गणेश पुराण – चतुर्थ खण्ड – अध्याय – 5


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कार्त्तवीर्य-परशुराम-युद्ध

राजा कार्त्तवीर्य ने अनेक बांधवों और राजाओं को भी युद्ध का निमन्त्रण दिया था, इस कारण अनेक राजागण उसके साथ रणक्षेत्र में जा पहुँचे।

वे सभी रत्न-मणिजटित अलंकारों से अलंकृत एवं श्रेष्ठ मुकुट, कुण्डलादि से सुशोभित थे।

महर्षि परशुरामजी को जैसे ही सूचना मिली कि राजा कार्त्तवीर्य अनेक सेनाओं और बान्धवों के साथ युद्ध की इच्छा से समुपस्थित हो गया है, तो उन्होंने अपने शिष्यों को उनका सामना करने का आदेश दिया।

परशुरामजी के वे शिष्य भी महान् पराक्रमी और मन्त्रविद् एवं शस्त्राभ्यासी थे।

समस्त मुनि-समुदाय युद्ध-भूमि में समुपस्थित हो गया।

राजा कार्त्तवीर्य ने परशुराम जी को देखा तो तुरन्त रथ से उतरकर उन्हें प्रणाम करने को जा पहुँचा।

परशुराम ने राजा को चरणों में पड़े देखा तो समयोचित आशीर्वाद देते हुए बोले- ‘राजन्! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हें युद्ध में मरने पर तुरन्त ही स्वर्ग की प्राप्ति हो।’

राजा प्रणाम करके लौटा और अपने रथ पर जा बैठा।

अब दोनों सेनाओं में युद्ध आरम्भ हो गया।

इधर राजागण अपनी-अपनी प्रबल सेनाओं के साथ और उधर ऋषियों का समुदाय।

अभूतपूर्व दृश्य दिखाई दे रहा था।

रणोन्मत्त क्षत्रियों के समक्ष ब्राह्मणों की वह सेना अपनी विजय का दृढ़ विश्वास लिये लड़ रही थी।

उस युद्ध को आकाशचारी देवगण भी देख रहे थे।

उनकी भी इतनी भीड़ थी, मानो कोई मेला लग रहा हो।

वे सभी उन अद्भुत युद्ध की बात सुनकर ही वहाँ एकत्र हो रहे थे।

कोई नहीं जानता था कि विजय किस पक्ष की होगी।

क्योंकि दोनों ओर की सेनाएँ एक-दूसरे पर भीषण प्रहार कर रही थीं।

यह कथा सुनते हुए नारदजी ने पूछा- ‘प्रभो! यह तो आपने अद्भुत उपाख्यान सुनाया है।

उस समय क्षत्रियों से युद्ध करने वाले ब्राह्मणों की संख्या क्षत्रियों से कम थी या अधिक?’

नारायण ने कहा- ‘ब्राह्मणों की संख्या क्षत्रियों से तो बहुत कम थी, फिर भी वह प्राणपण से युद्ध-रत थे और क्षत्रिय वीरों का मान मर्दन करते जा रहे थे।’

सूतजी बोले- ‘हे शौनक! इतनी कथा कहने के पश्चात् श्रीनारायण ने नारद जी को बताया कि फिर भी, क्षत्रिय तो क्षत्रिय ही थे।

उन्हें युद्ध का बड़ा भारी अभ्यास था।

वे सभी दाँव-पेंचों के जानकार थे तथा संख्या में अधिक होने के कारण भी उनका साहस बढ़ा हुआ था।

इस कारण उन्होंने कुछ ऐसी युक्ति से युद्ध किया कि परशुराम जी के समस्त बान्धव और शिष्यगण उनसे हल्के पड़ने लगे और कुछ समय बाद ही रणांगण छोड़कर भाग खड़े हुए।

उनमें से अधिकांश के अंग-भंग हो गए अथवा अनेक आहत हो गए और सभी अपने-अपने प्राण बचाकर भागे।

परशुरामजी को उस समय यह ध्यान नहीं था कि कहाँ क्या हो रहा है? वे न तो राज-सेनाओं को देख रहे थे, न अपने बान्धवों और शिष्यों को।

उन्होंने परिपूर्ण आग्नेयास्त्र का संधान कर राजा पर छोड़ा; किन्तु राजा ने भी वारुणास्त्र के द्वारा उनके उस भयंकर अस्त्र का लीलापूर्वक ही शमन कर दिया।


परशुराम का शूल से मूर्च्छित होना

फिर राजा ने परशुराम जी पर अमोघ शूल से प्रहार किया।

इस कारण परशुराम अत्यन्त पीड़ित और मूच्छित हो गये।

जब उन्हें चेत हुआ तब वे भगवान् शंकर का और श्रीहरि का स्मरण करते हुए उठ खड़े हुए।

जब वे मूच्छित हुए थे, तब राजा को बड़ा खेद हुआ था।

वे दुखित हृदय से एक ओर बैठ गये और मुनिवर के सचेत होने की प्रतीक्षा करने लगे।

जब परशुराम जी को चेत हो गया तो उन्होंने राजा से कहा-

“राजेन्द्रोत्तिष्ठ समरं कुरु साहसपूर्वकम्।
कालभेदे जयो नृणां कालभेदे पराजयः॥”

‘हे राजेन्द्र! उठो, साहसपूर्वक युद्ध में तत्पर होओ।

मनुष्यों को काल के भेद से विजय की और काल के भेद से ही पराजय की प्राप्ति होती है।

भूपाल! आपने श्रीदत्तात्रेय जी से विधिपूर्वक शास्त्रशस्त्र का अध्ययन किया और समस्त पृथ्वी पर भले प्रकार शासन किया है, जिनसे आपको सर्वत्र सुयश की भी प्राप्ति हुई है।

आप अपने ही बाहुबल से चक्रवर्ती राजा बने हुए हैं।

सभी राजाओं को, यहाँ तक कि रावण को भी आपने जीत लिया है।

मुझे भी श्रीदत्तात्रेय-प्रदत्त शूल के द्वारा आपने जीता है।

क्योंकि उसी शूल से मुझे मूर्च्छा की प्राप्ति हुई थी।

किन्तु, भगवान् शंकर ने मुझे पुनः जीवित कर दिया है।’

परशुराम के वचन सुनकर उस धार्मिक राजा ने उनके चरणों में मस्तक नवाकर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोला-

“किमधीतं किंवा दत्तं का पृथिवी सुशासिता।
गताः कतिविधाः भूपाः मादृशाः धरणीतले॥”

‘मुनिनाथ! मैंने क्या पढ़ा, क्या दिया और क्या पृथ्वी का शासन किया? अर्थात् यह जो कुछ भी किया सब तुच्छ ही था।

क्योंकि मेरे समान न जाने कितने भूपाल पृथिवीतल पर उत्पन्न हुए और न जाने किधर चले गये?’

उसके अनन्तर उसने पुनः परशुराम जी को प्रणाम किया और बोला- ‘मुझे क्या आज्ञा है मुनिप्रवर?’

उन्होंने उत्तर दिया- ‘उठ कर युद्ध करो।

रणांगण में उपस्थित होने पर क्षत्रिय का युद्ध ही कर्त्तव्य है।

युद्ध उसका धर्म और जीवन है।

इसलिए राजन्! युद्ध के अतिरिक्त तुम्हारे लिए कोई अन्य गति है ही नहीं।’

राजा उठकर अपने रथ पर आरूढ़ हो गया।

पुनः घोर संग्राम आरम्भ हुआ।

राजा ने अपने धनुष-बाण चढ़ाकर छोड़ा, जिसे परशुराम जी ने बीच में ही काट दिया।

इधर राजा प्रहार कर रहा था और उधर राजाओं के दल उनपर प्रहार करने में लगे थे।

यह देखकर मुनिवर ने राजा की ओर से हटकर पहिले उसके सहायक राजाओं और सेनाओं से युद्ध आरम्भ कर दिया।

इस बार उनके प्रहार बहुत तीव्र थे।

सेनाएँ उनके उन प्रहारों को सहन करने में समर्थ न थीं।

अनेकों वीर धराशायी होने लगे।

अनेकों को भीषण आघात पहुँचा और व्याकुल होकर भागे।

उन्हें भागते देखकर अन्य सैनिकों ने भी विभिन्न दिशाओं में भागना आरम्भ कर दिया।

इस प्रकार रणभूमि में भगदड़ मच गई।


परशुराम का पृथ्वी को २१ बार क्षत्रिय-विहीन करना

अब परशुराम जी कार्त्तवीर्य के मित्रों और बन्धुओं पर प्रहार करने लगे।

घोर संग्राम छिड़ा था।

उस युद्ध-यज्ञ में अनेक राजागण हत हुए जा रहे थे।

यह देखकर कार्त्तवीर्य ने भी भगवान् श्रीहरि का एवं शंकर का स्मरण करते हुए पाशुपतास्त्र का सन्धान किया जिसके लगने से मुनि को बहुत पीड़ा हुई और वे पुनः मूच्छित हो गये।

परन्तु शीघ्र ही उन्हें चेतना लौट आई और पुनः युद्ध करने लगे।

कभी राजा पीड़ित होता तो कभी परशुराम पीड़ित होते।

अन्त में परशुराम ने राजा पर विजय प्राप्त कर ली।

इस प्रकार हे शौनक! परशुराम ने इस वसुन्धरा को इक्कीस बार राजाओं से विहीन कर दिया था।

राजा कार्त्तवीर्य भगवान् श्रीकृष्ण के गोलोकधाम में उनके सान्निध्य को प्राप्त हुआ तथा परशुराम भी उन्हीं भगवान् का स्मरण करते हुए अपने आश्रम को लौट गये।

जब उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को अपने परशु (फरसा) मात्र से क्षत्रिय-विहीन किया था, तभी भगवान् शंकर ने उनका नाम ‘परशुराम’ रख दिया था।

उस समय उनके ऊपर देवता, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, किन्नर एवं देवियाँ आदि ने पुष्प वर्षा कीं।

हर्ष के कारण स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं और सर्वत्र हरिनाम का कीर्तन होने लगा।

तदुपरान्त परशुराम कृत यज्ञों से यह समस्त धरतीतल पूर्ण रूप से तृप्त एवं सम्पन्न हो गयी।


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