गणेश पुराण – द्वितीय खण्ड – अध्याय – 5


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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


गजानन का पुनर्जीवन-दान वर्णन

देवताओं की प्रार्थना पर शिवजी ने कुछ देर विचार किया और फिर बोले- ‘देवताओ! उत्तर दिशा की ओर जाओ, मार्ग में जो भी प्राणी प्रथम दिखाई दे उसी का सिर काट लाओ और गणेश के कबन्ध पर जड़ दो।

पहिले उस कबन्ध को स्वच्छ करके उसका पूजन करो और फिर काट कर लाये गये सिर को तुरन्त ही कबन्ध पर रख दो।

इस कार्य में उस समय विलम्ब नहीं होना चाहिए।’

शिवजी के आदेशानुसार देवताओं ने पार्वतीतनय के कबन्ध को भले प्रकार धोया और फिर पोंछकर उसका पूजन किया।

तदुपरान्त उत्तर दिशा की ओर चल दिए।

मार्ग में सर्वप्रथम एक दाँत का हाथी मिला।

उन्होंने उसका सिर काटा और गणेश के कबन्ध पर रख दिया।

फिर उन्होंने शिवजी से निवेदन किया ‘त्रिपुरारि! हमने शिवापुत्र के कबन्ध पर हाथी का मस्तक रख दिया है।

अब उसे प्राण प्रदान करने का कार्य ब्रह्मा, विष्णु और आपको करना है।’

कबन्ध पर सिर रखे जाने के समाचार से सभी उपस्थितजन प्रसन्न हो उठे।

फिर समस्त देवताओं ने शिवजी के चरणों में प्रणाम करके निवेदन किया- ‘जगदीश्वर! आपके जिस दिव्य तेज से हम उत्पन्न हुए हैं, वही तेज वेदमन्त्रों द्वारा इस बालक में प्रविष्ट हो ऐसी कृपा कीजिए।

शिवजी ने स्वीकारोक्ति की तथा समस्त देवताओं ने वेद मंत्रों के द्वारा जल को अभिमन्त्रित कर उससे बालक को अभिसिंचित किया।

उस जल का स्पर्श पाते ही बालक में चेतना लौटने लगी और वह कुछ ही क्षणों में जीवित हो गया।

जैसे कोई व्यक्ति सोते से जाग जाता है, वैसे ही उसने नेत्र खोल दिये।

अब उस अत्यन्त सुन्दर बालक का मुख हाथी के समान हो गया।

शरीर का वर्ण लाल था तथा मुखमण्डल पर अत्यन्त उल्लास दिखाई देता था।

उसकी आकृति कमनीय थी।

इस प्रकार शिवापुत्र को पुनर्जीवित हुआ देखकर समस्त देवता और शिवगण अत्यन्त प्रसन्न हो रहे थे।

सभी को विश्वास हो गया कि अब विश्व का संकट दूर हो जायेगा।

कुछ देवता भगवती उमा के पास दौड़े गए।

उन्होंने माता के चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया ‘गणेशजननि! आपका पुत्र पुनर्जीवित हो गया है।

अब आप पूर्ण रूप से प्रसन्न हो जाइये देवेशि!’ पुत्र का पुनर्जीवित होना सुनकर पार्वती जी उधर दौड़ पड़ीं और अपने पुत्र को जीवित देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुईं।

उन्होंने पुत्र को दोनों हाथों से पकड़ कर अपनी गोद में लिया और हृदय से चिपका लिया।

उधर भगवान् शिव भी अत्यन्त प्रसन्न हो रहे थे।

हर्षातिरेक के कारण उनके नेत्र मुंदे जा रहे थे।’

गजानन का अभिषेक तथा वर प्रदान करना

गजानन रूप से उमातनय के पुनर्जीवित होने के उपलक्ष्य में बड़ा भारी आनन्दोत्सव मनाया गया।

सभी देवताओं और गणों के नायकों ने उनका अभिषेक किया।

तब समस्त सिद्धियों ने उनका विधिवत् पूजन किया और कल्याणमयी पार्वतीजी ने अपने दुःखनाशक करकमलों से बालक के अंगों का स्नेहसिक्त स्पर्श किया।

फिर वे उनको बार-बार प्यार करने लगीं तथा बोलीं- ‘पुत्र! तुम्हें बड़ा कष्ट पहुँचाया गया।

परन्तु अब सभी को ठीक प्रकार से शिक्षा मिल चुकी है।’

उन्होंने पुनः कहा- ‘मेरे हृदय! अब उस कष्ट को भूल जा।

अब तो तू पूर्ण रूप से धन्य हो गया।

अब यह सभी देवता, ऋषि-मुनि आदि सर्वप्रथम तेरी ही पूजा किया करेंगे।

आज से तू सभी शुभ कर्मों में अग्र पूजन का अधिकारी हो गया है।

अब भविष्य में तुझे सताने का साहस कोई भी न करेगा।’

तदुपरान्त जगदम्बा ने गजवदन को अमोघ वर प्रदान करते हुए कहा- ‘पुत्र! इस समय तेरा मुख सिन्दूर युक्त दिखाई दे रहा है, इसलिए संसार में तेरी पूजा सिन्दूर से की जायेगी।

पुष्प, चन्दन, गन्ध, नैवेद्य, नीराजन, ताम्बूल, दान एवं नमस्कारादि के द्वारा तेरा पूजन करने वालों को समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और समस्त विघ्नों का निःसन्देह ही शमन हो जायेगा।’

फिर भगवती ने उसे अनेक प्रकार की वस्तुएँ प्रदान कर सम्मानित किया।

तब निर्भय, निश्चिन्त हुए देवता उन पार्वतीपुत्र को भगवान् शंकर के पास ले गये और उनके अङ्क (गोद) में बिठा दिया।

शिवजी ने उनके मस्तक पर वरद-हस्त रखते हुए कहा- ‘यह मेरा द्वितीय पुत्र है।’

तब गजानन ने भी गोद से उठकर अपने पिता भगवान् शंकर के चरण-कमलों में श्रद्धा-सहित प्रणाम किया।

फिर अपनी माता को प्रणाम कर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं और नारदादि ऋषियों का अभिवादन किया और बोले- ‘यद्यपि अभिमान करना तो स्वाभाविक है, फिर भी मुझसे अहङ्कारवश जो अपराध हुआ हो उसे आप सब क्षमा कर दें।’

तब ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों देवताओं ने हर्षित होकर गजानन को इस प्रकार वर दिया-

“त्रैलोक्ये सुरवराः यथा पूज्याः जगत्त्रये।
तथायं गणनाथश्च सकलैः प्रतिपूज्यताम्॥”

‘हे देवगण! जैसे त्रैलोक्य में हम तीनों देवता पूजे जाते हैं, वैसे ही तुम इन गणनाथ का भी पूजन करना।

मनुष्यों का भी कर्त्तव्य है कि वे इन्हीं का पूजन सर्वप्रथम किया करें।

हमारा पूजन इनका पूजन करके ही करें।

यदि कोई इनका पूजन पहले न करके हमारा करेगा तो उसके पूजन का फल नहीं होगा।’

त्रिदेवों की घोषणा सुनकर सभी को बड़ा आनन्द हुआ।

तभी महिमामयी महाशक्ति उमा की प्रसन्नता के लिए त्रिदेवों और सभी देवताओं ने गणेश्वर को सर्वाध्यक्ष की उपाधि से विभूषित किया।

तदुपरान्त उमापति भगवान् शिव ने गजानन को सदैव सुखी करने वाले अनेक वर दिए।

नीलकण्ठ बोले- ‘गिरिजासुवन! हे पुत्र! मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, इसलिए अब तुम समस्त विश्व को ही प्रसन्न हुआ समझो।

क्योंकि मेरी प्रसन्नता में विश्व की प्रसन्नता और मेरे रोष में संसार का रोष निहित है।

अब कोई भी देवता, दैत्य, यक्ष, किन्नर, उरग, मनुष्य आदि तुम्हारे विरोध का साहस नहीं कर सकता।

तुम महाशक्ति के पुत्र हो, इसलिए स्वयं भी अत्यन्त तेजस्वी हो।

तुमने युद्ध में महापराक्रम प्रदर्शित करके स्पष्ट कर दिया है कि तुम्हारा सामना कोई भी नहीं कर सकता, विघ्नों के नाश में तुम सर्वश्रेष्ठ होगे।

सभी के पूज्य होने के कारण मैं तुम्हें अपने समस्त गणों का अध्यक्ष बनाता हूँ।’

शिवजी ने कुछ देर बाद पुनः कहा- ‘गणाध्यक्ष! तुम्हारा जन्म भाद्रपद मास की चतुर्थी को शुभ चन्द्रोदय में हुआ है, इसलिए उस दिन तुम्हारा व्रत रखना भी कल्याणकारी होगा।

यह चतुर्थी व्रत और पूजन सभी वर्ण के मनुष्यों और स्त्रियों को भी करना चाहिए।

जो राजा आदि अपने अभ्युदय की कामना करते हों, वे भी इसे करके अभीष्ट प्राप्त कर सकते हैं।

तुम्हारा व्रत रखने वाला मनुष्य जिस-जिस पदार्थ की कामना करेगा, उस-उस की भी प्राप्ति उसे अवश्य होगी।’

भगवान् शंकर द्वारा इस प्रकार वर प्रदान करने पर समस्त देवताओं, ऋषियों और गणों ने उनका अनुमोदन किया और फिर समस्त उपचारों से विधि-विधानपूर्वक गणाध्यक्ष का पूजन किया।

फिर शिवगणों ने भी उनका पूजन-वन्दन किया और ‘गणाध्यक्ष गजानन भंगवान् की जय’ बोलने लगे।

इससे समस्त त्रिलोकी गूंज उठी।

अपने प्राणप्रिय पुत्र का इस प्रकार सम्मान हुआ देखकर पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुईं।


आनन्दोत्सव का समारोह

अब भारी आनन्दोत्सव मनाया जाने लगा।

देवगण, दुन्दुभियाँ बजाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं, गन्धर्वों ने मधुर ध्वनि में गीत गाये और अन्तरिक्ष से दिव्य पुष्पों की वर्षा हुई।

प्रकृति में भी उल्लास छा गया।

वन और नगर सब वैभव से सम्पन्न हो गये।

सर्वत्र वृक्षों पर मनोहर पुष्प और मीठे फल लंद गये।

हरित तृण एवं पौधों से सम्पन्न हुई पृथिवी ऐसी प्रतीत होती थी, मानो उसने हरी चादर ओढ़ ली हो और उस पर बेल-बूटे आदि का काम हो रहा हो।

देवताओं और अप्सराओं द्वारा किए जाने वाले संगीत एवं नृत्य में समस्त चराचर विश्व तन्मय हो गया।

जो सुनता वही नाचने लगता।

शिवगण, उमा की सहेलियाँ आदि ने भी उसमें भाग लिया।

फिर स्वयं भगवती उमा भी आनन्द में भर कर नृत्य करने लगीं।

तब भगवान् शङ्कर भी कैसे बैठे रहते? वे तो जागृति में सदैव नर्तनशील रहते हैं।

इसलिए डमरू उठाया और नृत्य करने लगे।

यह देखकर समस्त विश्व ही नृत्यात्मक हो गया।

सभी दिशाओं में विद्यमान देहधारी आनन्दमग्न होकर नृत्यरत थे।

लगता था कि सारा विश्व ही नाच रहा है।

इस प्रकार समस्त संसार आनन्दमग्न था।

सभी के दुःख दूर हो चुके थे, सर्वत्र सुख-शांति का साम्राज्य छा गया।

जब आनन्दोत्सव पूर्ण हुआ तब ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवताओं ने सर्वानन्द विग्रह भगवान् गणाध्यक्ष का बारम्बार पूजन किया तथा साथ में शिव की भी स्तुति की।

तदुपरान्त शिव-शिवा और गणपति से आज्ञा लेकर सभी अपने-अपने धाम को चले गए।

श्रीगणेश जी का यह उपाख्यान सब प्रकार से अभीष्ट पूर्ण कराने में समर्थ है-

“इदं सुमङ्गलाख्यानं यः शृणोति सुसंयतः।
सर्वमङ्गलसंयुक्तः स भवेन्मङ्गलायनः॥”

‘इस परम मंगलमय आख्यान को जो उपासक सुसंयत मन से सुनता है, वह समस्त मङ्गलों से सम्पन्न होता हुआ स्वयं भी मङ्गलों का घर ही हो जाता है।’


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