<< गणेश पुराण – द्वितीय खण्ड – अध्याय – 1
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
गणपति का शिवगण से युद्ध वर्णन
यह कहकर पार्वती जी ने अपने पुत्र के मस्तक पर हाथ फेरा और उसके हाथ में एक दिव्य छड़ी दे दी।
इस समय वह अत्यन्त सुन्दर और शोभा सम्पन्न प्रतीत हो रहा था, इसलिए पार्वती जी उसे देखकर आनन्द में अत्यन्त निमग्न हो गयीं।
फिर उसको दुलारकर द्वार पर नियुक्त कर दिया।
बालक गणेश छड़ी लिये हुए द्वार पर डट गये।
इधर पार्वती जी अपनी सखियों सहित स्नानागार में जाकर स्नान करने लगीं।
इसी समय द्वार पर उनका निजी द्वारपाल नियुक्त था, इसलिए किसी के आने की उन्हें चिन्ता नहीं थी।
तभी भगवान् भूतभावन द्वार पर पधारे और शीघ्रता से भीतर प्रविष्ट होने लगे।
उन्हें यह भी ध्यान नहीं था कि द्वार पर कोई शिवगण नहीं, पार्वती-पुत्र खड़ा है।
वे उनसे परिचित भी नहीं थे, इसलिए समझा- अपने गणों में कोई खड़ा होगा।
शिवजी को गृह में प्रविष्ट होने की चेष्टा करते देखकर गणपति ने उन्हें रोकते हुए पूछा-
‘देव, यह माता पार्वती जी का निजी भवन है।
इसमें प्रवेश के लिए उनकी आज्ञा लेना अनिवार्य है।
आप बिना आज्ञा कहाँ जा रहे हैं?
तब चन्द्रमौलि का ध्यान उसकी ओर गया और वे बोले-
‘मूर्ख! तू कौन है? किसे रोकने की चेष्टा करता है? हट आगे से, मुझे भीतर जाने दे।’
गणेश ने कहा-
‘माताजी स्नान कर रही हैं, जब वे वस्त्रादि धारण कर लें तभी उनसे आपके भीतर जाने सम्बन्धी आज्ञा ली जा सकेगी।
तब तक आप यहीं कहीं ठहर जायें अथवा पुनः आने का कष्ट करें।’
त्रिलोचन को व्यवधान अच्छा न लगा, बोले-
‘अरे, तू मुझे जानता नहीं, पार्वती का स्वामी और तीनों लोकों का ईश्वर साक्षात् शिव हूँ।
अतएव मार्ग छोड़कर खड़ा हो।’
गणपति ने मार्ग पूर्णरूप से रोक लिया और बोले-
‘देव! आप कोई भी क्यों न हों, जब तक माताजी की आज्ञा न होगी तब तक आपको भीतर नहीं जाने दूँगा।’
यह कहकर बालक ने हाथ की छड़ी आड़ी कर ली।
शिवजी को उसकी दृढ़ता देखकर आश्चर्य हुआ, बोले-
‘तू तो अत्यन्त बुद्धिहीन प्रतीत होता है रे!
तू कौन है जो मुझे मेरे ही घर में जाने से रोकता है?
अब तू तुरन्त ही मार्ग छोड़कर दूर हो जा।’
यह कहते हुए शिवजी ने पुनः भीतर जाने का उपक्रम किया।
किन्तु मातृभक्त गणेश ने उन्हें पुनः छड़ी से रोक दिया।
यह देखकर शिवजी को बड़ा क्रोध आया, किन्तु अपने क्रोध को दबाकर वे वहाँ से एक ओर हटकर सोचने लगे-यह है कौन जो मेरे मार्ग को रोके हुए खड़ा है?
इस जानकारी के लिए गणों को इसके पास भेजना चाहिए।
उन्होंने गणों को आज्ञा दी ‘तुम लोग उस बालक से पूछो कि वह कौन है?
कब कहाँ से आ गया और किसके आदेश से द्वार-रक्षक के रूप में खड़ा है?’
शिवगणों ने पार्वती-पुत्र के पास जाकर वही प्रश्न दुहरा दिये।
साथ ही बोले- ‘देखने में तुम बहुत ही सुन्दर और कोमल शरीर के बालक हो।
बड़ों की आज्ञा मानने में ही बालक का कल्याण निहित है।
अतः यहाँ से तुरन्त चले जाओ।’
पार्वतीनन्दन ने भी वही प्रश्न किया-
तुम लोग कौन हो? कहाँ से आये हो और मुझे अकारण ही छेड़ने का प्रयोजन क्या है?
अधिकारी पुरुषों की आज्ञा मानने में ही सेवकों का कल्याण निहित है।
इसलिए तुम अविलम्ब यहाँ से चले जाने की कृपा करो।’
गणपति की बात सुनकर शिवगणों को हँसी आ गई, बोले-
‘तुम बड़े विचित्र जीव हो, हमने जो कहा वही तुमने कह दिया।’
फिर कुछ कठोर होकर बोले-
‘तुम्हारा भला इसी में है कि यहाँ से अन्यत्र चले जाओ।
पार्वतीपति भगवान् शङ्कर की यही आज्ञा है।
अभी तक तुम्हें अपने ही समान गण समझकर हमने कोई कठोर व्यवहार तुम्हारे साथ नहीं किया है, यदि नहीं मानोगे तो तुम्हें मारने के लिए विवश होना पड़ेगा।’
गणेश भी हँस पड़े, बोले- ‘मैं माता पार्वती का पुत्र हूँ, उन्हीं ने मुझे इस स्थान पर नियुक्त किया है और आदेश दिया है कि मेरी आज्ञा के बिना किसी को भी भीतर न आने देना।
यदि तुम अपने स्वामी की आज्ञा से मुझे हटाना चाहते हो तो मैं अपनी माता की आज्ञा के कारण यहाँ से नहीं हट सकता।
तुम और तुम्हारे स्वामी चाहें तो यहाँ खड़े रह सकते हैं, किन्तु भीतर प्रविष्ट नहीं हो सकते।’
शिवगण समझ गये कि यह महाशक्ति का अत्यन्त शक्तिमान् पुत्र है, इसलिए यह अपने स्थान से विचलित नहीं होगा।
अतएव शिवगण लौटकर अपने स्वामी की सेवा में उपस्थित हुए और प्रणाम कर बोले-
‘भूतनाथ! यह बालक तो माता पार्वतीजी का पुत्र है और उन्हीं की आज्ञा से द्वार रोककर खड़ा है।
हमने अधिक कहा तो वह युद्ध के लिए प्रस्तुत-सा प्रतीत हुआ।’
शिवजी कुपित हो गये, बोले-
‘अरे, कहाँ एक छोटा बालक और कहाँ तुम अत्यन्त शक्तिशाली गण!
फिर भी तुम उसकी हठ का निवारण न कर सके?
यदि वह इतना दुराग्रही है तो उसे बल प्रयोग द्वारा द्वार से हटा दो।
यदि युद्ध भी करना पड़े तो कर सकते हो।’
गणों ने शिवजी को प्रणाम किया और पुनः भवन-द्वार की ओर चले।
इस बार उन सबने अपने हाथों में विविध प्रकार के शस्त्रास्त्र ले रखे थे।
उन्हें अपनी ओर आते देखकर गणेशजी उनकी ओर तनकर खड़े हो गए।
शिवगणों ने उन्हें पुनः चेतावनी दी
‘बालक! तुम कोई भी हो, अब तुम्हें तुरन्त हटना होगा, अन्यथा तुम अकारण ही मृत्युमुख में जा पहुँचोगे।
क्योंकि हमें भगवान् शिव की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य है।’
गणपति ने भी निर्भीकता से उत्तर दिया-
‘शिवाज्ञा-पालक गणो! तुम बहुत हो और मैं अकेला ही शिवा की आज्ञा के पालन में तत्पर हूँ,
फिर भी माता पार्वती जी अपने पुत्र की और भूतभावन भगवान् शङ्कर अपने गणों की शक्ति को स्वयं देख लें।
अब शिव-शिवा के पृथक् पृथक् पक्ष से क्रमशः निर्बल अकेले बालक का और बलवान् शिवगणों का युद्ध आरम्भ होने को है।
हे शिवगणो! आपने तो पहिले ही अनेक बार युद्ध किया होगा, इसलिए युद्ध में दक्ष होंगे, किन्तु मैं तो अभी युद्ध-कला से ही अनभिज्ञ हूँ।
इसपर भी शिव-शिवा के इस विवाद में तुम्हें पराजय का सामना करना पड़ेगा।
परन्तु ध्यान रहे कि यह हार-जीत तुम्हारी हमारी नहीं, वरन् जगदम्बा-जगदीश्वर की होगी।’
बालक की बात सुनकर शिवगणों को क्रोध आ गया और तब नन्दी, भृङ्गी आदि शिवगणों ने उनपर प्रहार आरम्भ कर दिया।
गणेश जी भी क्रुद्ध होकर छड़ी से ही कठोर प्रहार करने लगे।
दोनों में घोर युद्ध होने लगा।
एक ओर अकेले बाल गणेश और दूसरी ओर अनेकों, दुर्धर्ष वीर शिवगण! किन्तु, कुछ देर में ही शिवगण व्याकुल हो उठे।
महाशक्ति के शक्तिमान् पुत्र इस समय बहुत भयंकर हो उठे-
“कल्पान्तकरणे कालो दृश्यते च भयङ्करः।
यथा तथैव दृष्टः स सर्वेषां प्रलयङ्करः॥”
‘जिस प्रकार प्रलय के अन्त में काल अत्यन्त भयंकर दिखाई देता है, उसी प्रकार पार्वतीनन्दन भी उस समय समस्त शिवगण को प्रलयंकारी दिखाई देते थे।’
परास्त होकर शिवगणों का भागना
इस प्रकार रूप देखकर और युद्ध में पूर्ण रूप से परास्त होकर शिवगण प्राण बचाकर भागे।
उधर पार्वतीवल्लभ अपने स्थान पर बैठे हुए ही यह सब देख रहे थे।
तभी देवर्षि नारद से शिवापुत्र और शिवगणों के युद्ध का समाचार पाकर
ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता वहाँ आकर शिवजी की स्तुति करते हुए बोले-
‘भूतभावन! भूतनाथ! इस समय यह कौन लीला चल रही है?
यदि हमारे करने योग्य कोई कार्य हो तो आज्ञा कीजिए।’
शिवजी बोले- ‘क्या कहूँ? मेरे भवन के द्वार पर छड़ी हाथ में लिये एक बालक मार्ग रोके हुए स्थित है।
वह मुझे घर में नहीं घुसने देता।
उसके प्रहारों से पीड़ित हुए मेरे सभी पार्षद और गण वहाँ से भाग खड़े हुए हैं।
उनमें से अनेक के अङ्ग भङ्ग हो गये, अनेक वहीं गिरकर ढेर हो गये तथा अनेकों के शरीर से रक्त प्रवाहित हो रहा है।
अब आप लोग स्वयं सोचें कि इस स्थिति में क्या कर्त्तव्य हो सकता है?’
भगवान् विष्णु को उधर जाते देखकर शिवगणों ने उन्हें प्रणाम किया –
‘कमलासन! भगवती उमा के प्रबल प्रतापी पुत्र ने हमारी यह दुर्दशा कर डाली है।
उसे वश में करना सरल कार्य नहीं है।’किन्तु विष्णु ने विप्रवेश बनाया और ब्रह्माजी को साथ लेकर पार्वतीनन्दन के पास गये।
उन्हें देखते ही गणपति ने अपनी छड़ी उठा ली तो भगवान् विष्णु बोले-
‘मैं तो शान्त ब्राह्मण हूँ, मेरे पास कोई शस्त्र नहीं है।
इसी से समझ लो कि मैं युद्ध करने के उद्देश्य से नहीं आया हूँ।’
तभी ब्रह्माजी बोले-‘मैं तो साक्षात् कमलोद्भव हूँ।
मेरे साथ तो कृपापूर्ण व्यवहार ही होना चाहिए।’
गणेश बोले- ‘बस, यही कृपा है कि आपको चुपचाप चले जाने दे रहा हूँ।
आप शान्तप्रिय लोग, इस समय बने हुए इस रणक्षेत्र से तुरन्त चले जायें।’
और ब्रह्मा-विष्णु चुपचाप वहाँ से हट गये।
तभी गणों ने भगवान् शंकर के चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया-
‘प्रभो! वह बालक तो हमें प्रलयाग्नि के समान भस्म करने को तत्पर प्रतीत होता है।
उससे युद्ध करना कोई सरल कार्य नहीं है।’
शिवजी के नेत्र लाल हो गये, उन्होंने इन्द्रादि देवताओं और षडाननादि प्रमुख गणों तथा भूत-प्रेत-पिशाच को बुलाकर क्रोध-पूर्वक आज्ञा दी-
‘जैसे भी हो उस बालक को वश में करो।
मेरे ही घर के द्वार पर बैठ कर वह बालक मुझपर ही शासन करे, यह कैसे सहन हो सकता है?’
शिवजी का आदेश मिलते ही समस्त देवता, वीरवर कार्तिकेय, सभी शिवगण और भूत-प्रेत-पिशाचादि ने विभिन्न प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्रास्त्र हाथों में लिये और पार्वतीनन्दन के पास जाकर उन्हें घेर लिया।
उनके चारों ओर दुर्धर्ष दिव्यकर्मा देवगण और अन्यान्य पराक्रमी वीर खड़े थे।
गणपति उनके मध्य में अकेले थे।
किन्तु वे उस महाशक्ति के पुत्र थे, जिसकी समता अन्य कोई शक्ति कर नहीं सकती थी।
चारों ओर एक साथ होने वाले प्रहार से भी विचलित नहीं हुए।
उन्होंने शत्रुओं के सभी प्रहारों को देखते-देखते निष्फल कर दिया।
कोई भी आयुध उनका कुछ भी बिगाड़ने में सफल नहीं था।
महावीर गणपति ने सभी देवताओं, शिवगणों, भूत-प्रेत-पिशाचों को अपने प्रहारों से पीछे हटा दिया और सभी को विह्वल कर दिया।
समस्त शत्रुसेना भाग खड़ी हुई।
उनकी वही दशा हुई जो पहिले भेजे हुए शिवगणों की हुई थी।
गणेशजी जिधर भी प्रहार कर बैठते उधर ही काई-सी फट जाती।
उधर ही रक्त की नदी-सी बहने लगती।
उधर ही कटे अङ्ग के ढेर सारे रक्त की धार में बहते हुए अवयव दिखाई देने लगते।
देवराज इन्द्र का वज्र व्यर्थ हो गया, तारकासुर का वध करने वाले कार्तिक के आयुध निष्फल हो चुके!
अकेले बालक ने ऐसा भीषण संहार कर डाला, यह एक अनहोनी घटना थी! सभी देवगणादि आश्चर्यचकित हो गये थे