<< गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 8
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
शिव-पार्वती-संवाद वर्णन
शौनक बोले-
‘हे सूतजी! हे प्रभो! आपने भगवान् गणेश्वर के बड़े सुन्दर-सुन्दर चरित्रों पर प्रकाश डाला है।
वस्तुतः यह चरित्र सुनाने में आप ही समर्थ थे।
हे दयामय! उनके और भी जो-जो महत्त्वपूर्ण चरित्र हों, उन्हें कहने की कृपा कीजिए।’
सूतजी ने प्रसन्न होकर कहा-
‘हे शौनक! हे महाभाग! तुम धन्य हो जो गणेश्वर का चरित्र सुनते-सुनते तुम्हारी तृप्ति ही नहीं होती।
अब मैं तुम्हें इन्हीं से सम्बन्धित एक अन्य कथा सुनाता हूँ।
एक बार नारद जी सत्यलोक में गये थे।
वहाँ उन्होंने लोकपितामह ब्रह्माजी से पूछा था कि –
‘प्रभो! सर्वसुलभ उपासना किस देवता की है?
अधिक कठिनाई भी न हो और अभीष्टों की भी प्राप्ति हो जाय।’
ब्रह्माजी बोले-
‘देवर्षे! तुम्हारे जैसा ही प्रश्न एक बार पार्वती जी ने भगवान् शंकर से किया था।
शिवजी बोले-
‘श्रीगणेशजी की उपासना ही सर्वसुलभ और समस्त अभीष्टों को देने वाली है।’
पार्वती जी को इतने उत्तर से सन्तोष नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने पूछा-
‘यह उपासना करके किस-किस को सहज में ही अभीष्ट सिद्धि हो गई सो बताइये नाथ!’
शिवजी द्वारा सुदामा के वैभव-सम्पन्न होने का वर्णन
शिवजी बोले-
‘हे प्रिये! द्वापर युग की बात है, सुदामा नामक एक अत्यन्त दरिद्र, सदाचारी एवं विद्वान् ब्राह्मण थे।
वे आर्थिक संकट से बहुत ही दुःखित रहते थे।
एक दिन उनकी पत्नी ने उनसे निवेदन किया – ‘प्राणनाथ! आप व्यर्थ ही इतना कष्ट क्यों उठा रहे हैं? भगवान् त्रिलोकीनाथ आपके बालमित्र हैं, आप उनके पास जाइये।
वे प्रभु आपकी दरिद्रता अवश्य ही दूर कर देंगे।’
यद्यपि सुदामा अपने मित्र से कुछ माँगना नहीं चाहते थे, तथापि उन्हें पत्नी के अत्यधिक आग्रह के कारण जाना पड़ा।
पत्नी ने थोड़े से चावल मैले चिथड़े में बाँधकर सौगात के रूप में उन्हें दे दिये।
बेचारे सुदामा मार्ग पार करते हुए किसी प्रकार द्वारिकापुरी पहुँचे।
किन्तु राजभवन पर जो प्रहरी थे, उन्होंने उन्हें घुसने नहीं दिया, बोले-
‘बावला हुआ है क्या? वे राज-राजेश्वर तेरे जैसे फटे-हाल से कैसे मिलेंगे?’
सुदामा ने अपनी मित्रता की बात बताई तो वे हँसने लगे।
किन्तु, बहुत आग्रह करने पर उन्हें दया आ गई।
एक प्रहरी ने द्वारिकापति से जाकर कहा- ‘प्रभो! कोई सुदामा नामक दरिद्र ब्राह्मण द्वार पर खड़ा है, वह मिलना चाहता है आपसे।’
सुदामा का नाम सुनते ही भगवान् दौड़े आये द्वार पर और गले मिलकर लिवा ले गये अपने साथ।
सभी प्रहरी अवाक् देखते रह गये! राजभवन में सुदामा का बड़ा भव्य स्वागत हुआ।
दोनों मित्र बड़े प्रेम से पुरानी बातें कर रहे थे, तभी उन्होंने सुदामा के साथ ही पोटली देख ली।
सुदामा उसे छिपाने लगे तो भगवान् ने उसे झपट कर खोला और कुछ चावल खाकर बोले-
‘यह तो बड़े स्वादिष्ट हैं मित्र! ऐसे अमृतोपम पदार्थ को मुझसे छिपाते हो?’
फिर कुशल-प्रश्न हुआ दोनों ओर से।
सुदामा ने सर्वकुशल बताते हुए अपनी दरिद्रता की बात कही जिसे सुनकर श्रीकृष्ण बोले-
‘मित्र! तुम गणेश्वर की पूजा नहीं करते हो क्या?
यदि उन प्रभु को प्रसन्न कर लो तो सभी कामनाएँ पूर्ण हो जायें।’
सुदामा ने पूछा-
‘यह गणेश्वर कौन हैं? इनकी पूजा का विधान क्या है?’
भगवान् बोले-
‘गणेश्वर उस परब्रह्म परमात्मा का ही नाम है जो अनादि, अनन्त, सर्वेश्वर एवं परम पूजनीय हैं।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी उन्हीं के अनुशासन में रहकर सृष्टि के संग पालन और लय करते हैं।
वे ही प्रभु एकमात्र उपासनीय एवं सर्व कामदाता हैं।
समस्त देवता, ऋषि-मुनि एवं वेदज्ञ ब्राह्मण उन्हीं गणेशजी की उपासना में सदैव लगे रहते हैं।
तुम भी उन्हीं का पूजन और व्रत करो।’
सुदामा ने पूछा-
‘गणेशजी का व्रत कब करना चाहिए?
उनके ध्यान, पूजन, व्रतांत को कैसे किया जाता है, यह भी कहिए।’
कृष्ण बोले-
‘हे विप्रवर! हे सखे! तुम इनका व्रत किसी भी मास की चतुर्थी में कर सकते हो।
अथवा वैशाखी पूर्णिमा, कार्तिकी पूर्णिमा या अन्य किसी पुण्य अवसर पर करो।
यदि मंगल, शुक्र या रविवार के दिन करो तो भी शुभ है।
प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए।
फिर तिल और आँवले के चूर्ण का उबटन लगाकर पुनः स्नान करे।
‘एक स्नान प्रदोष काल में और भी कर ले तो अत्युत्तम।
स्नान के पश्चात् स्वस्तिवाचन, पुण्याहवाचन एवं नवग्रहों का पूजन करे।
धरती को गोबर से लीपकर चौक पूरे और चौकी रखकर उसपर कलश स्थापन करे।
फिर गणेशजी की धातु की, मृत्तिका की मूर्ति स्थापित कर षोड़शोपचार से पूजन करे।
भोग में उत्तम घृतादि के साथ निर्मित मोदक रखे।
यदि यह सम्भव न हो तो समस्त उपचार मानसिक भी हो सकते हैं।
हे मित्र! भावना सर्वोपरि है, इसलिए पूजन में भक्तिभाव भी विशेष फलदायक होता है।
यदि श्रद्धा हो तो पूजन कार्य सम्पन्न होने पर ब्राह्मणों को भोजन करावे और यथाशक्ति दक्षिणा दे।
सबके अन्त में अपने परिवारीजनों एवं पत्नी, पुत्रादि के साथ बैठकर स्वयं भोजन करे।
यह व्रत का विधान तुम्हें बता दिया है।’
सुदामा बोले-
‘इस व्रत को पहिले किसने किया था?’
श्रीकृष्ण ने इसके उत्तर में कहा-
‘एक बार प्रलय के पश्चात् सृष्टि की उत्पत्ति होनी थी।
परन्तु ब्रह्माजी को अनेक विघ्नों का सामना करना पड़ा।
तब ब्रह्माजी ने गणपति का ही पूजन किया और उनसे शक्ति प्राप्त करके सृष्टि रचना का कार्य सम्पन्न किया।
हे सखे! मुझे भी दुष्ट-दलन करके धर्म संस्थापनार्थ अवतार लेने की शक्ति उन्हीं गणाधीश्वर से प्राप्त हुई है।
मैं तो प्रति शुक्रवार में गणेशजी का व्रत किया करता हूँ।’
यह सुनकर सुदामा के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अयाचित वृत्ति से प्राप्त होने वाले द्रव्य से वहीं गणेशजी के पूजन का संकल्प किया और श्रीकृष्ण के परामर्श से उन्हीं के साथ आराधन कर प्रसाद ग्रहण किया और फिर उन्होंने भगवान् से घर जाने की अनुमति माँगी।
जब चले गये तब श्रीकृष्ण उन्हें बहुत दूर तक पहुँचाने आए।
फिर सुदामा के आग्रह से अपने भवन को लौटे।
व्यापारी के धन चोरी होने का वर्णन
उधर सुदामा जी अपने घर को शीघ्रता से चल पड़े, तभी मार्ग में उनकी मणि नामक एक धनवान व्यापारी से भेंट हुई।
रात्रि में सुदामा जहाँ ठहरे थे, वहीं व्यापारी आ ठहरा।
किन्तु जब वह प्रगाढ़ निद्रा में था तब चोरों ने उसका सभी बहुमूल्य धन चुरा लिया।
जब उसकी आँख खुली, तब उसने वह संकल्प किया कि
‘यदि गया हुआ धन मिल जाय तो उसका आधा भाग ब्राह्मण को दान कर दूँगा।’
उसने ऐसा निश्चय किया ही था कि उसे एक सन्दूक कुछ ही दूर पड़ा दिखाई दिया।
दौड़कर उसने सन्दूक उठाया तो यह बहुत सारे रत्नादि से भरा पाया।
उसने प्रसन्न होकर सन्दूक का आधा धन सुदामा को दान कर दिया।
सुदामा को उससे बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उस धनिक व्यापारी को भी साथ लेकर भगवान् गणाध्यक्ष का वहीं पूजन किया।
सायंकाल में जब पूजन कार्य सम्पन्न हो गया, तब सुदामा को भगवान् गणेश्वर के साक्षात् दर्शन हुए।
सुदामा ने भक्तिभावपूर्वक उनके चरण पकड़ लिये और स्तवन करने लगे।
उन्होंने प्रभु से निवेदन किया-
‘हे दयानिधे! हे सत्यस्वरूप! परात्पर ब्रह्म! आप परम दयालु और भक्तवत्सल हैं।
हे नाथ! आपकी महिमा अपरम्पार है, जिसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी नहीं जान पाते, तो मेरे जैसे तुच्छ जीव के तो कहने ही क्या हैं? हे प्रभो! आप सर्वशक्तिमान् की स्तुति के लिए सार्थक शब्दों का भी तो मुझे ज्ञान नहीं है।
हे दीनबन्धो! मुझपर दया कीजिए, आपको बारम्बार नमस्कार है, नमस्कार है।’
श्रीगणेश जी ने प्रसन्न होकर सुदामा के मस्तक पर अपना वरदं हस्त फेरते हुए कहा- ‘विप्रश्रेष्ठ! वर माँगो।
मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ।’
सुदामा ने हाथ जोड़कर कहा- ‘करुणासिन्धो! जब आप सर्व ऐश्वर्यमय की मुझपर पूर्ण कृपा है तो फिर क्या माँगूँ? हे नाथ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे अपनी अनन्य दृढ़ भक्ति प्रदान कीजिए।
बस, यही मेरे लिए अत्यन्त श्रेष्ठ वर होगा।’
गणेश्वर ‘एवमस्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गए।
उस समय वह धनिक भी वहाँ उपस्थित था।
उसने सुदामा से गणेशजी के पूजन और माहात्म्य सम्बन्धी कुछ बातें पूछीं और फिर उसने स्वयं भी श्रीगजानन का व्रत करने का संकल्प किया। सुदामा पर भगवान् गणाध्यक्ष की बड़ी महती कृपा हुई।
सुदामा वहाँ से चलकर अपने घर पहुँचे तो यह देखकर अत्यन्त विस्मय करने लगे कि वहाँ कहीं भी उनकी पर्णकुटी नहीं है।
वरन् एक अत्यन्त वैभवशाली भवन खड़ा है जो वहाँ कभी नहीं था।
सुदामा सोचने लगे कि यह क्या हुआ? क्या किसी ने मेरी कुटी तुड़वाकर अपना महल बनवा लिया? और यदि ऐसा है तो मेरी पत्नी कहाँ गई?
सुदामा इस प्रकार चिन्ता में पड़े थे, तभी उनकी पत्नी ने भवन के भीतर से उन्हें देख लिया और सेवकों को उन्हें बुला लाने की आज्ञा दी।
जब सुदामा भीतर गए तो उनकी पत्नी ने कहा- नाथ! रात में मैं अपनी पर्णकुटी में सोई थी और प्रातः आँख खुलने पर अपने को इस राजसी भवन में पाया।
मुझे आश्चर्य है कि यह सब क्या हो गया! यह इतने दास-दासी भी न जाने कहाँ से आ गए?’
तब सुदामा ने भगवान् गणेशजी के प्रसन्न होने का समस्त वृत्तान्त आद्योपान्त सुना दिया।
फिर तो वे प्रति मास ही गणेशजी का पूजन करने लगे तथा यहाँ सर्वसुख भोगकर अन्त में गणेश-लोक को प्राप्त हुए।
चोरों से वैश्य को धन की पुनः प्राप्ति कथन
शौनक बोले- ‘हे प्रभो! यह तो आपने बड़ा सुन्दर वृत्तान्त सुनाया।
अब यह बताने की कृपा करें कि उस वणिक् व्यवसायी ने घर जाकर क्या किया तथा उसे जो रत्नों से भरा सन्दूक मिला था, वह किसका था? तथा सहसा कहाँ से आ गया? मेरी यह जिज्ञासा शान्त करने की कृपा कीजिए।’सूतजी ने कहा- ‘शौनक! तुमने अच्छा प्रश्न किया है।
उस धनिक को जो रत्नादि धनों से भरा हुआ सन्दूक मिला था, वह भगवान् विघ्नराज की कृपा ही थी।
उन्होंने सुदामा को धन प्राप्त कराने के लिए ही वह धन वहाँ सहसा उत्पन्न कर दिया था।
‘अब उस वैश्य का वृत्तान्त सुनो वह कच्छभुज नामक नगर का निवासी था और व्यापार के उद्देश्य से ही परदेश में गया था।
उसने अपने नगर में लौटकर भगवान् विघ्नराज का पूजनोत्सव बड़े समारोह से किया, जिसमें नगर के प्रतिष्ठित व्यापारी, अधिकारी एवं उसके बहुत से बान्धव आमन्त्रित किए गए।
अनेकों वेदज्ञ ब्राह्मणों ने उस पूजन कर्म में योग दिया।
उस धनिक ने ब्राह्मण-भोजन कराके प्रचुर धन दाने-दक्षिणा में दिया।
वैश्य के एक परम मित्र थे राजा के प्रधान अमात्य चित्रबाहु।
वे भी प्रसाद-ग्रहणार्थ बुलाये गये थे।
प्रसाद ग्रहण के बाद चित्रबाहु के द्वारा यात्रा के कुशलता से पूर्ण होने की बात पूछने पर उसने धन के चोरी जाने और प्रभु कृपा से अन्य रत्न-राशि प्राप्त होने की बात सुनाई।
इसके पश्चात् उत्सव का आयोजन सम्पन्न हुआ।’
एक दिन कुछ लोग चित्रबाहु के पास जाकर विक्रयार्थ रत्नादि दिखाने लगे तो चित्रबाहु ने रत्नों के असली होने की परीक्षा के लिए अपने मित्र वैश्य को बुलाया।
उसने रत्नों को देखकर पहचान लिया कि वह वही रत्न हैं जो मेरे पास से चोरी गए थे और यह बात उसने सबके सामने चित्रबाहु से कह दी।
तब चित्रबाहु ने रत्न लाने वालों से कहा, ‘बताओ, तुम्हें यह रत्न कहाँ से प्राप्त हुए?’
पहिले तो उन्होंने कुछ उल्टी-सीधी बातें बनाईं, किन्तु जब उन्होंने चित्रबाहु के आदेश पर अपने को राजसैनिकों से घिरे पाया तो रोते हुए बोले- ‘प्रधान जी! हमारा अपराध क्षमा कर दें तो हम अभी सब बात बताते हैं।’
चित्रबाहु ने कहा कि सत्य कहोगे तो क्षमा कर दिए जाओगे।
तब उन्होंने स्वीकार किया कि मार्ग में उस वैश्य से ही यह धन चुराया था।
इसके पश्चात् उन्होंने वह धन वैश्य को लौटा दिया।’
चित्रबाहु ने उन चोरों से कहा-
‘देखो, यह भगवान् गणेश्वर का ही प्रभाव है जो तुम लोग धन लेकर यहाँ खिंचे चले आए हो।
यदि सुख-समृद्धि चाहते हो तो चोरी का धन्धा छोड़कर अन्य कार्य में लगो और भगवान् गणाध्यक्ष का व्रत, पूजनादि करो तो तुम्हें सहज ही समस्त धन प्राप्त हो जायेंगे।’
यह सुनकर चोरों ने भविष्य में चोरी न करने की प्रतिज्ञा की और संकल्प किया कि हम उन्हीं विनायक की आराधना करते हुए धर्मपूर्वक जीवन-यापन करेंगे।
इस प्रकार वे चोर सदाचारी बनकर भगवान् गणेश्वर की आराधना करने लगे जिससे उन्हें सर्व सुखों की प्राप्ति हुई।
वह वैश्य भी चोरी का धन वापस लौट आने पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और गणेश्वर की पूजा करने लगा।
भगवान् विनायक की कृपा चित्त्रबाहु पर
सूतजी बोले-हे शौनक! चित्रबाहु ने गणेश-व्रत का दृढ़ संकल्प किया।
किन्तु बाद में पुत्र-प्राप्ति होने पर अपने संकल्प को भूल गया।
इस कारण उसपर संकट के मेघ मँडराने लगे और एक दिन सहसा राजा ने किसी कारण कुपित होकर उसका सर्वस्व छीन लिया और देश निकाला दे दिया।
इस कारण उनके पास जीवन-यापन का कोई भी साधन नहीं रहा।
जब भूखों मरने की नौबत आ गई तो नर्मदा के तट पर भीख माँगने लगा।
तभी एक दिन उसने शुक्रदेव जी का आश्रम देखा तो भीतर जाकर महर्षि को प्रणाम कर बैठ गया।
महर्षि ने पूछा- ‘तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? क्या प्रयोजन है तुम्हारा?’
यह सुनकर चित्रबाहु ने अपना समस्त वृत्तान्त निवेदन किया और अपने संकट से मुक्त होने का उपाय पूछा।
महर्षि ने कुछ देर ध्यान लगाने के बाद कहा- ‘वत्स! तुमने पुत्र-प्राप्ति के लिए भगवान् विनायक के व्रत का संकल्प किया था, जिसे पुत्र उत्पन्न होने पर तुम भूल गये।
इसी कारण तुम्हें यह घोर कष्ट भोगना पड़ रहा है।
इस स्थिति में छुटकारा पाने के लिए उन्हीं भगवान् विनायक का व्रत और पूजन करो, फिर तुम्हें कोई कष्ट नहीं रहेगा और तुम अपने पूर्व को भी पा लोगे।’
हे शौनक! शुक्रदेव मुनि की बात सुनकर चित्रबाहु को अपनी भूल पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उसने तुरन्त ही विनायक भगवान् के व्रत का संकल्प कर गणेश चतुर्थी के शुभ दिवस में गणेशजी का भक्तिभाव से पूजन किया, जिसके प्रभाव से उसे पूर्व पद और वैभव की शीघ्र प्राप्ति हो गई।