<< गणेश पुराण – षष्ठ खण्ड – अध्याय – 1
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
देवताओं द्वारा संकष्टीचतुर्थी व्रत करना
उग्रेक्षण के अत्याचारों से पीड़ित हुए देवगण एक गुप्त स्थान पर बैठकर राक्षसगण के पराभव का उपाय सोचने लगे।
उस समय देवगुरु बृहस्पति ने उपाय बताया- ‘भगवान् गजानन का पूजन करो, वे समस्त संकटों को नष्ट करने में समर्थ हैं।
संसार के सर्ग, पालन और लय में वे ही परमात्मा का एकमात्र कारण हैं।
इस दैत्य का विनाश भी वही कर सकते हैं।
उन विघ्नेश्वर विनायक को माघ मास की चतुर्थी तिथि बहुत प्रिय है।
उस दिन जो उनका पूजन करता है, वही संकटों से मुक्त हो जाता है।’
देवताओं ने पूछा- ‘उनका पूजन किस प्रकार किया जाय गुरुदेव? यदि पूरा बताने की कृपा करें तो वैसा ही करने का तत्पर हों।’बृहस्पति बोले- ‘अब माघ मास का आरम्भ ही है।
कृष्णपक्ष के इस मंगलवार को ही चतुर्थी तिथि आ रही है, उसी दिन उनका षोड़शोपचार पूजन करते हुए उनकी स्तुति करें तो वे करुणासिन्धु उस दैत्य को शीघ्र ही मार डालेंगे।
तब तुम अपने पद को पुनः प्राप्त कर सकोगे।’
सुरगुरु के आदेशानुसार माघ कृष्णा चतुर्थी को देवताओं ने संकष्टी चतुर्थी का व्रत आरम्भ किया।
भगवान् गणपति की प्रतिमा स्थापित कर षोड़शोपचार पूजन करने के पश्चात् भावपूर्ण हृदय से उनकी स्तुति की।
“दीनानाथ दयासिन्धो योगिहृत्पद्मसंस्थितः।
अनादिमध्यरहित-स्वरूपाय नमो नमः॥”
‘हे दीनों के स्वामी! हे दयासिन्धु! हे ज्ञानगम्य! आपको नमस्कार है।
हे मायातीत! भक्तों के अभीष्ट पूर्ण करने वाले आपको बार-बार नमस्कार है।’
देवगणों की स्तुति से प्रसन्न हुए वरद विनायक भगवान् प्रकट हुए।
वे सिंह के समान प्रतीत होने वाले मूषक पर सवार एवं अद्भुत वस्त्राभूषणों से सुशोभित हो रहे थे।
उन्होंने कहा- ‘देवगण! तुम्हारे द्वारा किए गए संकष्टी-व्रत से मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ।
बोलो, क्या चाहते हो, वही मुझसे ले लो।’
देवता बोले- ‘प्रभो! हम निश्चय ही अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं जो केवल इस व्रत के प्रभाव से ही आपके साक्षात् दर्शन कर रहे हैं।
नाथ! उग्रेक्षण नामक असुरराज ने हमारा राज्य छीन लिया और भगवान् विष्णु को कैद कर लिया है।
हे दयालु! हम अपना खोया हुआ वैभव पुनः शीघ्र ही प्राप्त कर लें, ऐसी कृपा कीजिए।’
गणनायक ने आश्वासन दिया- ‘देवताओ! मैं शीघ्र ही मयूरेश्वर नाम से अवतार धारण कर तुम्हारी कामनाएँ पूर्ण करूँगा।
उग्रेक्षण का विनाश शीघ्र ही समझो।’
कैलास से शिवजी का पलायन
यह कहकर भगवान् विनायक अन्तर्धान हो गए।
इधर देवताओं के पराभव का समाचार मिलने पर भगवान् शंकर पार्वतीजी और सात कोटि गणों के साथ कैलास छोड़कर त्रिसन्ध्या क्षेत्र में निवास करने लगे।
वहाँ दैत्यराज के भय से संत्रस्त हुए गौतमादि अनेक ऋषि-महर्षि पहले से ही निवास कर रहे थे।
वहीं भगवान् शंकर ने तपस्या आरम्भ कर दी।
एक दिन समय प्राप्त होने पर पार्वतीजी ने अपने नाथ से पूछा- ‘प्रभो! आप तो स्वयं ही सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय के एकमात्र कारण हैं, फिर आप किसकी प्रसन्नता के लिए तपस्या कर रहे हैं? यह रहस्य मुझे बताने का कष्ट कीजिए।’
शिवजी बोले-‘प्रिये अनन्त कर्म वाले जिन भगवान् के प्रत्येक रोम में असंख्य ब्रह्माण्ड रहते हैं, वे समस्त गुणों के ईश्वर गुणेश ही मेरे आराध्य हैं।
अनेक व्यक्ति उन्हीं गुणेश को गणेश भी कहते हैं।’
उनकी प्रसन्नता प्राप्ति के लिए तप करना आवश्यक होता है।
पार्वती को पुत्र की प्राप्ति, मयूरेश्वर का जन्म
गौरी ने तपस्या की विधि पूछी तो शिवजी ने उन्हें गणेश के एकाक्षरी मन्त्र ‘गं’ का उपदेश कर उपासना की विधि बताई।
तब गौरी भी प्रसन्न मन से शिवजी की आज्ञा लेकर तपस्या के लिए सेखनाद्रि पर्वत पर गईं वहाँ उन्होंने बारह वर्ष तक घोर तप किया।
तभी उन्होंने भगवान् गणेश के दर्शन किये।
उनका अद्भुत रूप था।
दस भुजाएँ, गजवदन, मस्तक पर चन्द्रमा, मध्यभाग में नारायण मुख, दक्षिण भाग में शिव-मुख और वाम भाग में ब्रह्म-मुख दिखाई देता था।
वे शेषनाग और पद्मासन लगाये हुए विराजमान थे।
उस गौर वर्ण प्रभु ने अपनी गम्भीर वाणी में कहा- ‘जगदीश्वरि! आपकी तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न हूँ।
आप अपना अभीष्ट वर माँगिये।’
पार्वती ने प्रणाम करके कहा- ‘प्रभो! आप प्रसन्न हैं, यही मैं चाहती हूँ।
आपकी तुष्टि के अतिरिक्त अन्य कोई वर मुझे अभीष्ट नहीं है।
आप मेरे पुत्र रूप में प्रकट होकर निरन्तर दर्शन को प्राप्त करावें।’
‘एवमस्तु’ कहकर देवाधिदेव गणेश अन्तर्धान हो गए।
गिरिजा ने वहाँ एक सुन्दर मन्दिर की स्थापना कर गणेशजी की मूर्ति स्थापित की और उसका नाम रखा ‘गिरिजात्मज’ और फिर वे भगवान् शंकर के पास आ गईं तथा उन्हें अपनी वर-प्राप्ति की बात बताईं।
शिवजी बोले- ‘देवि! भगवान् तुम्हारे पुत्र रूप से अवतार लेकर दैत्य उग्रेक्षण और उसके साथियों को मारकर पृथ्वी का भार उतारेंगे और इन्द्रादि लोकपालों को उनके अधिकार की पुनः प्राप्ति करायेंगे।
इसके पश्चात् उस क्षेत्र में पार्वती जी का तप चर्चा का विषय बन गया।
धीरे-धीरे भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी का आगमन हुआ।
उस दिन चन्द्रवार, स्वाति नक्षत्र, सिंह लग्न एवं पाँच शुभ लग्नों का साथ था।
पार्वतीजी ने गणेश जी का षोड़शोपचार पूजन किया ही था कि असंख्य मुख, असंख्य नेत्र, असंख्य कान, नाक, हाथ से युक्त विराट् स्वरूप तेजस्वी बालक का प्राकट्य हुआ।
उन्होंने गिरिजा से कहा- ‘मातेश्वरि! मैं वही गणेश हूँ, जिसकी आप निरन्तर आराधना करती रहती हैं।
अब आपके पुत्र रूप से मेरा प्राकट्य हुआ है।’
गिरिजा बोलीं- ‘महा महिमामय! अपने इस विराट् रूप छोड़कर मुझे पुत्र-सुख दो।’
इतना कहते ही उन्होंने सुन्दर बाल रूप धारण कर लिया, सुन्दर नासिका, तीन नेत्र, छः भुजाएँ, विशाल वक्षःस्थल, दर्शनीय मुख, चरणों में ध्वज, अंकुश, कमल आदि के शुभ चिह्न तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के समान उज्ज्वल गौर वर्ण था।
तभी भगवान् शंकर ने बालक को देखकर प्रणाम किया और बोले- ‘पार्वती! यह बालक रूप में सभी प्राणियों के स्वामी, सभी लोकों के नाथ, सभी के आश्रयभूत परमात्मा हैं।
यही गणेश तुम्हारे पुत्र रूप से प्रकट हुए हैं।’
शिवजी ने बालक का जातकर्म संस्कार कराया और विप्रों को इच्छित दान दिये।
पार्वती ने उन्हें दुग्धपान कराया।
समस्त क्षेत्र में ज्योतिषीगण उपस्थित हुए।
उन्होंने बालक का नाम विघ्नहरण, विनायक, गुणेश या गणेश रखा और कहा कि ‘यह बालक सभी शुभ कर्मों में प्रथम पूजनीय होगा।
इसके द्वारा दैत्यों का संहार अवश्यम्भावी है।’
उग्रेक्षण का चिन्तित होना
उग्रेक्षण के गुप्तचरों ने उसे समाचार दिया कि ‘कैलासपति शिव आपके भय से दण्डकारण्य के त्रिसन्ध्या क्षेत्र में अपने करोड़ों गणों और अनेकाने क ऋषि-मुनियों के साथ निवास करते हैं।
शिवपत्नी पार्वती को एक पुत्र की प्राप्ति हुई है, जिसके विषय में ज्योतिषियों का कहना है कि वह असुरों का संहार करेगा।
दैत्यराज ने कहा-
‘कहाँ मैं इतना विशालकाय और महाबली तथा कहाँ वह छोटा-सा नवजात शिशु?
एक छोटा-सा मच्छर किसी एक गजराज का वध कैसे कर सकता है?’
तभी उसने आकाशवाणी सुनी- ‘दैत्यराज! तेरा काल समीप है।
तुझे मारने के लिए भगवान् गणेश ने अवतार धारण कर लिया है।
मिथ्याभिमान छोड़कर उनकी शरण ले।’अमात्यों ने कहा- ‘त्रिभुवननाथ! आपको अमर रहने का वर प्राप्त है, इसलिए चिन्ता कैसी? आकाशवाणी से इस प्रकार कहलाना देवताओं का षड्यन्त्र मात्र प्रतीत होता है।
आपकी आज्ञा हो तो हममें से कुछ वीर उस स्थान पर जाकर अवसर मिलते ही उस बालक को मार डालें जिससे आप निश्चिन्त हो सकें।’
उग्रेक्षण ने चैन की साँस लेते हुए कहा- ‘यही करना होगा।
शत्रु बालक पर अभी तो काबू पाना सरल है, बाद में वह प्रबल हो सकता है।’
असुरराज की आज्ञा पाते ही अनेक मायावी असुर उठ खड़े हुए और दण्डकारण्य की गिरि-कन्दराओं में रहकर अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
उन्होंने समस्त त्रिसन्ध्या क्षेत्र को अपना लक्ष्य बना लिया।
वे वहाँ की प्रत्येक गतिविधि पर सतर्कता-पूर्वक ध्यान रखने लगे।