गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 6


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शिवजी द्वारा गणेश्वर की उपासना का वर्णन

त्रिपुरासुर अपनी विजय के गर्व में फूल गया।

उसने सोचा कि ‘लगे हाथों इनकी स्त्री को भी क्यों न हथिया लिया जाय?’

ऐसा विचार करके वह कैलास की ओर बढ़ा।

उसे ज्ञात था कि पार्वती जी उसी के अधिकार क्षेत्र में आये हुए कैलास में रह रही हैं।

इसलिए उन्हें पाना कठिन नहीं है।

पार्वती जी ने सुना कि त्रिपुरासुर उन्हें लेने के लिए आ रहा है, तो वे काँप उठीं।

उन्होंने अपने पिता हिमराज से अपनी कष्टकथा कही तो वे इन्हें एक गुफा में ले गये और वहाँ छिपकर रहने को कहा।

जब पार्वती जी न मिलीं तो त्रिपुरासुर उनकी खोज करने लगा, जिससे हिमनन्दिनी तो न मिलीं, किन्तु भगवान् चिन्तामणि की शुभ प्रतिमा अवश्य प्राप्त हो गयी।

उस दुर्लभ गणपति मूर्ति को लेकर अपने नगर की ओर चल दिया।

मार्ग में त्रिपुरासुर ने देखा कि साथ-साथ अनेकों बन्दीजन श्रीगणपति का गुणगान करते चल रहे हैं।

तभी सहसा वह मंगलमूर्ति उनके हाथ से छूटकर अदृश्य हो गई।

मूर्ति के अन्तर्धान होते ही बन्दीजन भी अदृश्य हो गए थे।

त्रिपुरासुर को बड़ी निराशा हुई।

पाई हुई अमूल्य मूर्ति हाथ से निकल गई।

यह उसके लिए शुभ शकुन नहीं था।

इससे नितान्त खिन्न मन हुआ अपने नगर में लौट आया।

उधर भगवान् शंकर भी असुर के अत्यन्त प्रबल सिद्ध होने के कारण चिन्तित थे।

उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उस दुर्दान्त दैत्य का दमन किस प्रकार किया जाय?

वे इस चिन्ता में निमग्न थे ही कि नारदजी आ पहुँचे।

शिवजी ने उनका समयोचित सत्कार कर आसन दिया। तदन्तर वार्तालाप आरम्भ हुआ।

देवाधिदेव महादेव ने उन्हें बताया-
‘देवर्षे! आप इस समय अच्छे आये हैं।

मैं समझता हूँ कि अब वर्तमान समस्या का समाधान सहज ही हो जायेगा।

देखो, त्रिपुरासुर कितना प्रबल हो गया है कि कोई भी महाबली उसके समक्ष टिक नहीं पाता।

उसकी साम्राज्य लिप्सा तो बढ़ी हुई थी ही, अब तो वह स्त्री, धन,आजीविका के साधन तथा उपासना के माध्यमों को भी हथिया लेना चाहता है।’

शूलपाणि की बात पर नारदजी विचार कर ही रहे थे कि उन्होंने एक चौंका देने वाली बात कही
‘कौतुक मुनि! बेचारे देवताओं की तो सामर्थ्य ही क्या, उस दैत्य ने तो मेरे भी सब अस्त्र निष्फल कर दिये।

उसपर किसी भी व्यक्ति और अमोघ अस्त्र का प्रभाव नहीं हुआ।’

नारदजी ने आश्चर्य से कहा- ‘प्रभो! आप यह क्या कह रहे हैं? आपके अमोघ अस्त्र और निष्फल हो जायें, यह कभी सम्भव नहीं है।

मैं तो समझता हूँ कि या तो आप अपनी शक्ति को भूल गये हैं अथवा यह सब आप की ही लीला है।

लोक के कल्याणर्थ और विमोहित प्राणियों को सचेत करने के लिए ही आप यह सब कर रहे हैं।’

शिवजी बोले-
‘देवर्षि! संसार में जहाँ जो कुछ भी हुआ, होता या हो रहा है, वह सभी कुछ लीला मात्र है, किन्तु उस लीला में भी कुछ विशेषता उपस्थित हो जाती है, तब उसका उपाय भी करना होता है।

असुर की प्रबलता और देवताओं का अपकर्ष अवश्य ही विचारणीय है इस समय।

यदि कोई उपाय आपकी समझ में आता हो तो बताने की कृपा करें।’

देवर्षि ने कुछ विचार कर कहा-
‘हे सर्वेश्वर! हे सर्वज्ञ! हे देवादिदेव महादेव! आपसे कौन-सा उपाय छिपा है?

फिर भी आप पूछते हैं तो बताता हूँ।

आपने युद्ध के आरम्भ में विघ्नेश्वर का पूजन नहीं किया, इसलिए पराजय का मुख देखना पड़ा।

अब आप उनकी पूजा करके युद्ध में तत्पर हों तो आपकी विजय अवश्य होगी।

‘विघ्नेश्वर!’ शिवजी ने कहा- ‘वह तो मेरा पुत्र है देवर्षे! उसे तो कर्तव्यवश ही मेरी सहायता करनी चाहिए।’

नारदजी ने मुसकराहट के साथ कहा-
‘पुत्र यदि रूठ जाय तो उसे भी मनाना होता है।

शूलपाणि! फिर उस स्थिति में तो तपस्या और भी उलझ जाती है, जब शत्रु पुत्र से बल पाकर ही पिता पर आक्रमण करे।’

शिवजी के हृदय को एक झटका लगा, तुरन्त ही पूछ बैठे-
‘तो क्या गणेश ने ही असुर को इस आक्रमण के लिए प्रेरित किया है? देवर्षि! मैं तुम्हारी बात नहीं समझा।

मुझे बताओ कि तुम कहना क्या चाहते हो?’

नारद जी बोले-‘यह तथ्य सर्वविदित है महेश्वर! आपके पुत्र गणेशजी से वरदान पाकर ही त्रिपुरासुर अजेय हो गया है।

अब स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि आप सर्वेश्वर को भी तुच्छ समझने लगा है।

इस स्थिति से निपटने के लिए आपको भी अपने पुत्र का पूजन करना होगा।’

शिवजी ने निश्चयात्मक स्वर में कहा-
‘तो अवश्य करूँगा देवर्षे! मैं अभी से उनका पूजन आरम्भ करता हूँ।’

नारद जी चले गए।

भगवान् शंकर ने दण्डकवन में जाकर कठोर तप आरम्भ किया।

धीरे-धीरे सौ दिव्य वर्ष व्यतीत हो गए।

तप करने में ही शिवजी को जँभाई आ गई और-

“ततस्तस्य मुखाम्भोजान्निर्गतस्तु पुमान् महान्।
पञ्चवक्त्रो दशभुजो ललाटेन्दुः शशिप्रभः॥
मुण्डमालः सर्पभूषो मुकुटाङ्गदभूषणः।
अग्न्यर्कशशिनो भाभिस्तिरस्कुर्वन् दशायुधः॥”


शिवजी के समक्ष विनायक का प्राकट्य

तभी शिवजी के मुख से एक तेजोमय पुरुष का आविर्भाव हो गया।

उनके पाँच मुख, दश भुजाएँ, ललाट पर चन्द्रमा था, उनकी देहकान्ति भी चन्द्रमा के ही समान थी।

वे कण्ठ में मुण्डमाला, सर्पों के आभूषण तथा मुकुट और बाजूबन्द धारण किए हुए थे।

उनके तेज के समक्ष अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा भी तिरस्कृत हो रहे थे।

उन्होंने अपनी भुजाओं में दश आयुध ले रखे थे।

शिवजी ने उन्हें देखा तो सोचने लगे-क्या यह मेरा ही दूसरा रूप है?

कहीं यह त्रिपुरासुर की ही तो कोई माया नहीं है?

यह स्वप्न है अथवा आदिदेव विघ्ननाशक विनायक का साक्षात् प्राकट्य?

वरदराज ने उनके मन की बात जान ली।

बोले- ‘प्रभो! आप जो समझ रहे हैं, मैं वही आदिदेव विनायक हूँ।

वस्तुतः मेरे यथार्थ रूप को देवता, ऋषिगण तथा ब्रह्माजी भी नहीं जानते।

वेद, उपनिषद्, षट्‌शास्त्र कोई भी मेरे रूप को वास्तविक रूप को कहने में समर्थ नहीं हैं।

मैं चराचर जगत, ब्रह्माजी और अनन्त ब्रह्माण्डों का रचयिता हूँ।

सत्व, रज और तम तीनों गुण मुझमें ही प्रकट हैं, किन्तु उन गुणों का स्वामी होते हुए भी मैं उनसे परे हूँ।’

संसार की रचना, स्थिति और प्रलय मेरे ही कार्य हैं।

आपने मेरा सौ वर्ष तक का निरन्तर चिंतन किया है, इसलिए मैं पूर्णरूप से सन्तुष्ट हूँ।

आपकी कामना पूर्ण करने के लिए इस समय यहाँ प्रकट हुआ हूँ।

अतः आप जो चाहें, मुझसे माँग लें।’

वरदराज की प्रसन्न मुद्रा देख और वरद वचन सुन कर शिवजी उनकी स्तुति करने लगे-

“दशापि नेत्राणि ममाद्य धन्यान्यथो भुजाः पूजनतस्तवाद्य।
तवानतेः पञ्च शिरांसि धन्याः धन्यास्तु ते पञ्चमुखानि देव॥”

‘हे देव! आपका पूजन करके मेरे दशों नेत्र और दशों भुजाएँ आज धन्य हैं।

आपको प्रणाम करके मेरे पाँचों मस्तक और आपकी स्तुति करके मेरे पाँचों मुख धन्य हो गए।

प्रभो! आप रजोगुण के द्वारा समस्त सृष्टि को रचते, सतोगुण द्वारा पालन करते और तमोगुण द्वारा प्रलय कर देते हैं।

आप नित्य, निरपेक्ष और निर्लेप हैं।’

आप ही सभी जीवों के ईश्वर तथा उनके कर्मों के साक्षी और फल प्रदान करने वाले हैं।

हे वरदराज! त्रिपुरासुर को नष्ट करने का शीघ्र उपाय कीजिए, अन्यथा यह समस्त सृष्टि नष्ट हो जायेगी।’

वरदायक बोले-आप मेरे बीज मन्त्र का उच्चारण करते हुए शरसन्धान करेंगे तो अवश्य विजय प्राप्त होगी।

(शरसंधान अर्थ – निशाना लगाना)

मैं आपके द्वारा स्मरण करते ही आपके पास आकर कार्य पूर्ण करूँगा।

मेरा बीजमन्त्र ‘गं’ है, इसके उच्चारण के साथ बाण छोड़ते ही त्रिपुरासुर के पुर ध्वस्त हो जायेंगे।’


शिवजी द्वारा त्रिपुरासुर का विनाश

यह कहकर गणेश जी तुरन्त अन्तर्हित हो गए।

उसके बाद शिवजी ने उनका भक्तिभाव से पूजन किया और
देव-ब्रह्मादि को तृप्त करके पुनः उनकी महिमा को पुष्पाञ्जलि समर्पित की और बोले-
‘गणपति का यह स्थान आज से मणिपुर नाम से विख्यात होगा।’

इसके पश्चात् शिवजी ने देवसेना एकत्रित की और त्रिपुरासुर की राजधानी की ओर चल दिये।

गणेश जी का स्मरण करते ही उन्होंने देखा कि विघ्ननाशक भगवान् वीरवेश में स्वयं आगे-आगे चल रहे हैं।त्रिपुरासुर के तीनों पुर अभेद्य थे, इसलिए असुर जानता था कि मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

फिर भी उसने सुरक्षा का बड़ा प्रबन्ध कर रखा था।

शिवजी ने गणेश जी के द्वारा बताई हुई विधि से ‘गं’ बीजमन्त्र का उच्चारण करते हुए शर-सन्धान किया और एक ही बाण से त्रिपुरासुर के पुरों को ध्वस्त कर दिया।

उस समय भगवती पार्वती भी अपने प्राणवल्लभ की विजय-कामना करती हुई गणपति-पूजन में लगी थीं।

युद्ध में शिवजी की विजय हुई और त्रिपुरासुर मारा गया।

देवसेना द्वारा भगवान् त्रिपुरारि की जय के साथ ही गजानन भगवान् की जय बोली जाने लगी।


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