<< गणेश पुराण – षष्ठ खण्ड – अध्याय – 4
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
नागलोक पर विजय
अश्वासुर के मरने पर वे सब अधिक हर्षित होकर जल-क्रीड़ा करने लगे। वहीं कुछ नाग-कन्याएँ भी सरोवर के दूसरी ओर आकर जल-क्रीड़ा करने लगीं।
तभी उनकी दृष्टि मुनिकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए गणेश पर पड़ी।
उन्होंने निकट आकर उनका परिचय पूछा।
गणेश ने अपना परिचय दिया तो उन्होंने कुछ समय को घर चलने का आग्रह किया।
वे बोले- ‘माता जी मेरी प्रतीक्षा करती होंगी, इसलिए आपके साथ नहीं चल सकता।
मुझे घर से निकले हुए बहुत विलम्ब हो गया है।’
नागकन्याओं ने बहुत आग्रह किया तो वे चुपचाप उनके साथ चल दिए।
मुनिबालकों को उनके जाने का पता न चला।
वे समझते रहे कि गणेशजी हमारे साथ ही हैं।
मार्ग में भगासुर ने उन बालकों को छल से मारने का उपक्रम किया, किन्तु सर्वत्र मयूरेश्वर ने अपने प्रभाव से राक्षस को मार डाला।
माता को भी यही प्रतीत हुआ कि गणेश घर पर आ गया, उन्होंने उनके प्रतिरूप को भोजन कराया और तब वे अपनी शय्या पर जाकर सो गईं।
नागकन्याएँ उन्हें पाताल-लोक में स्थित अपने भवन ले पहुँचीं।
वहाँ उद्वर्त्तनादि करके उन्हें स्नान कराया और दिव्य वस्त्रालंकार धारण कराकर अनेक प्रकार से उनका पूजन किया और फिर स्तुति करते हुए निवेदन किया कि ‘प्रभो! आप कुछ दिन यहाँ निवास करने की कृपा करें।’
जब गणेशजी ने पूछा- ‘आपके पिताजी कौन हैं?’
तो उन्होंने उत्तर दिया- ‘हम नागराज वासुकि की पुत्रियाँ हैं।
वे आपके दर्शन करके बहुत प्रसन्न होंगे।’यह कहकर नागकन्याएँ उन्हें अपने पिता के पास ले गईं।
वहाँ नागराज वासुकि अत्यन्त चमकते हुए रत्नसिंहासन पर विराजमान थे।
उनके मस्तक में अद्भुत मणि एवं रत्नमुकुट और कण्ठ में दिव्य मणियों का हार सुशोभित था।
उन्हें देखते ही गणराज शीघ्रता से उनके फन पर चढ़कर नाचने लगे।
फन के हिलने से मणि का प्रकाश हिला और साथ ही तीनों लोक भी हिल उठे।इस प्रकार वासुकि को दण्ड देकर उन्होंने उन सर्पराज को कण्ठाभरण के समान गले में धारण कर लिया।
इस कारण उस दिन से उनका नाम ‘सर्पभूषण’ या ‘नागभूषण’ हुआ।
सर्पराज के पराभव का समाचार समूचे नागलोक में फैल गया।
उनके भाई सहस्त्रफनधारी शेष जी ने सुना तो वे अत्यन्त क्रोधित होकर सोचने लगे- ‘मेरे भाई वासुकि को पराजित करने वाला कौन प्रकट हो गया?’
शेषनाग दौड़े हुए गये और उन्होंने गणपति पर आक्रमण कर दिया।
गणपति ने भी उनका सामना किया।
स्मरण करते ही मयूर आ उपस्थित हुआ तथा गणेशजी उसपर चढ़कर घोर युद्ध करने लगे।
शेषनाग के साथ असंख्य नाग थे।
मयूर ने उनमें बहुतों को पंख की मार से मारा, बहुतों को आहत किया और कुछ नागवीरों को मुख में लेकर उदरस्थ कर लिया।यह देखकर शेषनाग अत्यन्त कुपित हुए, उनके मुखों एवं नासाओं से विष की भयंकर लपटें निकलने लगीं।
मयूर उस विष-ज्वाला में झुलसकर मूच्छित हो गया।
उसके गिरते ही मयूरेश अत्यन्त क्रोधित हुए और उछलकर शेषनाग के सिर पर जा चढ़े और अपना भार बढ़ाकर फणों पर नृत्य करने लगे।भार असह्य था, शेष उसे सह न सके और आन्तरिक पीड़ा से कराहते हुए रक्त वमन करने लगे।
उसी स्थिति में गणेश जी ने उन्हें रस्सी के समान अपनी कटि में लपेट लिया।
नागराज शेष आश्चर्य में डूब गये।
सोचने लगे- ‘अवश्य ही यह जगदीश्वर हो सकते हैं, अन्यथा और कौन मेरी यह दशा कर सकता था?’
उन्होंने तुरन्त ही मयूरेश के समक्ष पराजय स्वीकार की और उनकी स्तुति करते हुए बोले- ‘मेरे लिए क्या आज्ञा है प्रभो!’
गणेश बोले- ‘तुमने सम्पाति, जटायु और श्येन को कैद कर रखा है, उन्हें छोड़ दो और मेरे पास लाने को कहो।’
शेष ने अपने सेवकों को वैसा करने का आदेश दिया।
कुछ देर में तीनों वहाँ ले आए गये।
इतने में मयूर की मूर्च्छा दूर हो गई थी और वह गणेश जी के निकट ही बैठा था।
तभी सम्पाति आदि तीनों ने अपने बड़े भाई मयूर को प्रणाम कर माता की कुशलता का समाचार पूछा और फिर गणेश जी की आज्ञा से मुक्त होकर मयूरेश के साथ ही चल दिए।मुनिकुमारों ने मयूरवाहन गणेशजी को आते देखकर कोलाहल किया-‘मयूरेश आ गए, मयूरेश आ गए’ जिसे सुनकर माता पार्वती ने सोचा कि ‘मेरा बालक तो घर में सो रहा है, यह कौन-सा मयूरेश आया?’
उन्होंने बाहर निकलकर देखा तो वहाँ जितने भी बालक थे, वे सब मयूरेश ही दिखाई देने लगे।
यह क्या, वहाँ एक नहीं सैकड़ों मयूरेश थे।
त्रिसन्ध्याक्षेत्र से शिवजी का प्रस्थान
मयूरेश गणपति की ख्याति बढ़ती जा रही थी।
उग्रेक्षण द्वारा भेजे हुए समस्त राक्षस उनके द्वारा मारे गये थे, इसी से वह बहुत व्याकुल था।
इसपर भी जब उसे यह ज्ञात हुआ कि गणेश ने नागलोक पर भी विजय प्राप्त कर ली है, तब तो वह बहुत ही चकित और भयभीत हो गया।
इधर शिव-पार्वती ने विचार किया कि हमारे पुत्र के कारण असुरों के उपद्रव बहुत बढ़ गये हैं।
इस कारण पुत्र की सुरक्षा पर अब अधिक ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
अच्छा हो कि यहाँ से अन्यत्र चलकर रहा जाये।
क्योंकि हमारे कारण यहाँ के निवासी ऋषि-मुनियों को भय और आतंक का जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है।
उनके जाने की बात सुनकर मुनियों को बड़ा दुःख हुआ।
वे नहीं चाहते थे कि कैलासपति शिव, माता पार्वती और गणेश जी वहाँ से जायें।
उन्होंने शिवजी से प्रार्थना भी की, किन्तु उन्होंने वहाँ से हटना ही उचित समझा।
वे वहाँ से चलने को तैयार हुए।
उस समय वहाँ समस्त ऋषिगण एवं ऋषि-पत्नियाँ उपस्थित होकर विरह से व्यथित हो रहे थे।
अनेक ऋषि-मुनि तो उनके साथ ही चल पड़े।
उनके साथ उनकी पत्नियाँ और बालक भी थे।
शिवगणों का भारी समुदाय तो साथ था ही।
जब वे मार्ग में थे तभी उग्रेक्षण ने कमलासुर नामक अपने अत्यन्त पराक्रमी वीर को उन्हें मार डालने के लिए भेजा, जो कि बारह अक्षौहिणी चतुरंगिणी दैत्यसेना के साथ मार्ग में ही आ डटा।
शिवगणों ने आकर उसकी सूचना दी और कहा कि ‘अच्छा हो कि हम आगे न बढ़ें और पीछे लौटकर असुरों की गतिविधि पर दृष्टि रखें।’
गणपति ने कहा- ‘यदि पिताजी आज्ञा दें तो मैं अकेला ही उस समस्त बारह अक्षौहिणी सेना को भस्म कर डालूँ।
पीछे लौटने की कोई आवश्यकता नहीं।
हमें असुरों से बचाव नहीं करना है, उनका संहार करना भी अभीष्ट है।’शिवजी ने ने मयूरेश को आज्ञा दी ‘पुत्र! अपने साथ इन गणों को भी ले जाओ, हमारा आशीर्वाद है कि तुम्हें विजय प्राप्त हो।’
यह कहकर शिव-पार्वती भी अपने पुत्र का युद्ध कौशल देखने के लिए साथ चल दिए।
कमलासुर का वध
कमलासुर ने देखा कि गणेश स्वयं युद्ध करने आ रहे हैं तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई।
सोचा-‘अब इसे शीघ्र ही वश में कर लिया जायेगा।’
परन्तु ज्योंही उसकी दृष्टि गणेशजी के पीछे-पीछे आने वाले शिवगणों पर पड़ी तो वह आश्चर्य चकित हो गया! न जाने कहाँ से इतना जन-समुद्र उमड़ा चला आ रहा था! सामना होते ही दोनों पक्ष की सेनाएँ एक-दूसरे पर टूट पड़ीं।
असंख्य राक्षस मारे गये और कुछ शिवगण भी धराशायी हुए।
तभी मयूर ने कमलासुर के अश्व पर चन्चु प्रहार किया।
इस कारण उसका अश्व धराशायी हो गया।
तभी वह असुर सँभलकर आकाश में उड़ने लगा।
उसने क्रुद्ध होकर भयंकर बाण-वर्षा आरम्भ कर दी।
इधर मयूरेश ने भी घोर बाण-वृष्टि से ही उसका उत्तर दिया।
राक्षस ने अपनी माया फैलाई, जिसे मयूर ने सहज में ही नष्ट कर दिया और फिर उसे अपनी माया दिखाई।
असुर जिधर देखता उधर मयूरेश ही दिखाई देने लगे-
“दशदिक्षु मयूरेशं ददर्श कमलासुरः।
विस्मिताच्छाद्य नयने हृदि तं परिदृष्टवान्॥”
उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं तो अपने हृदय में भी मयूरेश के ही दर्शन होने लगे।
यह देखकर वह अत्यन्त आश्चर्यचकित हुआ और अपना वश न चलता देख रणक्षेत्र छोड़कर भाग निकला।
देवताओं ने यह देखा तो वे उसे पकड़ लाये और बोले-राक्षस! तू जाता कहाँ है? कायरों के समान भाग कर दैत्य-कुल को अपयश का भागी न बना, युद्ध कर।’विवश कमलासुर पुनः युद्ध करने लगा।
उसने घोर गर्जना की और अनेक प्रकार तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्र लेकर प्रहार करने लगा।
उसने पुनः विविध भाँति की मायाएँ रचीं, किन्तु मायानाथ के समक्ष उसकी एक भी न चली।
समस्त मायाएँ देखते-देखते विलीन हो जातीं।
अन्त में मयूरेश ने त्रिशूल से उसके मस्तक पर प्रहार किया, जिससे मस्तक कट कर भीमानदी के दक्षिणी तट पर जा गिरा।
राक्षसों की विशाल सेना नष्ट हो चुकी थी।
सर्वत्र मयूरेश्वर का जयघोष हो रहा था।
प्रसन्न हुए उमा-महेश्वर ने पुत्र का अभिनन्दन किया और देवगण एवं मुनिगण प्रसन्न होकर उनकी स्तुति करने लगे।
आकाश से पुष्प-वृष्टि होने लगी।
विश्वकर्मा ने उपस्थित होकर वहीं मयूरेश-क्षेत्र का निर्माण किया।
सुन्दर नगर बसाया गया तथा सभी के रहने की समुचित व्यवस्था की गई।
शिव-पार्वती के लिए एक सुन्दर भवन बनाया, उसमें उन्होंने मयूरेश्वर गणेश के साथ निवास किया।
मंगल दैत्य का वध
मंगल नामक एक अत्यन्त भयंकर और महाबलशाली दैत्य था।
वह वराह का रूप बनाने में सिद्धहस्त था।
इसलिए उग्रेक्षण की आज्ञा होने पर भयंकर एवं विशालकाय वराह का रूप रखकर वह मयूरेश-क्षेत्र में आया और बड़े-बड़े वृक्षों को टक्कर मारकः गिराता और धरती को कम्पायमान करता हुआ मयूरेश्वर के समक्ष आकर उछल-कूद करने लगा।गणेशजी ने ज्योंही उसे देखा, त्योंही उसके दाँतों को पकड़कर तीव्रता से नीचे-ऊपर करने लगे, किन्तु वह छुड़ा न सका।
मयूरेश्वर ने उसके दाँतों को ही नीचे-ऊपर करते हुए अवसन्न कर दिया और अन्त में उसका शरीर प्राणहीन कर दिया।