<< गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 4
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
मुकुन्दा की दुष्टता के कारण गृत्समद का शाप
व्यासजी बोले-
लोकपितामह! आपने राजा रुक्मांगद का बड़ा सुन्दर चरित्र सुनाया।
किन्तु ऋषि-पत्नी मुकुन्दा के विषय में कुछ नहीं कहा।
उसकी दृष्टता का पता ऋषि को लगा या नहीं? और लगा तो फिर क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले-
हे सत्यवतीनन्दन! मुकुन्दा की दुष्टता का ऋषि को तो पता नहीं लगा, लेकिन सहस्त्राक्ष इन्द्र ने यह बात जान ली।
उसने राजा रुक्मांगद का रूप बनाया और ऋषि-पत्नी के पास जा पहुँचा।
मुकन्दा उसे देखकर हर्ष-विभोर हो गई।
उनके मिलन के फलस्वरूप मुकुन्दा के गर्भ से एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ।
ऋषि ने हर्षित मन से उसके समस्त संस्कार कराये और उसे समस्त वेद वेदांगादि का ज्ञान कराया।
उन्होंने उस बालक का नाम गृत्समद रखा।
एक बार मगध देश के राजा के यहाँ श्राद्ध था।
उसमें अनेक ऋषि-महर्षि आमन्त्रित थे।
गृत्समद भी उस अवसर पर निमन्त्रित था।
वहाँ ऋषियों और विद्वानों के समाज में शास्त्र-चर्चा चलने लगी तो गृत्समद बीच-बीच में बोलकर अपनी विद्वत्ता दिखाने लगा।
इसपर एक ऋषि को क्रोध आ गया और उन्होंने उससे कहा-
‘रुक्मांगद! निरर्थक बड़प्पन मत बघारो।
वस्तुतः तुम ऋषि-पुत्र नहीं, वरन् क्षत्रिय-पुत्र हो।
तुम्हें तो हमारे साथ बैठने का भी अधिकार नहीं।’
फिर क्या था, गृत्समद तुरन्त उठकर अपनी माता के पास गया और पूछने लगा-
‘माता! मैं किसका पुत्र हूँ?’
मुकुन्दा ने कहा-
‘पुत्र अपने पिता का ही होता है, इसमें शंका कैसी?’
किन्तु इस उत्तर से वह सन्तुष्ट न हुआ और उग्र रूप धारण कर बोलो-
‘कुलटे! तेरा पाप खुल गया है, मुझे सत्य बता, अन्यथा ठीक नहीं होगा।’
मुकुन्दा उसके उग्र रूप से भयभीत हो गई और उसने सत्य बात बता दी कि वह रुक्मांगद का पुत्र है।
इसपर गृत्समद ने अत्यन्त क्रोध-पूर्वक उसे शाप देते हुए कहा-
‘ब्राह्मण-वंश को लज्जित करने वाली पिशाची! तू कंटकी होगी।’
गृत्समद को अपनी माता का शाप
पुत्र के मुख से अपने लिए शाप सुनकर मुकुन्दा को भी क्रोध आ गया और काँपती हुई वाणी से बोली-
‘अरे मूढ़! अपनी जननी को शाप देता है! जा, दुष्ट! तुझे तेरे इस अपराध का भयानक दण्ड मिलेगा।
तुझे अत्यन्त भयंकर महाबली पुत्र की प्राप्ति होगी, जिसके घोर अत्याचारों से समस्त संसार क्षुब्ध हो जायेगा।’
गृत्समद जानते थे कि माता का शाप निष्फल नहीं होगा, अतः वे घर से निकलकर पुष्पक वन में गये।
मार्ग में उन्होंने आकाशवाणी सुनी कि
‘तुम राजा रुक्मांगद के नहीं, इन्द्र के पुत्र हो।
वे पुष्पक वन स्थित एक वयोवृद्ध एवं वीतराग महर्षि के आश्रम में पहुँचे, जिन्होंने उन्हें गणेश-आराधना का उपदेश दिया।’
अब गृत्समद ने घोर तप आरम्भ किया।
वरदेश्वर गणनाथ का ध्यान करते हुए वे एक पाँव के अँगूठे के बल पर खड़े रहे।
जिह्वा पर गणेश्वर का ही नाम रहता।
इस प्रकार घोर तपस्या करते हुए उन्हें एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये, किन्तु उपासना सफल नहीं हुई।
तब उन्होंने और भी कठोर व्रत लिया।
केवल एक जीर्ण पत्ता पाते हुए ही पन्द्रह हजार वर्ष व्यतीत कर दिए।
अन्त में भक्तवत्सल भगवान् गजानन को आना ही पड़ा।
हे व्यास! उस समय उनका तेज हजारों सूर्यो के समान था।
मस्तक पर चन्द्रमा और कण्ठ में विशाल कमलमाल बड़े-बड़े तालपत्र के समान कानों में कुण्डल सुशोभित थे।
सर्पों का यज्ञोपवीत धारण किए हुए वे दशभुज गणेश सिंह पर सवार थे।
उनके साथ उनकी दोनों पत्नियाँ सिद्धि-बुद्धि भी थीं।
गृत्समद उनके रूप को देखते ही रह गए।
उस समय उन्हें अपने शरीर का भी ध्यान नहीं था।
किंकर्त्तव्यविमूढ़ के समान खड़े हुए एकटक उन्हें देखते रहे।
गणेशजी ने भक्त की ऐसी विह्वल अवस्था देखते हुए कहा-
‘भक्तराज! मैं तुमसे अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ।
जो इच्छा हो वह माँगो, मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा।’
गृत्समद सावधान हुए।
उन्होंने साष्टाङ्ग प्रणाम कर निवेदन किया-
‘प्रभो! यह मेरा सौभाग्य ही है कि मुझे आपके मंगलमय दर्शन प्राप्त हुए हैं।
नाथ! यह पुष्पक वन अब आगे से ‘गणेशपुर‘ कहा जाने लगे और आप स्वयं यहाँ निवास करके भक्तों की कामना पूर्ण करते रहें।’
वरदराज ने ‘तथास्तु’ कहकर वर प्रदान किया और फिर बोले-
‘भक्तवर! तुम्हारे एक अत्यन्त बलशाली पुत्र की प्राप्ति होगी, जो तीनों लोकों में ख्याति प्राप्त करेगा।
उसे महाकाल भगवान् के अतिरिक्त अन्य कोई भी न जीत सकेगा।
इस क्षेत्र का नाम युगानुसार होंगे-
सतयुग में पुष्पकवन,
त्रेता में मणिपुर,
द्वापर में मानक और
कलियुग में भद्रक।
यहाँ जो कोई स्नान-दानादि करेगा, उसके समस्त अभीष्ट पूर्ण होंगे।’
ऐसा वर देकर वरदराज अन्तर्धान हो गये।
गृत्समद ऋषि ने वहाँ एक मन्दिर बनाकर प्रथमेश्वर गणराज का श्री-विग्रह स्थापित कर पूजन. किया।
आगे चलकर गणेशजी के नाम पर उस स्थान का नाम भी ‘वरद‘ हो गया।
त्रिपुरासुर ने गणेश की आराधना की
गृत्समद अब केवल भगवान् गजानन की उपासना में लगे रहने लगे।
परन्तु एक दिन उन्होंने एक अत्यन्त तेजस्वी बालक को स्वयं प्रकट हुआ देखा तो आश्चर्यचकित हो गये।
वह बालक उनसे नम्र वाणी में बोला-
‘मैं आपकी छींक से उत्पन्न हुआ आपका पुत्र हूँ।
जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं होता, तब तक आप मेरा पालन कीजिए।
फिर तो मैं स्वयं ही पौरुष से सब देवताओं और तीनों लोकों को जीत लूँगा।’
उसकी बात सुनकर गृत्समद कुछ करे, उन्हें माता के वचन याद आ गये।
परन्तु करते भी क्या? उन्होंने बालक से कहा-
‘पुत्र! तुम गणेशजी की उपासना करो।’
यह कहकर उन्होंने उसे गणेशजी का मन्त्र देकर उपासना-विधि भी बतलाई।
बालक वहाँ से चला गया।
उसने एकान्त में वन में जाकर वरदराज की आराधना आरम्भ की।
वह भी एक पाँव के अँगूठे से खड़ा रहकर तपस्या करता रहा।
उसे भी पिता के समान निराहार रहकर घोर तप करते हुए पन्द्रह हजार वर्ष व्यतीत हो गए।
भगवान् गणाधीश्वर प्रसन्न हो गए।
उन्होंने एक भयानक शब्द के साथ उसको दर्शन दिया।
मुनिकुमार ने देखा कि वरदराज साक्षात् खड़े हैं तो वह उनके चरणों में गिर गया।
गणेशजी ने हर्षपूर्वक कहा- ‘उठो भक्त- श्रेष्ठ! मैं तुमपर प्रसन्न हुआ हूँ।
अपना इच्छित वर माँग लो मुझसे।’
मुनिकुमार ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-
‘प्रभो! मैं आपके असीम तेज से अत्यन्त विस्मित और भयभीत हूँ।
कृपा कीजिए प्रभो! मेरी इच्छा पूर्ण कर दीजिए नाथ!
मैं बालक हूँ स्तुति किस प्रकार की जाती है, इसका ज्ञान नहीं।
यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे त्रैलोक्य-विजय का वर प्रदान कीजिए।
देव, दानव, मनुष्य, राक्षस, गन्धर्व, किन्नर तथा सर्पादि सभी मेरे वश में हो जायें।
इन्द्रादि सभी लोकपाल सदैव मेरी सेवा करें।
इस जीवन में सभी सुखों को भोगकर अन्त में मोक्ष भी प्राप्त करूँ।’
भगवान् गणपति बोले-
‘वत्स! तुम सदैव भय रहित और तीनों लोकों के विजेता होगे।
मैं तुम्हें लोहे, चाँदी और सोने के तीन नगर प्रदान करता हूँ।
इन्हें भगवान् शंकर के अतिरिक्त कोई भी नहीं तोड़ सकेगा।
यह तीनों पुर शिवजी के एक ही बाण से टूट जायेंगे।
इत तीनों पुरों के स्वामी होने के कारण तुम्हारा नाम त्रिपुर हो गया।’
वर प्रदान कर गणेशजी अन्तर्हित हो गए।
त्रिपुरासुर ने उनकी मूर्ति स्थापित की और उनका षोड़शोपचार से पूजन किया।
उसके पश्चात् वह त्रैलोक्य विजय के लिए चल पड़ा।
धरती, स्वर्ग, पाताल सभी पर उसका अधिकार हो गया।
देवताओं सहित इन्द्र हार गये।
उसके भय से देव- समुदाय वन, पर्वत आदि की गुफाओं में छिपता फिरा।
चतुर्भुज ब्रह्मा नाभि-कमल में प्रविष्ट हो गए।
भगवान् विष्णु भी क्षीरसागर में जा छिपे।
शौनकजी! त्रिपुरासुर प्रचंड हो उठा।
उसके दो पुत्र हुए जिनका नाम चण्ड और प्रचण्ड थे।
उसने चण्ड को बैकुण्ठ को और प्रचण्ड को ब्रह्मलोक का अधिकारी बना दिया।
त्रिपुरासुर को इतने से भी शान्ति नहीं मिली।
उसकी अधिकार-लिप्सा इतनी बढ़ी कि कैलास पर जा पहुँचा।
शिवजी को उसे प्राप्त वरदान और शक्ति का ज्ञान था।
वे अविलम्ब उनके सामने पहुँचकर बोले- ‘वत्स! मैं तुमसे सन्तुष्ट हूँ।
तुम जो चाहो सो माँग लो।’
त्रिपुरासुर बोले-
‘भोले बाबा! यदि आप मुझपर प्रसन्न हो तो कैलास छोड़कर मन्दराचल पर चले जायें।’
शिवजी समझ गये कि कैलास छोड़े बिना काम नहीं चलेगा, इसलिए तुरन्त ही मन्दरगिरि को प्रस्थान कर गये।
इस प्रकार संसारभर में असुर-साम्राज्य छा गया।
देवताओं द्वारा श्रीगणेश-पूजा का वर्णन
गिरि-कन्दराओं में छिपे हुए इन्द्र सहित सब देवता अत्यन्त दुःखित थे।
उनकी समझ में नहीं आता था कि असुर पर विजय कैसे प्राप्त हो?
उसी अवसर पर देवर्षि नारद वहाँ आ पहुँचे।
देवताओं ने मुनि का बड़ा स्वागत-सत्कार किया और विनयपूर्वक बोले-
‘ऋषिराज! इस दैत्य से किस प्रकार छुटकारा प्राप्त हो? इसका कुछ उपाय निश्चित कीजिए।’
नारदजी बोले-
‘देवगण! भगवान् विनायक के वरदान से ही त्रिपुरासुर इतना प्रचण्ड हुआ है।
यदि तुम उन्हीं भगवान् को प्रसन्न करो तो असुर का विनाश हो सकता है।’
यह कह कर नारद जी चले गये।
देवताओं ने गणेश जी की आराधना आरम्भ की।
उनकी मन्त्रमूर्ति का षोड़शोपचार पूजन किया जिससे प्रसन्न होकर वरदराज गणेश जी प्रकट हो गये।
उनको सामने देखकर देवगण गद्गद कण्ठ से प्रार्थना करने लगे-
“नमो नमस्ते परमार्थरूप, नमो नमस्तेऽखिलकारणय।
नमो नमस्तेऽखिलकारकाय सर्वेन्द्रियाणामधिवासिनेऽपि॥
नमो नमो भक्तमनोरथेश, नमो नमो विश्वविधानदक्ष।
नमो नमो दैत्यविनाशहेतो, नमो नमः सङ्कटनाशकाय॥”
‘हे परमार्थ-स्वरूप! आपको नमस्कार है।
हे अखिल विश्व के कारणरूप आपको नमस्कार है।
हे सबके कर्त्ता प्रभो! हे सभी इन्द्रियों में निवास करने वाले गजानन! आपको नमस्कार है।
हे नाथ! आप भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाले तथा विश्व के विधान में दक्ष हैं, आपको नमस्कार है।
हे दैत्यों को विनष्ट करने में हेतु रूप, आपको नमस्कार है।
हे सर्व सङ्कटों को नष्ट करने वाले वरदराज! आपको नमस्कार है।’
सूतजी बोले-
‘हे शौनक! देवताओं के इस प्रकार प्रार्थना करने पर श्रीगणेशजी ने प्रसन्न होकर कहा-
‘देवताओ! मैं तुम्हारी स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ।
तुम क्या चाहते हो? जो माँगोगे वही दूँगा।’
देवताओं ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-
‘वरदराज प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि आप सब कुछ दे सकते हैं।
परन्तु शङ्का यह है कि आपके वर की प्रचण्डता को प्राप्त हुए त्रिपुरासुर का दमन अब किस प्रकार हो सकता है? क्योंकि आप अपने ही वचन को मिथ्या कैसे करेंगे?’
गणेश जी ने कहा-‘मैं तुम सब की रक्षा करूँगा।
त्रिपुरासुर तुम्हारा कुछ भी न बिगाड़ सकेगा।’
देवगण बोले- ‘प्रभो! हम उसी के भय से मारे-मारे फिर रहे हैं।
हमारा राज्य छिन गया।
यज्ञादि के न होने से आजीविका नष्ट हो गई।
इस गिरि-कन्दरा में भूखे-प्यासे रहते हुए हम अत्यन्त क्षीणबल और हीनकार्य हो गए हैं।
यहाँ भी हमें उस दुर्दान्त दैत्य का सदा भय लगा रहता है।’
गणराज ने सान्त्वना दी ‘यह सब समय का प्रभाव है देवताओ?’
जब तुम्हारा ऐश्वर्यशाली समय चला गया, तब यह संकटकाल भी चला ही जायेगा।
देखो! कालचक्र कभी रुकता नहीं, वह सदैव घूमता है।
यद्यपि आज वह दैत्य दुर्दान्त हो रहा है, फिर भी उसका पतन भी अवश्यम्भावी है।’
देवताओं ने निवेदन किया-
‘परन्तु, अब अपनी स्थिति से हम. ऊब बैठे हैं प्रभो! आपने उसे इतनी शक्ति प्रदान की है तो आप ही उसकी शक्ति का हरण भी कर सकते हैं।
अतएव हम निराश्रितों को आश्रय प्रदान कीजिए प्रभो! हमें इस विपत्ति से शीघ्र छुड़ाइए दीनबन्धो!’ यह कहकर देवगण उनके समक्ष दीन भाव से नत मस्तक हो गए।
गणेशजी ने उनकी विपत्ति का अनुमान किया और बोले- ‘देवगण! मेरा पूजन करते रहो।
भक्तिभाव से की गई मेरी उपासना कभी निष्फल नहीं होती।’
यह कहकर गणेशजी अन्तर्धान हो गए, देवता पुनः उनकी भक्तिपूर्वक उपासना करते रहे।
उधर भगवान् गणेशजी स्वयं ब्राह्मण का वेश रखकर त्रिपुरासुर के पास पहुँचे।
उसने एक तेजस्वी ब्राह्मण का आगमन देखकर अर्घ्य-पाद्यादि से उनका सत्कार किया और फिर बोला- ‘भगवन्! आप कौन हैं, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’
त्रिपुरासुर से गणेश-प्रतिमा की याचना का वर्णन
विप्रवेशधारी गणेशजी ने कहा- ‘दैत्यराज! मेरा नाम कलाधर है।
मुझे भगवान् शंकर द्वारा पूजित उस गणेश प्रतिमा की अभिलाषा है, जो कैलास में विद्यमान है।
उसे मुझे प्रदान कर दो।’
त्रिपुरासुर बोला- ‘वह प्रतिमा अवश्य दूँगा।’
यह कहकर उन्होंने अपने अनुचरों को प्रतिमा लाने का आदेश दिया।
किन्तु जब भगवान् शंकर कैलास छोड़कर मन्दराचल पर चले गये थे तब उस प्रतिमा को भी साथ ले गये थे।
अनुचरों ने लौट कर यह बात निवेदन की।
त्रिपुरासुर ने वह प्रतिमा भगवान् शंकर से लाकर देने को कहा और ब्राह्मणरूपधारी गणपति को अनेक रत्नाभूषण, मृगचर्म, सुरभि, गौ, घोड़ा, हाथी, रथ आदि प्रदान किया।
दैत्यराज का आदेश पाकर भगवान् शंकर के पास दूत पहुँचे और उन्होंने उनसे गणेश-प्रतिमा देने को कहा।
शिवजी बोले- ‘वह प्रतिमा नहीं मिल सकती।
अपने स्वामी से जाकर कह देना कि भविष्य में वह ऐसा साहस न करे।’
दूत बोला- ‘प्रतिमा तो आपको देनी ही होगी।
मेरे स्वामी का आदेश न मानने की किसमें शक्ति है।
अतएव, भलाई इसी में है कि प्रतिमा तुरन्त दे दो।’
शिवजी कुपित हो गए, बोले-
‘जाता है या नहीं? अधिक बकवास करेगा तो अभी भस्म हो जायेगा।’
शिवजी को क्रोधित देखकर दूत अपने प्राण लेकर भागा और उसने त्रिपुरासुर के पास जाकर सब बात बताई।
दैत्यराज ने आदेश दिया- ‘मन्दरगिरि पर आक्रमण करो।’
फिर क्या था! दैत्य की सेना ने एकत्र होकर कूच कर दिया, उधर देवताओं को पता चला तो वे भी एकत्रित होकर भगवान् शंकर की सहायतार्थ आ पहुँचे।
इसके बाद घोर संग्राम छिड़ गया।
देवसेना का संरक्षण भगवान् शंकर स्वयं कर रहे थे।
परन्तु दैत्यों का बल बहुत बढ़ा हुआ था, इसीलिए शिवजी की संरक्षणता प्राप्त होने पर भी देवगण उनके समक्ष न ठहर सके, वरन् रणक्षेत्र छोड़कर इधर-उधर भाग निकले।