<< गणेश पुराण – अष्टम खण्ड – अध्याय – 5
गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)
विकट अवतार का वर्णन
सूतजी ने पुनः कहा-‘हे हरिभक्त शौनक! भगवान् गणेश्वर का एक अवतार ‘विकट’ नाम से हुआ था।
अब मैं तुम्हें उस अवतार से समबन्धित उपाख्यान सुनाता हूँ-
विकटो नाम विख्यातः कामासुरविदारकः।
मयूरवाहनश्चायं सौरब्रह्मधरः स्मृतः॥”
हे शौनक! भगवान् गणपति के ‘विकट’ नामक अवतार द्वारा कामासुर का संहार हुआ।
यह प्रभु सौरब्रह्म के धारण करने वाले मयूरवाहन कहे जाते हैं।
उनकी कथा निम्न प्रकार है-
एक बार की बात है-जलन्धर नामक असुर बहुत प्रबल हो रहा था।
समस्त संसार उससे त्रस्त था।
उसकी पत्नी वृन्दा पतिव्रता थी, इस कारण जलन्धर का परास्त किया जाना किसी भी प्रकार संभव नहीं था।
तब देवगण सोचने लगे कि किसी प्रकार वृन्दा का पातिव्रत धर्म नष्ट हो तो कार्य चले।
इस कार्य को हाथ में लिया भगवान् विष्णु ने और जलन्धर का रूप बनाकर वृन्दा के भवन में जा पहुँचे।
उस समय जलन्धर रणक्षेत्र में गया हुआ था।
वृन्दा ने विष्णु को पति रूप में देखकर उनका बड़ा सत्कार किया।
उसका स्पर्श करते ही विष्णु का शुक्र स्खलित हो गया, जिससे एक अत्यन्त तेजस्वी असुर की उत्पत्ति हुई।
वह असुर अदृश्य की प्रेरणा से दैत्यगुरु की सेवा में पहुँचा और उन्हें प्रणाम कर एक ओर खड़ा हो गया।
फिर बोला- ‘प्रभो! मुझे शिष्य रूप में स्वीकार कीजिए।’
शुक्राचार्य बोले- ‘तू कामातुरता के कारण उत्पन्न हुआ है, इसलिए तेरा नाम कामासुर होगा।
तू भगवान् शंकर के पञ्चाक्षरी मन्त्र ‘नमः शिवाय’ का अनुष्ठान कर।
कामासुर का वर प्राप्त करना
कामासुर गुरुचरणों में प्रणाम कर निर्जन अरण्य में चला गया और आचार्य द्वारा बताई विधि से पंचाक्षरी मन्त्र के जप-पूर्वक शिवजी को प्रसन्न करने लगा।
उसके कठोरतम तप से सन्तुष्ट हुए देवाधिदेव महादेव प्रकट हो गए।
उनके दर्शन से कृतार्थ हुए कामासुर ने उन्हें प्रणाम कर स्तवन किया फिर विनययुक्त वचनों से बोला- ‘आशुतोष प्रभो! आपने आज मुझे कृतार्थ कर दिया है।
हे नाथ! मैं आपके चरणों की सुदृढ़ भक्ति की याचना करता हूँ।
शिवजी बोले- ‘वह तो तुझे सहज ही प्राप्त हो गई वत्स! अब तेरा अन्य अभीष्ट हो वह भी माँग लो।
मेरे लिए अपने भक्त की अभिलाषा पूर्ण करने में अदेय कुछ भी नहीं है।’
कामासुर ने हर्षपूर्वक निवेदन किया- ‘नाथ! मैं समस्त ब्रह्माण्ड को अपने अधीन करना चाहता हूँ, इसलिए आप वही वर दें जिससे मैं त्रैलोक्याधीश बन सकूँ और मृत्यु को भी जीत लूँ और मुझे कभी किसी का भय विचलित न कर पावे।’
शूलपाणि शंकर बोले- ‘असुर! यद्यपि तुम्हारी याचना तो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, फिर भी मैं तुम्हें वर देता हूँ कि तुम्हारा अभीष्ट अवश्य पूर्ण हो।’
वर देकर आशुतोष प्रभु अन्तर्हित हो गये और कामासुर अपने स्थान को लौटा।
उसने दैत्य शुक्राचार्य को वर प्राप्ति का समस्त वृत्तान्त सुनाया।
उन्होंने उसे दैत्येश्वर के पद पर प्रतिष्ठित कर महिषासुर की पुत्री तृष्णा से उसका विवाह करा दिया।
फिर उस दैत्य ने अपनी सेना एकत्र करनी प्रारम्भ की।
अनेक असुर- योद्धा उसके मित्र और सहायक बन गए।
रावण, शम्बर, महर्षि बलि और दुर्मद, यह उसके पाँच अमात्य थे।
यह अत्यन्त प्रचण्ड, प्रतापी और क्रूर थे।
इनके सामने आने से बड़े-बड़े शूर-वीर भी डरते थे।
कामासुर प्रायः सदैव ही इन्हें अपने पास रखता था।
असुर ने एक सुन्दर एवं सुदृढ़ दुर्ग बनवाकर उसका नाम ‘रतिद’ रखा।
यहीं एक बहुत बड़ी बस्ती पड़ गई थी और सब प्रकार की सामग्री उपलब्ध करने की दृष्टि से इसमें अनेकों भव्य बाजार भी बनाये गये थे।
कामासुर ने इसी नगरी को अपनी राजधानी बनाया।
अब उसने राज्य का विस्तार करने की दृष्टि से पृथ्वी के राजाओं को वशीभूत कर लिया।
फिर स्वर्ग और पाताल पर भी, अधिकार कर लिया।
उसके निरंकुश शासन में धर्म का सर्वत्र लोप तथा झूठ, चोरी, छल-कपट, अपहरण आदि का बोलबाला हो गया।
उपस्थित विपत्ति से छुटकारा पाने के लिए एक गोपनीय स्थान पर देवताओं की सभा जुड़ी थी।
उस अवसर पर देशाटन करते हुए महर्षि मुद्गल भी वहाँ आ गए।
देवताओं ने उनका अर्घ्य-पाद्यादि से पूजन कर निवेदन किया- ‘प्रभो! हम बहुत दुःखित हो रहे हैं, कृपया कामासुर के संहार का कोई उपाय बताने का कष्ट कीजिए।’
महर्षि ने कुछ देर विचार किया और फिर बोले- ‘देवगण! मैं आपको असुर के विनाश का एक अमोघ उपाय बताता हूँ-वह सिद्ध क्षेत्र मयूरेश है न।
वहाँ जाकर भगवान् गणेश्वर की प्रसन्नता के लिए तपस्या करो।
वे प्रभु तुम्हारा सङ्कट अवश्य दूर करेंगे।’
देवताओं ने महर्षि द्वारा बताई हुई विधि से गणेशजी का पूजन कर उनकी उपासना की, जिससे प्रसन्न होकर मयूरवाहन गणराज ने उन्हें दर्शन दिया और बोले- ‘घबराओ मत! मैं कामासुर को पराजित कर तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण करूँगा।’
कामासुर को आत्मसमर्पण
जब यह समाचार कामासुर ने सुना तो वह क्रोधित हो गया।
उसने तुरन्त ही असंख्य दैत्यसेना लेकर देवताओं और मुनियों पर आक्रमण कर दिया।
उसके भीषण प्रहारों से सभी देवगण आदि विचलित होकर मयूरेश्वर विकट को पुकारने लगे।
उन्हें व्याकुल देखकर भगवान् गणेश्वर मयूर पर सवार होकर रणक्षेत्र में पधारे और दैत्यों का विनाश करने लगे।
यह देखकर कामासुर मयूरेश्वर के समक्ष आकर क्रोधपूर्वक बोला- ‘अरे मूर्ख! तू यहाँ प्राण गँवाने के लिए क्यों आ गया है? जा शीघ्र ही मेरी आँखों से ओझल हो जा।
अन्यथा तेरे प्राणों की कुशल नहीं है।’
भगवान् मयूरेश्वर ने कहा- ‘दैत्यराज! अब तक तू बहुत अधर्म कर चुका है, किन्तु मैं तुझे अब अधिक अधर्म नहीं करने दूँगा।
मैं सभी अधर्मों और अधर्मियों का उच्छेद करने वाला तथा धर्म का संस्थापक हूँ।
यदि तुझे जीवित रहने की इच्छा हो तो समस्त दोषों को त्यागकर मेरी शरण में आ।’
कामासुर का क्रोध बढ़ गया, उसने मयूरवाहन गणेश्वर पर एक भयंकर गदा फेंकी, किन्तु वह गदा भगवान् के चरणों के समीप जा गिरी।
दूसरी बार पुनः उसने एक शक्ति का क्षेपण किया, उसकी भी वही दशा हुई।
तभी उसे शुक्राचार्य के वचनों का स्मरण हुआ।
उन्होंने कहा था- ‘राजन्! यदि भगवान् मयूरवाहन युद्ध में आ जायें तो तुम उनकी शरण ले लेना।
क्योंकि वे ही सर्ग, स्थिति और प्रलय के कारण रूप आदिदेव गणेश्वर हैं।
उनपर तुम्हारा कोई वश नहीं चलेगा।’
कामासुर ने तुरन्त ही प्रभु के चरण पकड़ लिये और अपने अपराधों की क्षमा माँगने लगा।
भगवान् गणेश्वर ने भी कृपापूर्वक उसे अपनी भक्ति प्रदान की।