<< गणेश पुराण – षष्ठ खण्ड – अध्याय – 2
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
गृधासुर का मारा जाना
एक दिन एक असुर ने गृध्र का रूप बनाया।
कुटी से बाहर खेलते हुए गणेशजी के पास जा पहुँचा।
उसने इधर-उधर आहट लेकर देख लिया कि उसके क्रिया-कलाप को देखने वाला कोई नहीं है तो सहसा उन्हें अपनी भयंकर एवं विशाल चोंच में दबाकर आकाश में अत्यन्त ऊँचाई पर उड़ चला।
तभी किसी कार्यवश माता पार्वती जी बाहर आईं तो उन्होंने पुत्र को कहीं न देखा।
इससे ‘हे गणेश, हे गणेश’ पुकारती हुई व्याकुलता से इधर-उधर खोज करने लगीं।
आकाश में उड़ते हुए गृध्रासुर की चोंच में दबे हुए गणेशजी ने माता की पुकार सुनी तो असुर के मस्तक पर मुष्टि प्रहार कर बैठे।
बस, एक ही प्रहार ने असुर का मस्तक चूर्ण कर दिया और वह धरती की ओर गिरने लगा।
गणेशजी सुखपूर्वक उसके मुख में बैठे रहे।
माता ने गृध्र-सहित अपने पुत्र को आकाश से गिरता देखा तो उस ओर दौड़ीं।
इतने में ही राक्षस धराशायी हो गया और पार्वती जी ने तुरन्त ही गणेशजी को उसकी चोंच से निकालकर अपनी गोद में ले लिया और स्तनपान कराने लगीं।
क्षेमासुर एवं कुशलासुर का मारा जाना
क्षेम और कुशल नाम के दो असुर बड़े बलवान् थे।
वे अवसर देखकर आश्रम में घुस आये।
किन्तु माता पार्वती को बालक के पास बैठी देखकर दबे पाँव एक कोने में जा छिपे।
जब माता उन्हें पालने में लिटाकर किसी कारणवश बाहर चली गईं तब दोनों असुर पालने के पास आये और उसमें से बालक को उठाने लगे।
तभी गणेशजी ने अपने पाँव चलाये तथा लीलापूर्वक एक-एक पदाघात दोनों पर कर बैठे।
बस, एक-एक बार में ही दोनों असुर दूर जाकर इतने जोर से गिरे कि उनकी हड्डी-पसलियों का ही चूर्ण हो गया।
उनके हृदय फट चुके थे और रक्त वमन करके शान्त हो चुके थे।
माता आईं तो यह दृश्य देखकर अवाक् रह गईं।
उनकी समझ में नहीं आया कि यह दोनों यहाँ किस प्रकार आये और कैसे मारे गये? पार्वतीजी ने अपने पुत्र को गोद में उठा लिया और गणों को आदेश दिया कि उन असुरों के शरीर उठाकर सुदूर अरण्य में फेंक दे।
क्रूर नामक असुर की मृत्यु
तीन राक्षस मारे जा चुके थे, किन्तु बालक का बाल बाँका नहीं हुआ।
इससे असुरों में शंका तो उत्पन्न हो गई थी कि बालक में कोई विशेषता अवश्य है।
फिर भी, वे उसकी विशेष सामर्थ्य से अपरिचित ही थे, अतः मारने के अनेक उपाय सोचने लगे।
राक्षस दल में ‘क्रूर’ नामक एक असुर अत्यन्त ही क्रूर था।
उसे यथा नाम तथा गुण कहना अनुपयुक्त नहीं होगा।
एक दिन उसका भी काल खींच ले गया।
वहाँ पार्वतीजी मन्दिर में पूजन करने गई थीं और बालक गणेश मन्दिर के बाहर खेल रहे थे।उसने सोचा, इससे अच्छा अवसर और कब आयेगा? वह भी एक मुनि-बालक का रूप बनाकर उनके साथ खेलने लगा।
गणपति को उसके क्रिया-कलाप देखकर हँसी आ गई, किन्तु वह उस गूढ़ हँसी का अर्थ न समझ सका।
वह कभी उनका कण्ठ पकड़ता तो कभी उनके केश खींचता।
आरम्भ में तो गणेशजी ने उसका अधिक प्रतिरोध नहीं किया, किन्तु जब असुर के आघातों में प्रबलता आने लगी, तब उन्होंने उसे पकड़कर बलपूर्वक गला दबा दिया।
मन्दिर से बाहर निकलती हुई गौरी ने पुत्र की यह चेष्टा देखी तो आशंकित हो उठीं कि यह मुनिकुमार का गला अधिक न दबा दे, इसलिए उसे बचाने को दौड़ीं।
किन्तु तब तक उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे।
और वह छद्मवेश छोड़कर अपने असुर रूप में प्राणहीन रूप से धरती पर गिर चुका था।
पार्वती जी उसे देखकर अत्यन्त व्याकुल हुईं और उन्होंने अपने पुत्र को उठाकर गोद में ले लिया।
व्योमासुर-वध
यह असुर झंझावात का रूप रखने में सिद्धहस्त था, इसलिए दैत्यराज के दरबार में इसका बड़ा सम्मान था।
वह भी गणेश जी का वध करने के विचार से त्रिसंध्याक्षेत्र में रह रहा था।
एक दिन गणेशजी का उपवेशन-संस्कार होना था।
माता पार्वती के साथ निवास करने वाली ऋषि-पत्नियों ने उन्हें दिव्य वस्त्रालंकार धारण कराये और तब आदिदेव गणाध्यक्ष का पूजन, पुण्याहवाचन कार्य सम्पन्न हुआ।
उस समय सभी देवताओं ने वहाँ उपस्थित होकर इन श्रीमयूरेश्वर गणेश का पूजन किया, तदुपरान्त ऋषि-विप्रादि ने उन्हें आशीर्वाद दिए।यही अवसर व्योमासुर ने अपने लिए अधिक उपयुक्त समझा।
वह आश्रम के सामने खड़े हुए वृक्ष पर बैठकर जब उसे हिलाने लगा, तब पत्तों के हिलने से धीरे-धीरे झंझावात का रूप ले लिया।
प्रबल आँधी के कारण किसी को कुछ भी दिखाई न देता था।
उसी समय उस असुर ने गणेशजी को पकड़कर मारने का प्रयत्न किया, किन्तु गणेशजी द्वारा किये गए प्रत्याघात से वह स्वयं ही क्षत-विक्षत होकर गिर पड़ा।
आँधी का वेग रुका तो सभी ने देखा कि एक भयंकर राक्षस मरा पड़ा है।
तभी भयातुरा पार्वती जी ने अपने पुत्र को अंक में ले लिया और दुग्धपान कराने लगीं।
सभी उपस्थित देवता और ऋषिगण बालक को चिरंजीवी होने का आशीर्वाद देने लगे।
राक्षसी शतमहिषा का वध
व्योमासुर की एक विकराल मुख वाली बहिन थी।
उसका समस्त शरीर ही भयंकर एवं विशाल था।
उसे ज्ञात हुआ कि प्रिय भाई व्योमासुर मारा गया है तो वह क्रोध से काँपने लगी।
उसने निश्चय किया कि भाई की मृत्यु का प्रतिशोध अवश्य लेगी।
इसलिए सोलह वर्षीया किशोरी का रूप धारण किया और पार्वती जी के पास जाकर उन्हें प्रणाम कर बैठ गई।
पार्वतीजी ने उसे कोई देवकन्या समझा, इसलिए बड़ा सत्कार किया।
भोजनादि से सन्तुष्ट कर उसे रात्रि में अपने ही पास सुलाया।
परन्तु, गणेशजी उसकी समस्त गतिविधि पर दृष्टि रखे हुए थे।
पार्वतीजी को घोर निद्रा में पड़ी देखकर वह उठी और मयूरेश्वर को स्पर्श करने लगी।
तभी सहसा उन्होंने उस राक्षसी के कान-नाक पकड़ लिये।राक्षसी ने अपने को छुड़ाने का प्रयत्न किया, किन्तु छोड़ने की अपेक्षा पकड़ बढ़ती गई।
पर्वत के समान दबाव से छटपटाती हुई राक्षसी चीत्कार कर उठी।
उसे सुनकर पार्वतीजी ही नहीं, अन्यन्त्र सोई हुई ऋषि-पत्नियाँ भी दौड़ी हुई चली आई।उन सबने उसे छुड़ाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु बालक ने राक्षसी के नाक-कान इतनी तीव्रता से मसले कि प्राणों के साथ ही शरीर से पृथक् हो गए।
अब उसका आसुरी रूप प्रत्यक्ष हो चुका था।
सभी महिलाएँ उसे देखकर भयाक्रान्त हो उठीं।
माता बालक को उठाकर दुग्ध-पान कराने लगीं।
और भी अनेक राक्षसों का वध
तदुपरान्त एक-एक कर अनेक असुर वहाँ आते रहे और प्राण गँवाते रहे।
इस प्रकार कर्मठ, तल्प, दुन्दुभि, अजगर, शलभ, नूतुर, मत्स्य, शैल, कर्दम आदि अनेक महाबली राक्षस मारे गए।
जितने भी राक्षसों ने अपनी इहलीला समाप्त की वे सभी भगवान् के हाथ से मरने के कारण मोक्ष के अधिकारी हुए।
वस्तुतः वे सभी असुर अत्यन्त सौभाग्यशाली थे।
भगवान् को मारने के विचार से भी आकर उन्हीं के धाम को प्राप्त हो गये थे।
धीरे-धीरे मयूरेश पाँच वर्ष के हो गये।
तरह-तरह की बाल-क्रीड़ाएँ
अब पार्वती-पुत्र अनेक बालकों के साथ क्रीड़ाएँ करने लगे।
कभी गाते, कभी नाचते, कभी हँसते-हँसते बोलते थे।
एक दिन मध्याह्न काल होने पर भी उन्हें भोजन प्राप्त नहीं हुआ।
पार्वती जी किसी कार्य में व्यस्त थीं और वे क्षुधातुर हुए सोचते थे कि भोजन कैसे, कहाँ से प्राप्त हो?’
जब कोई उपाय समझ में नहीं आया, तब वे महर्षि गौतम की कुटी पर जा पहुँचे।
वह कुटी बहुत निकट ही थी, ऋषि-पत्नी भोजन बनाती हुई किसी कारणवश उठकर पाकशाला से बाहर निकल आई।
अवसर देखकर गणेशजी ने पाकशाला में जाकर पके हुए भोजन का पात्र उठाया और चुपचाप बाहर निकल आये।साथी बालकों ने पूछा- ‘क्या है?’
उन्होंने कहा- ‘भोजन है, भूख लगी है, इसलिए उठा लाया।
खेलते हुए बहुत देर हो गई, पहिले खा लें,तब पुनः खेलेंगे।’
यह कहकर उन्होंने अन्नपात्र का अन्न सभी बालकों में बराबर बाँट दिया तथा अपना भाग स्वयं ले लिया।
सभी ने तृप्त होकर पुनः खेलना आरम्भ कर दिया।
इधर ऋषिपत्नी ने पाकशाला में जाकर देखा कि अन्नपात्र नहीं है।
वे विस्मित चित्त से महर्षि के पास जाकर बोलीं- ‘नाथ! पाकशाला में अन्नपात्र नहीं है, अभी बलिवैश्वदेव कर्म भी नहीं हो पाया था।’
महर्षि को भी आश्चर्य हुआ, पाकशाला में गये और सब ओर दृष्टि फिराई, अन्नपात्र कहीं नहीं था।
तब बहार निकलकर उन्होंने देखा उमापुत्र के साथ कुछ मुनि-बालक खेल रहे थे और खाली अन्नपात्र उनके निकट पड़ा था।
उनको यह समझते देर न लगी कि इन्हीं में से किसी ने अन्नपात्र चुराया और मिलकर खा लिया है।
उन्होंने ध्यान लगाकर गणेशजी की करतूत जान ली तो क्रोधित होकर बोले- ‘अरे, तू शिव-पार्वती का पुत्र होकर ऐसा दुष्टकर्म करता है! और हम तो तुझे परब्रह्म परमात्मा समझते थे।’
इतना कहकर उन्होंने मयूरेश्वर का हाथ पकड़ा और पार्वती जी के पास ले गये।
वहाँ जाकर उन्होंने कहा- ‘शिवे! आपका यह पुत्र आये दिन उपद्रव करता रहता है।
आज तो इसने हमारा अन्नपात्र ही चुरा लिया।
बलिवैश्वदेवादि भी न हो पाया था कि समस्त अन्न इसने अन्य बालकों के साथ बैठ कर खा लिया।’
पार्वती बोलीं- ‘महर्षे! मैं भी इसके क्रिया-कलापों से त्रस्त हो रही हूँ।
इसके उत्पन्न होते ही असुरों के उपद्रव आरम्भ हो गये।
बालकों के साथ ही खेल-खेल में उलझ जाता है तो पीछा नहीं छोड़ता।
अब यह घरों में घुसकर भोजन भी चुराने लगा है।
इसलिए इसे दण्ड देना पड़ेगा।’यह कहकर माता ने रस्सी लेकर पुत्र के हाथ-पाँव बाँधने आरम्भ किए।
महर्षि ने कहा- ‘मातेश्वरि! इसे बाँधने की अपेक्षा स्नेहपूर्वक समझाओ।’
महर्षि चले गए।
माता ने पुत्र को दृढ़ता से बाँधकर कोठरी में बन्द कर दिया।
फिर बाहर आकर विश्राम करने लगीं तो ऐसा अनुभव हुआ कि पुत्र गोद में ही खेल रहा है।
फिर बाहर की ओर देखा तो पुत्र को बालकों के साथ खेलता पाया।
माता को आश्चर्य हुआ।
उसने कोठरी खोलकर देखा तो हाथ-पाँव बँधे हुए मयूरेश्वर पूर्ववत् बैठे हैं।
उनके नेत्रों से आँसू गिर रहे थे।
पार्वती ने हृदय कठोर बनाकर पुनः किवाड़ बन्द कर दिये, क्योंकि बालक को सीख देने के लिए कुछ डराना तो था ही।
वे कुछ देर के लिए ऋषिपत्नी के पास जा बैठीं, किन्तु पुत्र के कोठरी में बँधा पड़ा रहने के कारण उनका मन न लगा।
वे अपने आश्रम को लौटीं तो मार्ग में देखा कि मयूरेश्वर खेल रहे हैं।
माता ने पुत्र का दुःख भूलकर उसे स्नेहपूर्वक पुकारा ‘पुत्र! घर चलकर जलपान कर लो।’
बालक ने उत्तर दिया- ‘माता! यहाँ तो मयूरेश्वर नहीं है।
उसे तो आपने कोठरी में बन्द कर रखा है।’माता को ध्यान आया और वह दौड़ी-दौड़ी आश्रम में पहुँचीं।
उन्होंने कोठरी खोलकर पुत्र को देखा, वह रोता-रोता सो गया था।
माता ने बन्धन खोलकर उसे हृदय से लगा लिया और स्तनपान कराने लगीं।
उधर महर्षि गौतम ने वहाँ से लौटकर देवपूजन आरम्भ किया।
किन्तु यह क्या? उनके मन्दिर की सभी मूर्तियाँ गणेश रूप में दीखीं।
कहने लगे- ‘देखो, मुझसे कितनी भूल हो गई? मयूरेश्वर को सामान्य बालक के समान पकड़कर उनकी माता के पास ले गया, जिन्होंने उन्हें लताड़ते हुए कठोर रस्सी से बाँधकर घर में बन्द कर दिया।
वस्तुतः यह हमारा सौभाग्य ही था कि साक्षात् परब्रह्म ने अपनी मित्र-मण्डली के साथ भोजन ग्रहण कर लिया।
वे भगवान् मेरा अपराध क्षमा करें।’
यह कहकर महर्षि श्रीगणपति के ध्यान में मग्न हो गए और उनकी पत्नी अहल्या पुनः भोजन बनाने में व्यस्त हो गयीं।