<< गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 6
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
पार्वती ने गणेश-पूजन किया
सूत जी बोले-
‘हे शौनक! फिर ब्रह्मा जी ने व्यास जी को जगत्जननी पार्वती जी द्वारा पुनः गणेश पूजन करने की बात बताई।
महर्षि भृगु बोले-
‘हे राजन्! कार्तिकी पूर्णिमा में त्रिपुरासुर के भस्म होने का समाचार प्राप्त होने पर पार्वती जी गिरि-गुहा से बाहर आईं तो अपने पिता हिमाचल और पतिदेव त्रिपुरारी को कहीं न देखकर वे दुःखार्त्त हो गईं और शोक के कारण रुदन करने लगीं।
उनका रुदन एक भील ने सुना तो उसने हिमाचल के पास जाकर उनके रोने की बात सुनाई।
इससे चिन्तित हुए पर्वतराज अपनी पुत्री गिरिजा के पास पहुँचे और पुत्री को धैर्य बँधाने लगे।’
उस संत्रस्त गिरिराजनन्दिनी ने कहा-
‘पिताजी! न जाने भगवान् शंकर कहाँ हैं?
त्रिपुरासुर से युद्ध करने गए थे और सुनते हैं कि वह असुर मारा गया, किन्तु वे अभी तक लौट कर नहीं आये।
अब उनके सकुशल घर लौटने का उपाय क्या है?
ब्रह्माजी बोले-
‘हे व्यास! हिमालय ने कुछ देर विचार किया और फिर कहने लगे-
‘बेटी! भगवान् गणेश का पूजन करो।
कल प्रातःकाल उठकर शौचादि से निवृत होकर स्नान करना और विघ्नेश की मृण्मय मूर्ति बनाकर उसका षोड़शोपचारों से पूजन करना।
(मृण्मय मिट्टी वह मिट्टी है जो बहुत ही महीन खनिज कणों से युक्त होती है)
भोग षड्रस भोजन रखना, किन्तु ध्यान रहे कि उसमें मोदक (लड्डू) अवश्य हो।
भक्तिभाव पूर्वक गणेशजी का ध्यान, स्तवन, नीराजन आदि करने से वे शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं।
जब तक शिवजी न लौटें तब तक गणेश जी के एकाक्षरी ‘गं’ मन्त्र का जप करती रहना।
वैसे, इसके एक लाख जप से अनुष्ठान पूर्ण हो जाता है।’
‘सामान्य स्थिति में श्रावणशुक्ल चतुर्थी से भाद्रशुक्ल चतुर्थी तक एक मास पर्यन्त गणपति-पूजन एवं अनुष्ठान करे।
पूजन के लिए एक मूर्ति से एक सौ आठ मूर्ति तक ले सकती हो।
अनुष्ठान पूर्ण होने पर उद्यापन किया जाता है।
उस दिन जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण और तर्पण का दशांश ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।’
फिर उन्हें दक्षिणादि देकर मूर्ति का किसी पवित्र नदी या सरोवर में विसर्जन करना चाहिए।
विशेष स्थिति में यह जप, पूजन, अनुष्ठानादि कभी भी आरम्भ किया जा सकता है।
राजा कर्दम का दृष्टान्त-कथन
‘हे पार्वती! कल शुभ दिन है, तुम कल से उनका पूजन और जप प्रारम्भ कर दो।
देखो, उसी अनुष्ठान के प्रभाव से पूर्वकाल में एक सामान्य मनुष्य को अगले जन्म में राजा के घर जन्म मिला।
वह राजा समस्त पृथ्वी का अधीश्वर, राजाओं का स्वामी और अत्यन्त वैभवशाली हुआ।
इसका नाम कर्दम था।
‘एक बार वह राजा महर्षि भृगु के आश्रम में गया।
वहाँ महर्षि ने उसे अनेक इतिहास कथाएँ सुनाईं।
तभी प्रसंगवश राजा ने अपने वैभव-सम्पन्न होने का कारण पूछा तो महर्षि ने ध्यान करके बताया-
‘राजन्! पूर्व जन्म में तुमने गणेश्वर के एकाक्षरी मन्त्र का अनुष्ठान किया था, जिससे प्रसन्न होकर गणपति ने तुम्हें राजराजेश्वर होने का वर प्रदान किया।
तुम उस जन्म के एक दरिद्र क्षत्रिय के घर में उत्पन्न होने के कारण जीवन भर दुःख भोगते रहे, तब एक दिन आत्मघात को तत्पर हुए तुम वन में भटक रहे थे, तभी सौभरि ऋषि से तुम्हारी भेंट हुई और तुमने उनसे संकट निवारण का उपाय पूछा।
‘उन दयालु ऋषि ने तुम्हें गणपति के एकाक्षरी मन्त्र का उपदेश किया।
तब तुमने उस अनुष्ठान को अत्यन्त श्रद्धा-भक्तिपूर्वक किया, जिसके फलस्वरूप उस जन्म में तुम्हारी शेष आयु सुखपूर्वक व्यतीत हुई और उसी के प्रभाव से इस जन्म में सम्राट् हुए हो।’
राजा नल का दृष्टान्त-कथन
हिमालय ने कहा-
‘हे उमे! निषध देश के राजा नल ने भी उन्हीं विघ्नेश्वर का पूजन करके अभीष्ट प्राप्त किया था।
वह राजा अत्यन्त ऐश्वर्यशाली, धर्मज्ञ, राज-राजेश्वर और महाबली था।
समस्त विश्व में उसकी यश-पताका फहरा रही थी।
वह जैसे नीति निधान था, वैसे ही ज्ञानवान् भी था, उसके पास सदैव विद्वान् ब्राह्मणों, ऋषि-मुनियों, मनीषियों आदि का जमघट लगा रहता था।’
एक दिन उसकी सभा में महर्षि गौतम पधारे।
राजा ने उनका अर्घ्य- पाद्यादि पूर्वक अत्यन्त स्वागत सत्कार किया और जब वे सुखद आसन पर विराजमान हो गये तब राजा ने उनसे कोई पुराण-कथा करने का निवेदन किया।
महर्षि ने कुछ समय में ही उन्हें अनेक कथाएँ सुना दीं तभी भगवान् गणेश्वर का प्रसंग आ गया।
ऋषि बोले-
‘हे राजन्! भगवान् गणेश्वर समस्त देवताओं के अधीश्वर एवं सर्वात्मा हैं।
वे जिस पर कृपा करते हैं, वह परम भाग्यवान् हो जाता है।’
राजा ने निवेदन किया- ‘भगवन्! सब देवताओं के अधीश्वर तो भगवान् विष्णु माने जाते हैं तथा कुछ विद्वान् त्रिलोचन को भी सर्वेश्वर कहते हैं, किन्तु गणेश जी को सबका स्वामी कहते तो किसी को भी नहीं सुना।
अब आप उन्हें ऐसा क्यों कहते हैं?’
महर्षि बोले- ‘महाराज! भगवान् गणेश्वर साक्षात् ब्रह्म हैं।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर तो उन्हीं प्रभु के अंशावतार हैं।
उन सभी ने भगवान् वरदराज की उपासना करके ही अपनी-अपनी कार्य-क्षमता प्राप्त की थी।
अन्य देवताओं और ऋषियों आदि ने भी उन्हीं गणेश्वर की उपासना करके सिद्धि प्राप्त की है।
यह जितने भी राजे-महाराजे हुए हैं, वे सब उन्हीं भगवान् की कृपा से हुए हैं।
हे राजन्! तुमको भी इस वैभव की प्राप्ति में उन्हीं गणाध्यक्ष की ही कृपा निहित है।’
महाराज नल ने पूछा-
‘प्रभो! मैंने तो कभी उन भगवान् की पूजन-आराधना विशेष रूप से नहीं की है।
केवल विभिन्न संस्कारों और देव-पूजनों में गणेशजी का जो आदि पूजन होता है, वही किया होगा।’
गौतम ने कहा-
‘राजन्! तुमने जो गणेश-उपासना की है, उसकी भी बात सुनो।
पूर्व जन्म में तुम गौड़ देश के पिप्पल नगर के निवासी थे।
तुम्हारा जन्म एक सामान्य क्षत्रिय परिवार में हुआ था।
सर्वत्र तिरस्कृत रहने के कारण तुम बहुत दुःखित थे, तभी महर्षि कौशिक से तुम्हारी भेंट हुई।
तुमने उनसे अपने दुःख की बात कहकर उसके निवारण का उपाय पूछा।
महर्षि ने कृपापूर्वक गणेश जी के एकाक्षरी मन्त्र के प्रभाव से इस जन्म में तुम अत्यन्त ऐश्वर्यवन्त राजराजेश्वर हुए हो।’
राजा चित्त्रांगद का दृष्टान्त-कथन
हिमालय ने कहा-
‘हे पुत्रि! राजा चित्रांगद की साध्वी रानी को भी अपने पति का विरह-दुःख प्राप्त हुआ था, जिसका निवारण गणेश्वर के पूजन से ही हुआ था।
इसका इतिहास यह है कि –
राजा चित्रांगद मालव देश का राजा था।
वह अत्यन्त शक्तिशाली और विद्वान् था।
उसकी सुन्दरी भार्या का नाम इन्दुमती था।
‘वह राजा एक दिन शिकार खेलने गया था।
भीषण अरण्य में एक राक्षसी से उसका सामना हो गया।
वह राक्षसी राजा पर आसक्त हो गई।
उसने राजा से परिणय-निवेदन किया, किन्तु राजा ने उसकी बात नहीं मानी।
इससे कुद्ध हुई राक्षसी राजा को खाने के लिए दौड़ी।
यह देखकर राजा वहाँ से भाग कर एक सरोवर में जा छिपा।
किन्तु वहीं कुछ नाग- कन्याएँ स्नानार्थ आईं और राजा को देखकर उसपर लुब्ध हो गईं और वे उसे बलपूर्वक अपने साथ पाताल लोक में लिवा ले गईं और उससे प्रणय निवेदन करने लगीं।
‘हे पार्वती! राजा ने उनका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।
इससे वे नागकन्याएँ भी रुष्ट हो गईं और उन्होंने राजा को बन्धन में डाल दिया।
उधर रानी इन्दुमती पति के न लौटने से बड़ी चिन्तित हुई।
उसने राजा के वियोग में अच्छा भोजन एवं आभूषणादि का भी त्याग कर दिया और दिन-रात रोती रहती।
एक दिन भ्रमण करते हुए नारद जी वहाँ आ पहुँचे।
उन्होंने रानी की अधिक व्याकुलता देखी तो दयापूर्वक बोले- ‘महारानी! इस विपत्ति से छुटकारा पाने का उपाय तुम्हें बताता हूँ, सुनो।
भगवान् विघ्ननाशक समस्त संकटों को दूर करने में समर्थ हैं, तुम उनका पूजन करके एक मास तक उनके एकाक्षरी मन्त्र का जप करो।
इस अनुष्ठान से तुम्हारी कामना अवश्य पूर्ण हो जायेगी।’
‘नारदजी अनुष्ठान-विधि बताकर चले गये।
रानी ने धैर्य धारण कर शुभ दिन में प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर श्रीगणेश्वर की मृण्मय मूर्ति स्थापित कर विधिवत् षोड़शोपचार पूजन, स्तवन, नीराजन करके जप का आरम्भ कर दिया और एक मास तक एक लाख जप का अनुष्ठान पूर्ण कर, हवन, ब्राह्मण भोजन, दान-पुण्य आदि कर प्रतिमा का विसर्जन किया।
हे उमे! रानी प्रसन्नचित्त से उन विघ्ननाशक प्रभु का फिर भी स्मरण करती रही।
‘तभी भगवान् गणेश्वर ने बुद्धिदेवी को नागकन्याओं के प्रेरणार्थ प्रेषित किया, जिससे उन्होंने तुरन्त ही राजा को कारागार से बाहर निकाला और उसे स्नान कराकर वस्त्राभूषण पहिनाये और सम्मानपूर्वक उसके राज्य में वापस भेज दिया।
यह गणेश जी की ही आराधना का प्रभाव था कि रानी को अपने प्राणपति की प्राप्ति हो गई।’
यह कहकर हिमालय चुप हो गए।
पार्वती जी ने दूसरे दिन प्रातःकाल प्रसन्न मन से नित्य कर्मों से निवृत्त होकर श्रीगणेश जी की १०८ प्रतिमाएँ बनाईं और उन्होंने सुन्दर सुखद आसनों पर प्रतिष्ठित कर संकल्पपूर्वक षोड़शोपचार से पूजन किया।
फिर भक्तिभाव से स्तुति, नीराजन, प्रदक्षिणा आदि करके एकाक्षरी मन्त्र का एक मास तक जप किया और अन्त में हवन-तर्पण और ब्राह्मण भोजन कराकर सभी को अभीष्ट दक्षिणा दी।
फिर अभ्यागतों आदि को भी गौ, रत्न, अन्न, वस्त्र आदि विविध वस्तुओं का दान किया।
फिर स्वयं भोजन करके भगवान् गणेश्वर का ध्यान करने लगीं।
इसी के प्रभाव से उन्हें भगवान् शंकर की प्राप्ति हो गई।