष्ट हो गया है कि युद्ध के बिना देवताओं का छुटकारा नहीं हो सकता।

यद्यपि हम युद्ध नहीं करना चाहते थे, किन्तु दैत्येश्वर ने हमें विवश कर दिया है।

अतः बिना किसी प्रकार का विलम्ब किए हमें चढ़ चलना चाहिए।’यह कहकर गणेश्वर ने सिंह गर्जना की और समस्त शिव-गणादि भी मयूरेश्वर की जय! गणनायक की जय! का घोष करते हुए युद्ध के लिए गण्डकी नगर की ओर बढ़ चले।

उधर गुप्तचरों द्वारा आक्रमण का समाचार पाकर दैत्यराज ने सामना करने और शत्रुओं को आगे बढ़ने का आदेश दिया।

तब दस करोड़ दैत्यों की चतुरंगिणी सेना नगर से बाहर आकर युद्ध करने लगी।

प्रमथादिगण बड़ी वीरता, धैर्य और साहस से युद्ध कर रहे थे।

दोनों ओर से अनेक प्रकार के मारक शस्त्रास्त्र प्रयोग में लाये जा रहे थे।

असुरों पर शिवगण भारी पड़ रहे थे।

दैत्यसेना कटती जा रही थी और धरती पर शवों का अम्बार लगता जा रहा था।

धीरे-धीरे दैत्यों की विशाल सेना काल-कवलित हो गई तथा कुछ थोड़े से बचे-खुचे दैत्य उग्रेक्षण के पास जाकर बोले- ‘राजाधिराज! शिवसेना ने हमारी विशाल वाहिनी को समाप्त कर डाला और नगर की सीमा, बाह्य भागों, वनों, खेतों, जलाशयों एवं अन्यान्य महत्त्वपूर्ण स्थानों को अपने अधिकार में कर लिया है।

हम बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाकर युद्ध का समाचार देने आये हैं।’

उसे पहले तो उनकी बातों पर विश्वास ही नहीं हुआ और जब उसे विश्वास हो गया तो शोक के कारण प्रलाप करने लगा, ‘देखो! पतंगों के समान तुच्छ शिवगणों ने मेरी मन्दर-गिरि के समान विशाल एवं अजेय सेना को नष्ट कर डाला।

अब क्या किया जाये?’

अमात्यों ने उसे समझाया- ‘महाराज! अभी हमारे पास असंख्य सैनिक और सब प्रकार के साधन उपलब्ध हैं।

आप आज्ञा दीजिए, जिससे कि रणक्षेत्र में पुनः सेना भेजी जा सके।

वे तुच्छ शिवगण अवश्य ही पराजित होंगे।

उग्रेक्षण ने कुछ प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा-‘अच्छा, इस बार अधिक पराक्रमी वीरों की सेना भेजी जाय, उसकी संख्या भी पहले से अधिक रहे।

मैं स्वयं भी रणक्षेत्र में पहुँचता हूँ।’

अब पहिले से अधिक विशाल दैत्यसेना रणभूमि में आ पहुँची।

उग्रेक्षण स्वयं भी अश्व पर सवार होकर वहाँ पहुँचा और उसने वीरों को भीषण आक्रमण करने का आदेश किया।

इस बार दैत्यगण प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करने लगे।

इसलिए शिवगणों के पाँव उखड़ गये और वे राक्षसों के सामने पीछे हटने के लिए विवश हो गये।

यह देखकर स्वयं मयूरेश्वर अपने वाहन मयूर पर सवार होकर युद्ध में आ डटे।

शिवजी भी नन्दीश्वर पर आरूढ़ होकर युद्ध करने लगे।

शिवगणों ने पुनः असुरों को काटना प्रारम्भ कर दिया।

नन्दीश्वर ने उग्रेक्षण पर मुख से प्रहार किया तथा उसका घोड़ा मार डाला और उसका छत्र तोड़ दिया।

इसलिए दैत्यराज दूसरे घोड़े पर बैठकर आया।

तभी उसके अमात्य कौस्तुभ और मैत्र नामक दो दैत्यों ने उसे विश्वास दिलाया- ‘असुरराज! शत्रुओं को नष्ट किये बिना हम आपको अपना मुख नहीं दिखावेंगे।

निश्चय मानिये कि हमें कोई भी परास्त नहीं कर सकता।’उग्रेक्षण ने चैन की साँस ली।

युद्ध जोरों पर चल पड़ा।

शिवगण असुरों का पराक्रम सहन करने में असमर्थ रहे, इसलिए विजय-श्री असुरों के ही गले पड़ी।

मयूरेश की सेना बहुत दूर तक पीछे धकेल दी गई।

विजयी दैत्यसेना विजयगीत गाती हुई नगर में पहुँची।

अब वीरभद्र, नन्दीश्वर एवं मयूरेश परस्पर विचार करने लगे कि क्या किया जाये? निश्चय हुआ कि शत्रु को अधिक सँभलने न देने के उद्देश्य से तुरन्त ही घोर आक्रमण किया जाये।

वही किया गया और दोनों की सेनाएँ युद्ध में डट गयीं।

घोर युद्ध हुआ।

एक बार षड़ानन गणराज मूच्छित हो गये, किन्तु मैत्र और कौस्तुभ दोनों मारे गये एवं बहुत ही राक्षसी सेना का संहार हो गया।

शेष सेना भाग खड़ी हुई।

विजयी शिवगण ‘मयूरेश्वर की जय’ कहते हुए विजयोल्लास मनाने लगे।

अपनी सेना को पराजित हुई देखकर दैत्यराज ने पुनः विशाल सेना के साथ रणाङ्गण में प्रवेश किया और घोर युद्ध करने लगा।

उसके साथ अमर्षमय आदि सात महारथी भी आये थे, जिन्होंने पृथक् पृथक् सात व्यूहों की रचना की।

यह देखकर गणेश्वर स्वयं मयूर पर सवार हुए और नन्दी, पुष्पदन्त आंदि वीरों के साथ उन व्यूहों को तोड़ने के उद्देश्य से बढ़े।

दस लाख वीरों के साथ भूतनाथ शिव एवं विकट नामक वीर थे।

वीरभद्र और षड़ानन के साथ भी असंख्य सैनिक थे।

अति गतिवान, साहसी और विजय की इच्छा वाले अत्यन्त दुराधर्ष वीरों की सुरक्षित सेना पचास सहस्त्र थी।

इस प्रकार मयूरेश्वर-पक्ष में भी विशाल वाहिनियाँ थीं, जिनके सात व्यूह इधर भी बनाये गये थे।

इस दिन बड़ा विकट संग्राम हुआ।

शिव पक्ष के वीरों ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी, जिसके फलस्वरूप सातों दैत्य महारथी मारे गये।

असुरों की ओर पराजय से सन्तप्त हुआ उग्रेक्षण भागकर अपनी राजधानी जा पहुँचा।


उग्रेक्षण की पुनः पराजय

उग्रेक्षण अपनी बार-बार की पराजय से बहुत दुःखित हो रहा था।

उसने सोचा- ‘मेरे वीर सैनिक सदैव देवताओं को दबाये रखने और मारने में समर्थ थे, वे आज भुनगों और मच्छरों के समान मार डाले गये? यह विपरीत बात कैसे देखने-सुनने में आ रही है? अब देखो, शिवगणों का मद और उत्साह कैसे बढ़ गया है? जैसे भी हो, उनको वश में करना ही होगा।’

अमात्यों से परामर्श लिया तो उन्होंने उसे धीरज रखने की बात कहकर आश्वस्त किया और पुनः विशाल सेना के साथ युद्ध में जाने का प्रोत्साहन देते हुए बोले- ‘राजाधिराज! आप चिन्तित न हों, ‘जब तक श्वास, तब तक आस’ वाले सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए ही कार्य करें।

आपकी विजय निश्चित है।’

उग्रेक्षण ने इस बार और भी अधिक तैयारी की और पुनः विशाल सेना के सहित युद्ध-क्षेत्र में पहुँच गया।

उसने जाते ही तीक्ष्ण बाणों की वर्षा आरम्भ की और कुछ ही देर में अधिकांश शिवगणों को पराजित कर दिया।

वे अत्यन्त विह्वलता से इधर-उधर भाग निकले।

इस प्रकार शिवसेना का अपकर्ष दिखाई देने लगा।

अब यह घोड़े से नीचे उतर आया तथा भयङ्कर बाण-वर्षा करने लगा।

उसने वीरभद्र को पाँव पकड़कर उठाया और चारों ओर घुमाकर धरती पर दे मारा।

इससे वे बुरी तरह आहत पीड़ित हो गये।

फिर उसने नन्दीश्वर के मस्तक पर शस्त्र प्रहार किया, जिससे उनके मस्तक से लोहित धारा निकलने लगी।

उग्रेक्षण वस्तुतः उग्र हो उठा।

उसने पुष्पदन्त, हिरण्यगर्भ, श्यामल, चपल, रक्तलोचन, सुमुख, भृंगी आदि अनेक प्रमुख शिवगण और देवगण आदि को बुरी तरह आहत कर दिया।

वे सभी रणविमुख हो गये, केवल मुनिकुमारों के साथ गणेश्वर ही युद्ध कर रहे थे।

उसने सोचा- ‘समस्त विग्रह की जड़ यही बालक है।

इसका वध होते ही शिवगणादि पराजित हो जायेंगे।

फिर कोई भी युद्ध करने का साहस न करेगा।

इसलिए सर्वप्रथम इसी को समाप्त करना चाहिए।’

ऐसा विचार कर उग्रेक्षण विनायक की ओर क्रोधपूर्वक बढ़ा।

उसकी गर्जना का उत्तर गर्जना से मिला तो उसने भयंकर बाण-वर्षा आरम्भ कर दी।

मयूरेश्वर ने उसके सभी बाण काट डाले और अपने बाणों से उसे पीड़ित करने लगे।

दैत्यराज ने भगवान् भास्कर का स्मरण किया और सूर्य-प्रदत्त दिव्यास्त्र को धनुष पर चढ़ाकर मयूरेश पर छोड़ दिया।

किन्तु गणेश्वर के परशु प्रहार से उसके हजारों टूक हो गये।

उसके हाथ के भी सैकड़ों खण्ड हुए और धनुष धरती पर आ गिरा।

अब उसने चक्र चलाया, वह भी गणेश्वर द्वारा प्रक्षेपित शूल से टकराकर दैत्यराज के ही मस्तक पर आ गिरा।

इससे उसके कानों सहित कुण्डल पृथक् हो गए तथा वह शूल कान, कुण्डल और मुकुट के सहित गणेश्वर के पास लौट आया।

उग्रेक्षण को शूल के इस प्रभाव पर बड़ा आश्चर्य हुआ और भयभीत एवं आशंकित होते हुए भी उसने क्रोध प्रदर्शित किया- ‘मूर्ख! तू इस सामान्य कार्य को दुस्तर समझता है! तूने मेरे कान काटे हैं तो मैं तेरी नाक उड़ाए देता हूँ।

ले, देख मेरा पराक्रम।’

यह कहकर वह खड्ग तानकर मयूरेश पर झपटा।

किन्तु जब उसे सर्वत्र मयूरेश ही मयूरेश दिखाई देने लगे।

सब ओर असंख्य मयूरेश अट्टहास कर रहे थे।

उसका साहस टूट गया और पलायन के विचार से अपने दुर्ग में लौटने का विचार किया, किन्तु उस ओर भी बहुत से मयूरेश अट्टहास करते प्रतीत हुए।

भय के कारण नेत्र बन्द किए तो हृदय में भी मयूरेश ही दिखाई दिए।

फिर वह रणांगण छोड़कर भाग निकला और घर जाकर चुपचाप मुख ढाँपकर लेट गया।

यह देखकर उसकी महासुन्दरी पत्नी दुर्गा ने कोमल वाणी में पूछा- ‘प्राणनाथ! आज आप ऐसे चिन्तित और म्लान- मुख क्यों हो रहे हैं? यदि इसका कुछ कारण बतायें तो सम्भव है कि कुछ उपाय मुझे ही सूझ जाय और मैं आपकी सहायता कर पाऊँ।’

दैत्यराज ने पत्नी को बताया ‘प्रिये! आज मुझे युद्धक्षेत्र से भागना पड़ा।

यद्यपि मैंने सात करोड़ देवगण और शिवगण को धराशायी कर दिया, तो भी शंकर के पुत्र ने, जो कि अभी बालक ही है, अपने शूल से मेरे दोनों कान काट डाले।

समझ में नहीं आता कि उसे मारने के क्या उपाय करूँ?’

दुर्गा ने विनयपूर्वक कहा- ‘स्वामिन्! यदि अपराध क्षमा हो तो कुछ निवेदन करूँ? कहीं आप रुष्ट न हो जायें, इस भय से यथार्थ बात कहने में कुछ संकोच हो रहा है।’

दैत्यराज के आग्रह पर दुर्गा ने पुनः कहना आरम्भ किया- ‘नाथ! देव, ब्राह्मण और गौ से द्वेष करने पर न तो स्थायी सुख मिलता है और न कल्याण ही होता है।

संसार में निन्दा भी होती है।

यद्यपि कोई सामने नहीं कहता, पर पीठ-पीछे तो सब कहते ही हैं।

मेरे मत में इनकी सदैव पूजा और वन्दना करनी चाहिए।’

‘अशुभ कर्मों का फल शुभ नहीं मिल सकता।

लोक में प्रत्यक्ष देखा जाता है कि जैसा बीज बोते हैं, वैसा ही अंकुर उत्पन्न होता है।

आपके अनुपम पुरुषार्थ ने विश्व को अधीन कर दिया, किन्तु उस पुरुषार्थ ने विश्व को अधीर कर दिया, किन्तु उस पुरुषार्थ का प्रयोग देवताओं और ऋषियों के उत्पीड़न में ही हुआ है।

पुरुषार्थ के चार विषय हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

आपने उसे धर्म और मोक्ष से विरत ही रखा है।

वस्तुतः पुरुषार्थ वह है जिससे पराये धन और परायी स्त्री को लोलुपता उत्पन्न न हो।

अनिन्द्य की निन्दा करना भी पुरुषार्थ नहीं है।’

‘इसलिए हे प्राणेश्वर! आप मेरे वचनों पर ध्यान दीजिए-सभी देवताओं को मुक्त करके जगदीश्वर गणराज की शरण में जाइए।

वे प्रभु आपको अवश्य क्षमा कर देंगे।

यदि आप मेरे निवेदन को न मानेंगे तो निर्विघ्न सुख से निश्चित ही वञ्चित हो जायेंगे।

आपको हठ छोड़कर सुख रूप पुरुषार्थ की सिद्धि करना ही श्रेयस्कर होगा।’

अपनी सहधर्मिणी के वचन उसे विषयुक्त तीर के समान प्रतीत हुए और वह लाल नेत्रों से उसकी ओर देखता हुआ बोला- ‘मैं तो तुम्हें बहुत चतुर समझता था प्रिये! किन्तु तुमने तो मुझे वीर-कर्म से विमुख करने और उत्साह भंग करने वाली बात कह दी है।

तुम्हारे वचन मानकर तो मुझे सर्वत्र अपयश ही प्राप्त होगा।

शत्रु कितना भी प्रबल हो, उसकी मन से भी प्रशंसा करना अथवा संग्राम छोड़कर आत्मसमर्पण करना तो अत्यन्त ही निन्दनीय कर्म है, इससे तो मर जाना ही अच्छा है।’

‘क्या तुम नहीं जानतीं कि वीरों का कर्त्तव्य युद्ध है।

क्योंकि युद्ध में जीतने से तीनों लोकों की ख्याति, सम्मान और ऐश्वर्य प्राप्त होगा तथा युद्ध में मरने से स्वर्ग मिलेगा।

यदि मैं युद्ध से घबराकर शत्रु की शरण लूँगा तो मरने के बाद मुझे पूर्वजों सहित नरक की प्राप्ति होगी।

‘फिर एक रहस्य की बात तुम्हें और बताता हूँ-मैं जगद्‌गुरु देवाधिदेव गणेश्वर को भले प्रकार जानता हूँ।

उनका अवतार मुझे मोक्ष प्रदान करने के लिए उसी प्रकार हुआ है जैसे लंकेश्वर रावण को मुक्त करने के लिए श्रीराम का अवतार हुआ था, किन्तु यह सब जानते हुए भी मैं काल को तुच्छ मानता हूँ।

संसार में मेरे समान कोई भी योद्धा नहीं है, इसलिए युद्धक्षेत्र में गणेश्वर का सिर अवश्य कादूँगा, फिर चाहे कुछ भी क्यों न हो!’


कल-विकल असुरों का संहार

यह कहकर उसने राजसी पोशाक धारण की और राजसभा में जाकर कल और विकल नामक दो महावीरों से बोला ‘कल! विकल! दोनों मेरी बात सुनो।

इस समय इन समस्त योद्धाओं में तुम ही अधिक दुराधर्ष हो।

अपने साथ विशाल सेना ले जाओ और शत्रुओं का वध कर दो।

शिवपुत्र मयूरेश को भी जीवित या मृत मेरे समक्ष उपस्थित करो।’

वे दोनों विशाल दैत्यसेना के साथ रणक्षेत्र में जा पहुँचे।

किन्तु घोर संग्राम के पश्चात् भी विजय प्राप्त न कर सके।

आरम्भ में शिवगण और देवगण उनका प्रहार न सह पाये, किन्तु बाद में पुष्पदन्त और नन्दीश्वर के प्रहारों से दैत्यसेना पीड़ित होने लगी और अन्त में वीरभद्र ने कल और षडानन ने विकल को प्राण-विहीन कर दिया।

इस युद्ध में भी असुरदल का संहार वेग से हुआ।

बची सेना रणांगण छोड़कर भाग गई।

कल और विकल की मृत्यु का समाचार पाकर उग्रेक्षण बहुत दुःखित हुआ।

वह सोचने लगा- ‘मेरे सभी प्रधान शूरवीर सेनापति इस युद्ध में मारे गये।

अब शत्रु का सामना करने के लिए किसे भेजा जाय?’

वह बहुत विचार करने के बाद भी कुछ स्थिर नहीं कर सका, तभी उसकी मनः-स्थिति समंझकर उसके धर्म और अधर्म नामक दो पुत्रों ने कहा- ‘पिताजी! हमारे सभी प्रमुख सैनिकों ने रणांगण में अद्भुत वीरता दिखाकर मोक्ष प्राप्त कर ली।

अब आप हमें युद्धक्षेत्र में जाने की आज्ञा दीजिए।

हमें विश्वास है कि शत्रुसेना को वश में करके मयूरेश का वध करने में हम अवश्य सफल होंगे।’

उग्रेक्षण ने आज्ञा दे दी तो दोनों भाई विशाल चतुरंगिणी सेना लेकर युद्धक्षेत्र में जा पहुँचे।

दोनों ओर से घोर संग्राम होने लगा।

दैत्यराज के दोनों पुत्र अत्यन्त बलवान् थे।

उन्होंने वीरभद्र, हिरण्यगर्भ, भूतराज और मयूरेश्वर की सेना को बुरी तरह आहत किया।

यह देखकर मयूरेश्वर ने उन दोनों को एक साथ ऊपर उठाया और आकाश में चक्र के समान घुमाकर धरती पर फेंक दिया।

दोनों के ही सैकड़ों खण्ड हो गये।

तभी विजयोल्लास से ऋषिगण और शिवगण ‘गणेश्वर की जय’ का घोष करने लगे।

पराजित दैत्यसेना ने भागकर अपने राजा को समाचार दिया- ‘राजाधिराज! आपके पुत्र बड़ी वीरता से लड़े थे, किन्तु मयूरेश के सामने उनकी एक न चली और वे मारे गये।

उनके साथ जो विशाल सेना थी, वह भी रणक्षेत्र में काम आ गई।’

दैत्यों में शोक छा गया।

रानी दुर्गा ने सुना तो राजसभा में ही जाकर रोती हुई बोली- ‘प्राणनाथ! मेरे पुत्रों को आपने मुझसे बिना पूछे ही रणक्षेत्र में भेज दिया।

यदि वे मेरा आशीर्वाद लेकर जाते तो उन्हें विधाता भी नहीं मार सकता था।’

दैत्यराज ने उसे बहुत प्रयत्न से समझाकर अन्तःपुर में भेजा और स्वयं वीरवेश धारण कर विशाल असुर सेना के सहित रणांगण में जा पहुँचा और उसने तुरन्त ही मारकाट आरम्भ कर दी।

अनेक शिवगण काम आ गये।

वीरभद्र ने मयूरेश से कहा- ‘प्रभो! उग्रेक्षण पुनः आकर भीषण संहार में प्रवृत्त है।

इस बार तो बहुत ही उग्र हो उठा है।

आप स्वयं उसका निवारण कीजिए।’

गणेश्वर ने अपने वाहन मयूर को बुलाया और उसपर आरूढ़ होकर दैत्यराज के समक्ष पहुँचे।

उग्रेक्षण ने माया का आश्रय लिया तो मयूरेश ने उसकी समस्त माया नष्ट कर दी और फिर उसके अनुयायी असुरों का संहार प्रारम्भ कर दिया।

धीरे-धीरे विशाल दैत्य-सेना समाप्त हो गई।

मयूरेश के प्रहारों के समक्ष उग्रेक्षण का पौरुष काम न कर सका।

वह रणक्षेत्र से भागकर अपने भवन में जा पहुँचा।


दैत्येश्वर उग्रेक्षण का वध

इधर विजयी शिवगण अपने स्थान पर आ गये।

शिव-शिवा ने मयूरेश से विश्राम करने का आग्रह किया तभी देवर्षि नारद बोल उठे- ‘माता पार्वती जी! मुझे यहाँ पड़े-पड़े बहुत दिन व्यतीत हो गए।

पूजा-पाठ-भजनादि नित्यकर्म भी मैं ठीक प्रकार से नहीं कर पाता।

अभी भी उग्रेक्षण का वध शीघ्र सम्भव नहीं लगता और जब तक उसका वध नहीं होगा तब तक देवगण मुक्त नहीं होंगे और न गणेश जी का विवाह ही हो पायेगा।

इसलिए मैं तो अब यहाँ से जाने की आज्ञा चाहता हूँ।’

तभी नन्दी आदि न कहा- ‘देवर्षे! आप तो सर्वगुण सम्पन्न हैं, फिर गणेश्वर की महिमा से अनभिज्ञ रहते हैं।

आप शीघ्र ही दैत्यराज का वध हुआ देखेंगे।’

मुनि बोले- ‘मैं तो तभी समझेंगा जब उसका वध हो जायेगा।

अन्यथा अनुमान कितने ही लगाते रहो।’

तब स्वयं गणेश्वर ने कहा- ‘मुनिवर! मैं आपका मन्तव्य समझ गया हूँ।

विश्वास कीजिए कि अब बिना अधिक विलम्ब के ही असुरपति मारा जायेगा।’

नारदजी चुप हो गए।

मयूरेश ने शिवगणों को आज्ञा दी कि ‘आज ही गण्डकी नगर पर आक्रमण कर दिया जाय।’

आदेश सुनते ही समस्त सेना ने प्रस्थान कर दिया।

युद्ध के बाजे बजते जा रहे थे और वीर गर्जना कर रहे थे।

इस कारण समस्त धरती और दिशाएँ कम्पायमान हो रही थीं।

समस्त सेना तीव्रगति से गण्डकी नगर में जा पहुँची तथा मयूरेश के चारों गण राक्षसराज के दुर्ग पर जा चढ़े।

इस समाचार को सुनते ही उग्रेक्षण काँप उठा।

उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब किस प्रकार बचाव किया जाय।

तभी उसकी सहधर्मिणी दुर्गा ने रोते हुए कहा- ‘स्वामिन्! आपने मेरी बात नहीं मानी।

यदि मान लेते तो ऐसा विनाश नहीं होता।

दोनों पुत्र मारे गये और समस्त सेना नष्ट हो गई।

अब आपके अपने प्राणों पर आ बनी है।

अब भी समय है, अपने प्राणों की रक्षा तो हो ही सकती है।

फिर भी नहीं मानना चाहते तो चिन्ता करने से कोई लाभ नहीं होगा।’

रानी दुर्गा इस प्रकार कह रही थी कि तभी राजभवन के स्वर्ण-रत्न निर्मित शिखर पर भृङ्गी उड़कर जा बैठे और फिर सभा-मण्डप के स्तम्भों को उखाड़-उखाड़ उनको तोड़ने और टुकड़ों को चारों ओर बिखेरने लगे।

यह देखकर हजारों असुर ‘मारो-मारो’ पुकारते हुए, अस्त्र-शस्त्र हाथ में उठाये हुए उनकी ओर दौड़े।

भृङ्गी वीर तो उनकी प्रतीक्षा कर ही रहे थे।

उन्होंने कुछ ही देर में असुरों को धराशायी कर दिया।

अब उन्होंने कुछ देर प्रतीक्षा की, किन्तु कोई भी असुर सामने नहीं आया।

तब वे उग्रेक्षण के भवन में घुस गये और उन्होंने दैत्यराज को विश्राम करते देखा।

वह सोने का बहाना बनाकर नेत्र मूँदे पड़ा था, इसलिए उन्होंने उसके कान और केश खींचने आरम्भ किये।

विवश हुआ दैत्यराज उठकर बाहर आ गया और उसने भृङ्गी गणों को अपने आघातों से व्याकुल कर दिया।

शिव-सेना बहुत आगे बढ़ आई थी।

उग्रेक्षण ने भी भयंकर युद्ध कर सेना को पीछे हटने को विवश कर दिया।

तभी सहसा उसे मयूरेश के विराट् रूप के दर्शन हुए।

उनका मस्तक अन्तरिक्ष में, चरण पाताल में तथा कान सब दिशाओं में फैले हुए थे, उनके हजार मस्तक, हजार नेत्र, हजार हाथ और इतने ही चरण थे।

इस रूप के दर्शन करके उसे भगवान् भास्कर के वे वचन याद आ गये, जिनके अनुसार ऐसे ही दिव्य पुरुष के द्वारा मृत्यु होनी थी।

वह समझ गया कि अन्तकाल समीप है।

फिर भी उसने समर्पण की अपेक्षा युद्ध करना ही उचित समझा और भयानक अस्त्रों से प्रहार करने लगा।

किन्तु मयूरेश ने उनके सभी शस्त्रास्त्र काट गिराये।

अब वे मयूर से उतरे और उन्होंने पवित्र जल से आचमन करके अमृत- बीज युक्त मन्त्र का जप करते हुए अत्यन्त तेजस्वी परशु को अभिमन्त्रित किया तथा दैत्यराज के सामने जाकर उसकी नाभि पर प्रहार किया तब अपने घोर शब्द द्वारा त्रैलोक्य को गूँजता हुआ वह परशु नाभि में जा घुसा, जिससे अमृतस्थली ध्वस्त हो गई और वह तुरन्त ही धराशायी हो गया।

दैत्यराज के मरते ही सर्वत्र उल्लास छा गया।

मुनिगण, देवगण आदि सभी निर्भय हो गये।

आकाश में अप्सराएँ नाचने और पुष्प वर्षा करने लगीं।

सभी दिशाएँ स्वच्छ हो गईं।

धरती फूल उठी।

देवता, ऋषि-मुनि आदि सब मयूरेश की स्तुति करने लगे-

“परब्रह्मरूपं चिदानन्दरूपं
सदानन्दरूपं सुरेशं परेशम्।

गुणाब्धि गुणेशं गुणातीतमीशं
मयूरेशमाद्यं नताः स्मो नताः स्मः॥

जगद्वन्द्यमेकं परोपकारमेकं
गुणानां परं कारणं निर्विकल्पम्।

जगत्पालकं हारकं तारकं तं
मयूरेशमाद्यं नताः स्मो नताः स्मः॥”

‘जो प्रभु परब्रह्म, चिदानन्द, सदानन्दस्वरूप, सभी देवताओं के अधीश्वर, परमेश्वर, गुणों के समुद्र एवं गुणों के स्वामी किन्तु गुणों से परे हैं, उन आदिदेव परमात्मा मयूरेश को हम नमस्कार करते हैं।

जो संसार भर के एकमात्र वन्दनीय, एकमात्र ओंकार, गुणों के परम कारण, कल्प रहित, विश्वपालक, संहारक और उद्धार करने वाले हैं, उन आदिदेव मयूरेश को हम नमस्कार करते हैं।हे गजानन! हे गणराज! वस्तुतः हम आपके योग्य सुन्दर स्तवन में समर्थ नहीं हैं।

आप समस्त गुणों के भण्डार और सम्पूर्ण विश्व के प्रेमपात्र हैं।

आपके गुणों का वर्णन करने की हममें शक्ति नहीं है।

आपका संसार-रचना का क्रम समुद्र के समान अपार और अकथनीय है।

हे प्रभो! आपने अपने वचन का निर्वाह कर दिया तथा समस्त दैत्यों का संहार कर देवताओं और ऋषि-मुनियों को सुखी बना दिया।’

स्तुति करके देवगण अपने धाम को चले गये।

इधर अपने पुत्र मयूरेश के द्वारा दैत्यराज के मरने का समाचार सुनकर माता पार्वती अत्यन्त आनन्दित हो उठीं।

शिवजी के साथ वे तुरन्त अपने पुत्र के पास पहुंचीं और उन्हें अपने हृदय से लगा लिया।

शिवगण मयूरेश्वर का जयघोष करने लगे।


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