<< गणेश पुराण – चतुर्थ खण्ड – अध्याय – 5
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
परशुराम का कैलास पर जाना तथा गणेश्वर का भीतर जाने से रोकना
तदन्तर परशुरामजी ने भगवान् आशुतोष एवं जगज्जननी पार्वती जी के दर्शन की इच्छा की और वे शीघ्र ही कैलास-शिखर पर पहुँचे।
उस समय स्वयं श्रीगणेश्वर द्वार पर विद्यमान थे।
परशुराम ने उनके पास जाकर कहा-‘हे भ्राता! मैं इस समय परम प्रभु और मातेश्वरी उमा के. दर्शन करना चाहता हूँ।
मैंने वसुन्धरा को लीलापूर्वक ही क्षत्रिय-विहीन कर दिया है।
उसमें कार्त्तवीर्य और सुचन्द्र जैसे महापराक्रमी और समर- सिद्ध भूपाल मारे जा चुके हैं।
यह सब कार्य शिव-शिवा की कृपा से ही पूर्ण हुआ है।
इसलिए भी उनके दर्शन करना बहुत आवश्यक है।’
‘हे भ्राता! हे गणेश्वर! आप मुझे उत्तर क्यों नहीं देते? देखो, मैंने उन्हीं परमपिता शिवजी से विविध विद्याओं को प्राप्त किया है तथा दुर्लभ शास्त्रों को अध्ययन करता हुआ उन्हीं के सान्निध्य में पारंगत हुआ हूँ।
उन्हीं जगत्नाथ और अपने गुरुदेव भगवान् शंकर के दर्शनार्थ मैं अन्तःपुर में जाना चाहता हूँ।
अतः आप मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दीजिए।’
परशुराम जी की बात सुनकर गणेश्वर ने कहा- ‘आपको अभी यहीं ठहरना चाहिए।
शीघ्रता में कभी कोई कार्य नहीं बनता।
फिर नीति भी यही कहती है कि देवता, गुरु और राजा के सान्निध्य में जाने से पूर्व उनकी अनुमति अवश्य प्राप्त कर ले जब वे दर्शन देना स्वीकार कर लें, तभी वहाँ जायें।’
‘और, मुनिनाथ! आप तो स्वयं नीतिज्ञ और धर्मज्ञ हैं, आपको तो अभी द्वार पर रुकना ही चाहिए।देखो, मेरे नीतियुक्त वचन सुनो, रहस्यस्थल में अपनी पत्नी के सहित विद्यमान हुए पुरुष के दर्शन कभी नहीं करने चाहिए।
क्योंकि पत्नी के साथ एकान्त में स्थित व्यक्ति को देखना अत्यन्त पाप का भागी होना है।
इस दोष के कारण कालसूत्र नामक नरक की प्राप्ति होती है।’
‘द्विजश्रेष्ठ! यदि उस नरक में अल्पकाल ही रहना पड़े, तब भी, कुछ ठीक रहे, परन्तु वहाँ पहुँचने वाला पापी तो जब तक विश्व में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहती है, तब तक उसे उसी नरक में पड़ा रहना होता है।
परन्तु यह फल उस स्थिति में और भी दृढ़ हो जाता है, जब वह अपने पिता, गुरु अथवा स्वामी आदि की ओर देखता है तब अधिक पतित हो उठता है।
ऐसा पुरुष अपने सात जन्म पर्यन्त स्त्री से विच्छेद न करने के लिए बाध्य रहता है।
यही तथ्य बहुचर्चित हो जाता है तो लोग उसे और पापी कहने लगते हैं।’
‘हे द्विज! यह ऐसे पाप हैं, जिनके कारण प्राणी को चन्द्र-सूर्य की स्थिति रहने तक नरक में निवास करना होता है विशेषकर जो अपने गुरुजनों आदि के रहस्य स्थान में बिना आज्ञा जाता है, उसे वे पाप अधिक दुखदायी होते हैं।’
गणेश्वर के यह वचन सुनकर भृगुनन्दन को हँसी आ गयी और क्रोध दोनों हुए।
वह कुछ गम्भीर एवं निष्ठुर वचन कहने लगे- ‘गणेश्वर! तुम्हारे द्वारा तो आज मैं अत्यन्त अद्भुत और अपूर्व वचन सुन रहा हूँ।
पाप की ऐसी परिभाषा तो मैंने कभी भी नहीं सुनी।
हे भ्राता! काम-विकार का दोष हो चाहे न हो, किन्तु शिशु का, शिशुतुल्य व्यक्ति जिसे कभी कोई विकार व्याप्त नहीं करता, उसे कभी कोई दोष नहीं लगता।
फिर यदि कोई पाप होगा भी तो उससे मैं ही तो प्रभावित हूँगा, आपका उससे क्या प्रयोजन हो सकता है? इसलिए मुझे तुरन्त ही प्रभु के अन्तःपुर में जाने दो, रोको मत।’
गणेश्वर बोले- ‘मुनिनाथ! जो पुरुष अज्ञानान्धकार से आच्छन्न होता है, उसे ज्ञानी पुरुषों से ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुआ करती।
यद्यपि आपमें भी ज्ञानियों के लिए भी दुर्लभ विशिष्ट ज्ञान की सम्पन्नता है, तो मुझ मन्दमति वाले का भी निवेदन मानने की कृपा करो।’
‘हे मुनिनाथ! निर्गुण एवं निर्लिप्त पुरुष में शक्तियों का अभाव रहता है, किन्तु जब उसे सृजन की इच्छा होती है तब वह स्वयं ही शक्ति में आश्रय लेकर सगुण हो जाता है।
हे महामुने! संसार में उत्पन्न समस्त देहधारी भोग के योग्य एवं प्राकृत तो केवल भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं।
उनके दर्शन भी तुरन्त ही नहीं हो जाते।’
परशुराम का गणेश्वर से युद्ध
सूतजी बोले- ‘हे शौनक! उस समय गणेश जी ने परशुराम को रुकने के लिए कहते हुए अनेक युक्तियाँ प्रस्तुत कीं।
परन्तु परशुराम जी तो भीतर जाने के लिए ऐसे उतावले हो रहे थे कि उनकी बात भी नहीं सुनना चाहते थे।
इसलिए गणेश्वर की बात अनसुनी करके भीतर प्रविष्ट होने का प्रयत्न किया।
यह देखकर गणेशजी ने उन्हें पुनः रोका।
परशुराम बोले- ‘अब तुम बिना कुछ बाधा डाले द्वार के मध्य से हट जाओ और मुझे जाने दो, अन्यथा परिणाम ठीक नहीं होगा।
देखो, अभी तुम बालक हो, तुम्हें अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं है।
तुम इससे भी अनजान हो कि मुझमें कितनी शक्ति है।’
गणेश बोले- ‘आप कैसे भी शक्तिशाली क्यों न हों, मैं आपको भीतर नहीं जाने दूँगा।
जब तक मुझे माता-पिता का इस विषय में कोई आदेश नहीं मिलता, तब तक आपको यहीं रोके रखना मेरा कर्त्तव्य है।
यदि यहाँ नहीं रुकना चाहते तो लौट जाओ, बाद में दर्शन करने आ जाना।’
परशुराम ने इसे अपना अपमान समझा, इसलिए गणेश्वर को धक्का देकर भीतर जाने लगे, तभी गणेश ने उन्हें पकड़कर पीछे की ओर धकेल दिया।
इससे परशुराम अत्यन्त क्रोधित हो उठे और उन्होंने प्रहार करने के लिए परशु को सँभाला।
तभी वहाँ स्वामी कार्तिकेय आ गये।
उन्होंने कहा- ‘मुनिवर! यह क्या कर रहे हो? गणेश्वर तुम्हारे गुरु भगवान् शंकर का पुत्र है, इसलिए गुरु के ही समान है।
यदि तुम इसका वध कर बैठते तो क्या शिव-शिवा की प्रसन्नता प्राप्त कर सकोगे?’
परशुराम कुछ बोले नहीं, उन्होंने फरसा हाथ से फेंक दिया और बोले- ‘मुझे वहाँ जाने से कोई नहीं रोक सकता, नहीं रोक सकता।
अरे मूढ़ बालक! मैं अब तक तुझे गुरुपुत्र का सम्मान देता रहा हूँ, किन्तु एक तू है कि अपना हठ ही नहीं छोड़ना चाहता।’
गणेश बोले- ‘मुनिनाथ! इस समय आप भीतर नहीं जा सकते।
इस क्रोधावस्था में तो तुम्हें शिव-शिवा के समक्ष जाने का अधिकार है भी नहीं।
देखो, इस प्रकार वहाँ जाने से अनिष्ट की भी सम्भावना हो सकती है।
मेरे विचार में तो तुम्हारा इस समय यहाँ से लौट जाना ही श्रेयस्कर है।’
गणेश्वर का पराक्रम
परन्तु परशुराम मानते ही न थे।
उन्होंने क्रोधपूर्वक गजानन को धक्का देकर हटाया।
उसके फल स्वरूप गजानन गिर पड़े और शीघ्र ही सँभलकर उठ बैठे।
उन्होंने फिर भी अपने-आपको क्रोध-रहित और शान्त बनाये रखा तथा परशुराम को पुनः रोककर कहा- ‘मुनिवर! भलाई इसी में है कि तुम तुरन्त यहाँ से लौट जाओ।
हे प्रभो! बिना परमेश्वर शिव की आज्ञा के उनके अन्तःपुर में प्रवेश करने की आप में क्या शक्ति है? आप मेरे पिता के शिष्य होने के सम्बन्ध में मेरे भाई होते हैं और इस समय अतिथि भी हैं, इसलिए आपकी यह हठधर्मी सहन कर रहा हूँ, अन्यथा-
“नह्यहं कार्त्तवीर्यश्च भूपास्ते क्षुद्रजन्तवः।
अतो विप्र न जानासि मां च विश्वेश्वरात्मजम्॥”
“मैं कार्त्तवीर्य नहीं हूँ और न क्षुद्र जन्तु रूप राजाओं का समूह ही हूँ, जिन्हें आपने मार डाला था।
हे विप्र! क्या तुम नहीं जानते कि मैं विश्वेश्वर भगवान् शंकर का पुत्र हूँ?
हे विप्र! अतिथि! क्षणभर ठहरो और युद्ध से निवृत्त होओ, क्षणभर व्यतीत होने पर मैं तुम्हारे साथ उन परमपिता के समीप चलूँगा।”
सूतजी बोले-
‘हे शौनक! भगवान् श्रीनारायण ने यहाँ तक का उपाख्यान सुनाकर महर्षि नारद से कहा-
‘गणेश्वर के वचन सुनकर परशुराम अट्टहास करने लगे और तब भगवान् शंकर का ध्यान करके पुनः अस्त्र प्रहार करने का विचार किया।
तभी गणेश जी ने धर्म को साक्षी करके योग-विधि के द्वारा अपनी सूँड़ को करोड़ों योजन लम्बी करके परशुराम को उसमें लपेट लिया और फिर उन्हें चारों ओर घुमाने लगे।’
अब परशुराम निरुपाय थे।
उनका क्रोध न जाने कहाँ लुप्त हो गया! योगिराज गणेश्वर की सूँड़ में लिपटकर चक्र के समान घूमते हुए परशुराम स्तम्भित और असहाय हो गये थे।
उनकी समझ में न आया कि वह सब क्या और कैसे हो रहा है? अनन्त शक्ति-निधान गणेश्वर ने परशुराम जी को सप्त द्वीप, सप्त पर्वत, सप्तसिन्धु तथा भूलोक, भुवर्लोक, जनलोक, तपोलोक, ध्रुवलोक, गौरीलोक और शम्भुलोक के दर्शन कराये और फिर गहन समुद्र में फेंक दिया, जहाँ वे प्राणरक्षार्थ जल में तैरने लगे।
यह देखकर गणेश्वर ने उन्हें पुनः अपनी सूँड़ में लपेटकर घुमाया और भगवान् विष्णु के बैकुण्ठ तथा भगवान् श्रीकृष्ण के गोलोकधाम के दर्शन कराये।
वहाँ परशुराम ने रासेश्वरी श्रीराधा जी के साथ भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन किए।