<< गणेश पुराण – सप्तम खण्ड – अध्याय – 1
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
मयूरेश्वर का प्रकट होना
द्वन्द्व-युद्ध आरम्भ हुआ।
किन्तु माता पार्वती ने असुर की प्रबलता समझ ली थी, इसलिए उन्होंने मयूरेश का स्मरण किया, इस कारण एक अत्यन्त तेजस्वी ब्राह्मण के रूप में वे प्रकट हो गए और अपने परशु के स्पर्श से महासुर को पीछे हटाते हुए बोले- ‘असुरराज! माता पार्वती जी को मेरे पास छोड़कर शिवजी से युद्ध करो।
फिर जो जीतेगा, वही माता पार्वती को पा लेगा।’
असुर ने उनकी बात मान ली और जगज्जननी को उनके पास छोड़कर शिवजी से युद्ध करने लगा।
वह जब-जब शिवजी को अपने भुज-पाश में लेने का प्रयत्न करता, तब-तब मयूरेश अदृश्य रूप से अपने
परशु का उसके वक्षःस्थल पर परशु प्रहार कर देते।
इसलिए उस समय अत्यन्त व्याकुल हो उठता और उन्हें भुजपाश में न पाता था।
इस प्रकार बहुत बार के परशु प्रहार ने असुर की शक्ति का अत्यन्त क्षय कर दिया, जिससे वह शिथिल होता गया।
तभी भगवान् शंकर ने उसके वक्षःस्थल पर त्रिशूल का तीव्र प्रहार कर दिया, जिसे वह सहन न करके धरती पर गिर पड़ा।
मयूरेश ने उसकी पराजय घोषित करते हुए कहा- ‘असुरेश्वर! तुम युद्ध में शिवजी को नहीं हरा सके, इसलिए माता पार्वतीजी को प्राप्त करने के लिए वही अधिकारी हैं।
तुम तुरन्त उन्हें छोड़कर यहाँ से भाग जाओ, अन्यथा महाकाल शिव तुम्हारा वध कर डालेंगे।’
Shri Ganesh-Puraan Mayooreshvar Ka Prakat Hona
सिन्दूर ने भी अपनी पराजय स्वीकार कर ली।
इस समय उसमें अधिक युद्ध करने की शक्ति नहीं थी।
अतः पार्वती जी को वहीं छोड़कर वह तुरन्त पृथ्वीलोक के लिए चल पड़ा।
तब पार्वती ने चैन की साँस लीं और ब्राह्मण वेशधारी मयूरेश के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हुई बोलीं- ‘विप्रवर! असुर के हाथ से मेरी रक्षा आपकी ही कृपा से हुई है।
मैं आपकी इस कृपा के प्रतिदान में समर्थ नहीं हूँ।
किन्तु आप मुझे अपना परिचय देने का कष्ट करें।’
विप्रवेशधारी मयूरेश ने कहा- ‘माता! मैंने क्या किया है? असुर की पराजय तो भगवान् शंकर के द्वारा हुई है।
मैंने धर्म-संगत निर्णय मात्र ही दिया है।’
‘जो कुछ भी हो’ पार्वती ने कहा- ‘बिना आपकी कृपा के छुटकारे की कोई सम्भावना नहीं दिखती थी।
इसलिए इस समय तो आप मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय प्रतीत होते हैं।
आप कौन हैं? यह बताने की कृपा कीजिए।’
पार्वती जी की प्रार्थना पर भगवान् मयूरेश ने अपना रूप प्रकट किया।
वही रूप-लावण्य, वही गतिविधि, वही शृंगार, वैसे ही दिव्याभरण जो त्रेता में उत्पन्न हुए पुत्र गणेश मयूरेश के थे।
पार्वती उनकी मन्द मुस्कान पर न्यौछावर हो गईं।
बोलीं- ‘गणेश्वर! देवाधिदेव! आपने आकर मेरी रक्षा की।’
मयूरेश ने कहा- ‘माता! आश्चर्य न करो।
मैं पुत्र रूप में सदैव आपके पास हूँ।
त्रेतायुग में स्वधाम गमन के समय आप ने पुनः दर्शन की इच्छा प्रकट की और मैंने द्वापर में दर्शन देना स्वीकार कर लिया था।
अतएव मैं इसी सिन्दूरासुर को मारने के लिए आपके पुत्र रूप में पुनः अवतार लूँगा।
उस समय ‘गजानन’ नाम से मेरी प्रसिद्धि होगी।’
यह कहकर मयूरेश वहीं अन्तर्धान हो गये।
माता पार्वती उनका वियोग दुःख न सहने के कारण मूच्छित होने लगीं तो शिवजी ने उन्हें सँभालते हुए कहा- ‘प्रिये! सावधान हो।
भयूरेश सदैव तुम्हारे साथ हैं, अपने हृदय में उनका दर्शन करो।
उनका कथन कभी मिथ्या नहीं हो सकता।’
शिवजी के वचनों से पार्वती जी को शान्ति हुई और वे उनकी आज्ञा से वृषभारूढ़ होकर उनके साथ कैलास के लिए चल दीं।
वह मार्ग पार करने में उन्हें अधिक विलम्ब न लगा।
अब समाचार ज्ञात होने पर शिवगण मयूरेश्वर का आभार मानने और उनकी जय बोलने लगे।
सिन्दूरासुर द्वारा दिग्विजय
कैलास से चलकर वह असुर पृथ्वी-लोक में गर्जन करता हुआ घूमने लगा।
उसके गर्जन से पृथ्वी कम्पायमान होती, पर्वत-शिखर और वृक्ष धराशायी होते तथा भयभीत पक्षी और पशु इधर-उधर भागते फिरते थे।
आसुरी प्रकृति के मनुष्यों ने भी सिन्दूर को अत्यन्त नलवान् जानकर उनका अनुगामी होना स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार से मनुष्यों का जमघट बढ़ने लगा।
वे उसका आदर करते और आज्ञा पालन में तत्पर रहते थे।
धीरे-धीरे उसके अनुयायियों, साथियों, मित्रों की संख्या बढ़ती गई।
अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्र एकत्र होने लगे, हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाएँ एकत्र होने लगीं।
इस प्रकार उसकी शक्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी।
अब उसने दिग्विजय का निश्चय किया।
आक्रमणों की श्रृंखला चल पड़ी।
जिस राज्य पर चढ़ाई की वही अधीन हो गया।
अनेक राजे मारे गए, अनेक बन्दी हुए, अनेकों ने धनांश मणि-रत्न, वस्त्रादि भेंट देकर सन्धि कर ली।
अनेक नरपति राज्य छोड़कर वनवासी तपस्वी हो गए।
इस प्रकार वह जिधर निकल जाता, उधर ही रक्त की नदियाँ बहा देता।
भीषण नरसंहार की उसकी प्रवृत्ति बन गई।
उसका सामना करने की शक्ति किसी नरेश में नहीं रही।
अन्त में तो यह स्थिति हुई कि वह जिस राजा से जो कुछ माँगता वही उसे बिना विलम्ब, बिना विरोध प्राप्त हो जाता।
जब कोई राजा विरोधी न रहा तो उसने ऋषि-मुनियों की ओर कुदृष्टि की।
न जाने कितने तपस्वी मार डाले और कितने कारागारों में डाल दिये।
जो चुपचाप गिरि-गुफाओं में जा छिपे वे ही अपनी जीवन- रक्षा में सफल रहे।
अब मठ और मन्दिर की बारी थी।
सभी को छति पहुँचाई गई।
सभी नष्ट कर दिए गए।
प्रतिमाएँ खण्डित कर दी गईं।
वैदिक क्रिया-कलाप अपराध घोषित हुई।
स्वाहा, स्वधा, वषट्कार के स्वरों का लोप हो गया।
सर्वत्र हाहाकार सुनाई देने लगा।
पृथ्वी विजय के पश्चात् स्वर्गलोक पर चढ़ाई की गई।
ब्रह्माजी प्रदत्त वरदान की बात सभी को विदित हो गई थी, इसलिए देवगण बहुत कुछ सावधान हो चुके थे।
बहुत से देवता पहिले ही गिरि-कन्दराओं में जा छिपे थे।
असुर ने अमरावती पर आक्रमण किया तो देवराज ने पर्याप्त प्रतिरोध के पश्चात् हथियार डाल दिये और स्वर्ग छोड़कर अन्यत्र चले गए।
देवताओं द्वारा विनायक की स्तुति करना
अवसर प्राप्त होने पर देवताओं ने गुप्त गोष्ठी की, जिसमें सिन्दूरासुर को परास्त करने सम्बन्धी विचार ही चला।
बहुत सोच-विचार के पश्चात् ही यह समझ में न आ रहा था कि असुर को किस प्रकार हराया जाये।
अन्त में देवगुरु बृहस्पति ने उपाय सुझाया- ‘भगवान् मयूरेश का स्मरण करो, वे ही इस संकट को दूर करने में समर्थ हैं।’
देवताओं ने पूछा- ‘वे भगवान् कहाँ मिलेंगे? यह हमें ज्ञात नहीं है।
बताइये, उनसे प्रार्थना करने कहाँ चला जाये?’
देवगुरु बोले- ‘अरे! वे प्रभु तो सर्वत्र विद्यमान हैं।
यहीं रहते हुए भक्तिभावपूर्वक उन्हीं विनायक भगवान् की स्तुति करो वे अवश्य ही प्रसन्न होकर अवतार लेंगे और समस्त संसार को भय मुक्त करने के लिए असुरराज को समाप्त कर डालेंगे।
तुमको भी अपने धाम की प्राप्ति हो जायेगी।’
बृहस्पति से प्रेरणा प्राप्त कर समस्त देवगण एकत्र होकर शान्त, विकार-रहित, भय-रहित एवं भक्तिभाव सहित बैठ गए।
और भगवान् विनायक देव की स्तुति करने लगे-
“जगतः कारणं योऽसौ रविनक्षत्रसम्भवः।
सिद्धसाध्यगणाः सर्वे यत एव च सिन्धवः॥
गन्धर्वाः किन्नरा यक्षाः मनुष्योरगराक्षसाः।
यतश्चराचरं विश्वं तं नमामि विनायकम्॥”
‘जो विनायकदेव संसार के कारण, सूर्य और नक्षत्रों को भी उत्पन्न करने वाले, सभी सिद्धगण, साध्यगण, समुद्र, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, मनुष्य, नाग, राक्षस आदि को प्रकट करने वाले तथा जिनसे इस चराचर रूप सम्पूर्ण विश्व का प्रादुर्भाव हुआ है, उन्हें हम नमस्कार करते हैं।
हे प्रभो! आप जैसे अधीश्वर के सदैव जाग्रत् रहते हुए भी एक तुच्छ असुर ने समस्त विश्व को संकट में डाल रखा है।
इस स्थिति से हमें केवल आपका ही भरोसा है।
क्योंकि-
“अन्यं कं शरणं यामः को नु पास्यति नोऽखिलान्।
जोनं दुष्टबुद्धिं त्वमवतीर्य शिवालये॥”
‘हे नाथ! अब हम किसकी शरण में जायें? हमारी रक्षा अन्य कौन कर सकता है? प्रभो! अब आप स्वयं ही भगवान् शंकर के गृह में अवतरित होकर असुर को समाप्त कीजिए।’
इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् समस्त देवगण, ऋषि-मुनि आदि घोर तपश्चर्या में लगे।
कुछ ने पूर्ण निराहार रहते हुए, कुछ ने संयमित भोजन करते हुए तथा कुछ ने निरन्तर जल में खड़े रहकर भगवान् विनायक का ध्यान और नाम जप किया।
देवादि के कठोर तप से सन्तुष्ट हुए देवाधिदेव गणेश्वर उनके समक्ष प्रकट हो गये।
वे कोटि आदित्यों के समान तेजोमय और दिव्य वस्त्रालंकार धारण किए हुए थे।
देवता आदि ने उनके दर्शन कर हाथ जोड़े और चरणों में साष्टांग दण्डवत् की तथा खड़े होकर उनकी स्तुति करने लगे- ‘प्रभो! हम आज धन्य हो गए।
आपके अलभ्य दर्शन का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है।
नाथ सिन्दूर नामक भयंकर राक्षस बड़े उपद्रव कर रहा है, अतः उसके वध का उपाय कीजिए।’
भक्त की अभिलाषाओं की पूर्ति में कल्पतरु के समान भगवान् गणेशजी ने गम्भीर वाणी में कहा-
“हनिष्ये सिन्दूरं देवा मा चिन्ता कर्तुमर्हथ।
दुःखप्रशमनं नाम स्तोत्रं वः ख्यातिमेष्यति॥”
‘हे देवगण! मैं सिन्दूर नामक उस असुर को अवश्य मार दूँगा।
तुम चिन्ता न करो।
तुम्हारे द्वारा किया गया यह स्तोत्र ‘दुःखप्रशमन’ के नाम से विख्यात होगा।’
‘इस स्तोत्र का माहात्म्य सुनो इसका दिन में एक बार, दो बार या तीन बार पाठ करने वाले के तीनों प्रकार के ताप नष्ट होंगे।
मैं भगवान् शंकर के गृह में ‘गजानन’ नाम से अवतरित होऊँगा।’
भगवान् गणेश्वर देवताओं को इस प्रकार का वर देकर अन्तर्धान हो गए।
देवता एवं ऋषि-मुनि आदि ने अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करते हुए उनका जयघोष किया और फिर सभी अपने-अपने स्थानों को प्रस्थित हुए।
वे मार्ग में भगवान् के अद्वितीय स्वरूप का चिन्तन करते हुए अत्यन्त हर्षित हो रहे थे।