<< गणेश पुराण – प्रथम खण्ड – अध्याय – 10
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
देवताओं को वरदराज का दर्शन
सूतजी बोले-
‘त्रिपुर-विजय के पश्चात् देवताओं ने श्रीगणेशजी का भक्तिभाव से पूजन किया।
उसके पश्चात् भी वे समय-समय पर उनकी उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते।’
शौनक ने भक्तिपूर्वक सूतजी के समक्ष मस्तक झुकाया और बोले-
‘सूतजी! हे पुराणदेवता पुरुष! वरदराज की कथा में मुझे बड़ा आनन्द आ रहा है।
देवताओं को पुनः किस विघ्न का सामना करना पड़ा और उन्होंने किस प्रकार छुटकारा पाया, वह सब मेरे प्रति कहने की कृपा कीजिए।’
सूतजी बोले-‘हे शौनक जी! वह कथा भी कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।
देवगण एक बार गोमती के पवित्र तट पर यज्ञ करने लगे।
किन्तु उस यज्ञ में अनेक विघ्न आने लगे।
तब उन्होंने भगवान् विष्णु के पास जाकर निवेदन किया-
हे बैकुण्ठनाथ! हमारे यज्ञ में बार-बार विघ्न उपस्थित हो रहा है, उसके निवारण का उपाय बताइए।’
भगवान् विष्णु ने हँसकर कहा- ‘देवताओ! तुमने गणेशजी का पूजन नहीं किया होगा, इसलिए वे रुष्ट हो गये होंगे।
यदि विघ्नों से बचना है तो सर्वप्रथम उनका पूजन करो और उसके पश्चात् यज्ञ करो।
फिर कोई विघ्न उपस्थित नहीं होगा।
भगवान् की बात सुनकर देवगण गोमती तट पर लौट गए और ब्रह्माजी के नेतृत्व में गणपति-पूजन करने लगे।
उनके उस पूजन से वरदराज प्रसन्न हुए और उन्होंने देवताओं को साक्षात् दर्शन दिया।
देवताओं ने उन्हें देखा तो तुरन्त ही हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे-
“यः सर्वकार्येषु सदासुराणामधीशविष्ण्वम्बुजसम्भवानाम्।
पूज्यो नमस्यः परिचिन्तनीयस्तं विघ्नराजं शरणं व्रजामः॥
जिनका सभी देवगण, शिव, विष्णु, ब्रह्मादि भी सब कार्यों में पूजन, नमस्कार और चिन्तन करते हैं, हम उन्हीं विघ्नराज गणेशजी की शरण लेते हैं।
हे गणेश्वर! आपके समान मनोवांछित फल प्रदान करने वाला अन्य कोई देवता नहीं है।
त्रिपुरासुर वध के समय शिवजी ने आपका ही पूजन करके विजय प्राप्त की थी।
हे अम्बिकानन्दन! हमारे इस यज्ञ के विघ्नों को दूर कीजिए।’
देवताओं द्वारा वरदराज के बाल रूप का स्मरण होने के कारण वे उन्हें बाल रूप में ही दिखाई देने लगे।
यह देखकर शिवजी ने विनोदपूर्वक कहा-
‘गणपति! तुमने बहुत दूध पिया है, फिर लम्बोदर क्यों नहीं हो जाते?’
सबके देखते-देखते वे लम्बोदर और दीर्घकाय हो गए।
देवताओं ने पुनः उनकी स्तुति की और अन्त में बोले- ‘हे लम्बोदर! हे गणपते! हम आपकी शरण हैं, हमारे विघ्नों को नष्ट कर दीजिए।’
गणेशजी ने कहा- ‘देवगण, चिन्ता न करो।
अब तुम्हारे यज्ञ में कोई विघ्न उपस्थित न होगा।
सभी बाधाओं का अन्त हो चुका है। अपना यज्ञ आरम्भ करो।’
यह कहकर वरदराज अन्तर्धान हो गये।
देवताओं ने उनकी प्रतिमा स्थापित कर पुनः पूजन किया और पुष्पांजलि आदि द्वारा सन्तुष्ट करके यज्ञानुष्ठान का अभ्यास किया।
इस बार उनके यज्ञ में कोई बाधा उपस्थित नहीं हुई।
यज्ञ के निर्विघ्न रूप से सम्पूर्ण होने पर देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे हर्ष-विभोर हृदय से विघ्ननाशक वरदराज का जय-जयकार करने लगे।
श्रीराधाजी ने गणपति की पूजा की
शौनकजी बोले-
‘हे सूतजी! आपने भगवान् वरदराज के पूजन का यह सुन्दर उपाख्यान सुनाया।
इससे मैं बहुत ही आनन्दित हो रहा हूँ।
अब इनकी अन्य कथाएँ सुनाने की कृपा कीजिए।’
सूतजी बोले-
‘हे शौनक जी! विघ्नराज का पूजन सभी युगों में और सभी विशिष्टजनों द्वारा होता आया है।
देखो, एक बार भगवान् श्रीकृष्ण की योगमाया और प्रधान प्रियतमा श्रीराधाजी ने भी उनका पूजन किया था।’
सूतजी बोले- ‘देखो शौनक! सिद्धाश्रम नामक सिद्ध क्षेत्र की महिमा संसार-प्रसिद्ध है।
श्रीसनत्कुमार ने वहीं रहकर सिद्धि प्राप्त की थी।
स्वयं ब्रह्माजी ने भी वहाँ तपस्या करके इच्छित वर प्राप्त किया था।
इन्द्र भी वहाँ तप करके सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं।
वहाँ भगवान् गणपति का निवास है।
एक बार वैशाखी पूर्णिमा के पुण्य अवसर पर माता पार्वती और पिता महेश्वर के साथ गणेशजी सिद्धाश्रम में ही थे।
उस अवसर पर ब्रह्मादि सभी देवगण, ऋषि-मुनिगण, चारण, सिद्ध-गन्धर्व आदि गणपति पूजन के लिए उपस्थित हुए थे।
उसी पुण्य अवसर पर सब प्रमुख द्वारिकावासियों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण और ब्रजवासियों के साथ नन्दजी भी वहाँ आये थे।
गोलोकवासिनी गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की प्राणवल्लभा श्रीराधाजी भी वहाँ आई थीं।
उन्होंने स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण किए तदुपरान्त अपने चरणों को धोया और व्रतोपवास पूर्वक मणि-मण्डप में प्रविष्ट हुईं।
रासेश्वरी श्रीराधा को भगवान् श्रीकृष्ण की कामना थी- इसलिए उन्होंने भगवान् की प्राप्ति करने के उद्देश्य से गजानन के पूजन का संकल्प लिया।
श्रीगणपति का षोड़शोपचारों से पूजन किया तथा इस प्रकार स्तुति करने लगीं-
“खर्वं लम्बोदरं स्थूलं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा।
गजवक्त्रं वह्निवर्णमेकदन्तमनन्तकम्।।
शरणागत दीनार्तं परित्राणपरायणम्।
ध्यायेद् ध्यानात्मकं साध्यं भक्तेशं भक्तवत्सलम्॥”
‘श्रीगजानन खर्व (लघुकाय), लम्बोदर, स्थूलकाय, ब्रह्मतेज से सम्पन्न, गजमुख, अग्नि के समान कांति वाले, एकदन्त तथा अनन्त हैं।
जो शरणागत, दीन तथा आर्त्तजनों के दुःख दूर करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, उन ध्यानात्मक, साध्य, भक्तों के ईश्वर तथा भक्तवत्सल भगवान् गणपति का ध्यान करना चाहिए।’
इस प्रकार ध्यानादि करके श्रीराधाजी ने विधिवत् पूजन आरम्भ किया।
शीतल तीर्थजल, दूर्वा, अक्षत, श्वेत सुरभित पुष्प, चन्दन युक्त सुगन्धित अर्घ्य, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, अन्न, मोदक रूप विविध व्यञ्जन, रत्नसिंहासन, वस्त्र, आभूषण, मधुपर्क, ताम्बूल, शय्या आदि सामग्री के समर्पण द्वारा उनका षोड़शोपचार पूजन किया और फिर निम्न मन्त्र का एक हजार बार जप किया-
ॐ गं गं गणपतये विघ्नविनाशिने स्वाहा।
जप करने के पश्चात् उन्होंने दशांश हवन और ब्राह्मण भोजन कराया तथा उसके बाद राधाजी के नेत्र प्रभु वियोग में अश्रुपूर्ण हो गए।
उन्होंने गद्गद कण्ठ से गणेशजी का पुनः स्तवन किया-
“परंधाम परंब्रह्म परेशं परमीश्वरम्।
विघ्ननिघ्नकरं शान्तं पुष्टं कान्तमनन्तकम्॥
सुरासुरेन्द्र-सिद्धेन्द्रैः स्तुतं स्तौमि परात्परम्।
सुरपद्मदिनेशं च गणेशं मङ्गलायनम्॥”
‘जो भगवान् गणपति परमधामरूप, परमब्रह्म परेश, परमेश्वर, विघ्न विनाशक, शान्त, पुष्ट, मनोहर और अनन्त हैं, तथा सुर, असुर, सिद्धेश्वर आदि जिनकी स्तुति करते हैं और जो देवतारूप कमल के लिए सूर्यरूप मंगलों के घर हैं, उन परात्पर श्रीगणेशजी की मैं वन्दना करती हूँ।
इस प्रकार श्रीराधाजी ने विघ्नविनाशक स्तोत्र का उच्चारण करके गणेशजी को प्रणाम किया।
तब उनकी स्तुति से प्रसन्न हुए विघ्नविनाशक श्रीगणेशजी प्रकट हो गये
और उन्होंने श्रीराधा जी के प्रति कहा-
‘हे जगज्जननि! आप स्वयं ही ब्रह्मस्वरूपिणी हैं
तथा जगदात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर सदैव निवास करती हैं।
वस्तुतः आपके द्वारा किया गया यह पूजन और स्तोत्र तो लोकशिक्षा के लिए हो सकता है।
माता! आपने जो-जो वस्तुएँ मुझे समर्पित की हैं, वे सब ब्राह्मणों को दे दीजिए।
क्योंकि उन्हें देने से सभी वस्तुएँ अनन्त हो जाती हैं।’
श्रीगणेशजी का यह निर्देश सुनकर श्रीराधा जी ने वे सभी वस्तुएँ ब्राह्मणों को दे दीं।
तत्पश्चात् वरदराज गणेश जी ने भोग लगाया और अभीष्ट पूर्ति का वर प्रदान करते हुए कहा-
‘माता! जिस कामना से आपने मेरा पूजन किया है, वह शीघ्र ही पूर्ण होगी।’
इस प्रकार वर देकर श्रीगणेशजी अन्तर्धान हो गये।
तब रासेश्वरी ने वहाँ जाकर पुनः वरदराज का पूजन कर अभीष्ट प्राप्त किया।
हे शौनक! तुमने गणेशजी के विषय में पूछा वह मैंने बता दिया।
अब और क्या सुनना चाहते हो?’
शौनक जी उक्त कथा सुनते हुए अत्यन्त विस्मित और हर्षित हो रहे थे।
उन्होंने सूतजी को पुनः प्रणाम किया और गद्गद कंठ से हाथ जोड़कर बोले-
‘प्रभो! मुझे उन महामहिम गणेश जी की वह कथा सुनाइए जिसमें उन्होंने चन्द्रमा को शाप दे दिया था।