गणेश पुराण – पंचम खण्ड – अध्याय – 10


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देवान्तक का काशी पर आक्रमण

देवान्तक की विशाल सेना ने काशी पर भयंकर रूप में आक्रमण कर दिया।

परन्तु नरान्तक की मृत्यु के कारण निर्भय और अत्यन्त उत्साहित हुए काशीवासियों को उनसे विशेष चिन्ता नहीं हुई।

उन्हें विश्वास था कि भगवान् विनायक की कृपा से देवान्तक का भी विनाश हो जायेगा।

इसलिए सभी वीर दैत्यसेना से लोहा लेने के लिए सब प्रकार तैयार थे।

काशिराज ने विनायक की आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक समझा।

उस समय वे बालकों के साथ खेल रहे थे।

महाराज ने उनके चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया- ‘प्रभो! नरान्तक का बड़ा भाई देवान्तक चढ़ आया है।

यह नरान्तक से भी अधिक दुराधर्ष और क्रूर है।

इसलिए रक्षा का जो उपाय हो वह कीजिए।’

विनायक ने आदेश भरे स्वर में कहा- ‘अपनी सेना को शत्रु के समक्ष भेजो राजन्! परन्तु ध्यान रहे कि समागत दैत्य के पराभवार्थ कुछ देवियाँ आ रही हैं।

जब वे आ जायें, तब आपकी सेना उनके पीछे रहती हुई निर्देश पालन करें।’

महाराज ने अपने प्रधान सेनापति को यह बात समझा दी और तब स्वयं भी रणक्षेत्र के लिए चल पड़े।

उन्होंने देखा दैत्यसेना नरान्तक की सेना से भी अधिक एवं समस्त साधनों से सम्पन्न थी।

जिधर दृष्टि डालो उधर दैत्य ही दैत्य दिखाई देते थे।

इस स्थिति ने काशिराज को शंकित और भयभीत बना दिया।


शक्तियों की विशाल सेना और पराक्रम

उधर भगवान् विनायक ने विशाल रूप धारण कर सिद्धि-बुद्धि का स्मरण किया।

दोनों तुरन्त उपस्थित हुईं।

तभी उन्होंने सिद्धि को आदेश दिया- ‘इन दैत्यों के विनाशार्थ एक विशाल सेना की आवश्यकता होगी।

साथ ही सैन्य सञ्चालन भी ठीक प्रकार से हो सके।

इसकी भी व्यवस्था की जाय।’

आदेश मिलते ही सिद्धि देवी ने देवान्तक की सेना के निकट जाकर भयंकर गर्जना कीं, जिससे समस्त दिशाएँ एवं धरती-आकाश कम्पायमान हो गए।

उसी समय स्त्रियों की आठ विशाल सेनाएँ प्रकट हो गईं, जिनका नेतृत्व अणिमा आदि प्रसिद्ध अष्ट सिद्धियाँ कर रही थीं।

देवान्तक उन नारी-सेनाओं को देखकर बहुत घबराया।

उसने सोचा- ‘पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों से युद्ध करना अधिक कठिन है।

यदि हम उन्हें जीत भी लें तो कोई यश नहीं मिलेगा।

सभी कहेंगे कि यह कैसे वीर हैं जो स्त्रियों से युद्ध करते हैं? इसके विपरीत, यदि इनसे हार गये तब तो प्रत्यक्ष ही मरण है।

फिर तो वीरता की शान ही समाप्त हो जायेगी।

उससे तो नितान्त निन्दा ही हाथ लगेगी।’

उसके विचार का अनुमोदन किया एक सेनापति ने जो स्त्रियों से युद्ध करना हेय समझता था।

साथ ही उसने यह भी कहा- ‘स्वर्गाधिप! यह सभी स्त्रियाँ हमें मार डालने या स्वयं मर जाने के लिए प्रस्तुत हैं।

यह किसी भी प्रकार से हटने वाली नहीं हैं।

इसलिए शीघ्र ही हमें अपने कर्त्तव्य का निश्चय करना चाहिए।’

तभी एक अन्य सेनापति ने कहा- ‘राजन्! इन स्त्रियों से तो हम निपट लेंगे, आप तो सेना के पीछे की ओर जाकर संचालन व्यवस्था को देखें।

अपने साम्राज्य और सम्मान की रक्षा के लिए युद्ध तो करना ही होगा।’


असुरों की हार

देवान्तक के आठ प्रबल सेनापति थे-कर्दम, कालान्तक, घण्टासुर, तालजंघ, दुर्जय, यक्ष्म और रक्तकेश।

इनमें से एक-एक योद्धा एक-एक सिद्धि के सामने जा डटा।

उसी समय देवियों और दैत्यों में घोर युद्ध होने लगा।

काशिराज की सेना आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी हुई उस अद्भुत युद्ध को देख रही थी।

उस भयंकर युद्ध में दैत्यसेना गाजर-मूली के समान कटती जा रही थी।

अणिमा ने कर्दम को, प्रकाम्या ने कालान्तक को तथा महिमा, गरिमा ने क्रमशः यक्ष्म, तालजंघ और दीर्घदन्त को मार डाला।

फिर तो चारों दैत्य सेनापति भी शीघ्र ही मारे गये।

किन्तु असुरसेना निराश न हुई।

इस प्रकार तीन दिन-रात्रि भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें अधिकांश असुरसेना का विनाश हो गया।

अब देवान्तक को बड़ी चिन्ता हुई यह क्या हो रहा है! बड़े-बड़े वीर दैत्य इन अबलाओं के सामने धराशायी हो गए।

इससे तो मेरा साम्राज्य ही खतरे में पड़ गया।

अब तक किसी भी देवता या मनुष्य का साहस नहीं होता था कि छोटे से छोटे दैत्य का भी सामना कर सके।

किन्तु वह पराजय तो मेरे हाथ से इन्द्रासन तक निकाल सकती है।

इसलिए इन स्त्रियों को हराने के लिए मुझे स्वयं ही युद्ध करना होगा।

ऐसा विचार कर उसने तीक्ष्ण तलवार हाथ में लेकर घोर गर्जना की, जिसे सुनकर देवता और मनुष्य सभी काँप गए।

वह तुरन्त ही गरिमा के समक्ष जाकर भयंकर युद्ध करने लगा।

देवियाँ भी पीछे न रहीं, उन्होंने उसकी तलवार ही उड़ा दी।

अब उसने इतनी भीषण बाण-वर्षा की कि आठों सिद्धियाँ मूच्छित होकर गिर गयीं।

यह देखकर देवताओं के दल उनकी सहायता करने और दैत्यों से लड़ने लगे।

सिद्धियों को मूच्छित हुई देखकर विनायक ने बुद्धि को युद्ध की व्यवस्था का आदेश दिया।

बुद्धि देवी ने वहाँ पहुँचकर घोर गर्जना की, जिससे शत्रुओं के हृदय काँप उठे।

तभी बुद्धि देवी के मुख से एक अत्यन्त तेजस्विनी घोर भयंकरी एवं अत्यन्त विशाल मुख वाली देवी प्रकट हुई।

उसके बाल धरती तक फैले थे तथा मुख से अग्नि की लपटें निकल रही थीं।

यह देवी दैत्य-दल में घुसकर जिसे चाहती उसे उठाकर मुख में रख लेती।

इस प्रकार उसने बड़ी शीघ्रतापूर्वक कई-कई राक्षस एक साथ उठाकर मुख में रख लिये।

अब वह जिधर जाती उधर ही दैत्यगण भाग खड़े होते।

फिर भी वह दौड़-दौड़कर बहुतों को पकड़ती और मुख में डाल लेती।

असुर उसे साक्षात् मृत्यु ही समझ रहे थे।

इस प्रकार उसके द्वारा अनगिनती वीरों का संहार करते देख अत्यन्त चिन्तित हुआ देवान्तक उसपर भीषण बाण-वर्षा करने लगा।

किन्तु उन बाणों का उसके शरीर पर कोई प्रभाव ही नहीं था।

देवान्तक के सभी बाण समाप्त हो गए और वह किंकर्तव्यविमूढ़ सोचने लगा कि ‘अब क्या करूँ?’

तभी उसने सुना- ‘अब तू अकेला ही क्या करेगा? मेरे मुख में आकर विश्राम क्यों नहीं करता?’

वह सजग हुआ।

वस्तुतः एक भी दैत्य वहाँ दिखाई न देता था।

उसने सोचा-‘अब भागने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं, अन्यथा प्राण देने होंगे।

इसलिए वह बिना विलम्ब किये हुए द्रुतगति से भाग खड़ा हुआ।’


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