दुर्गा सप्तशती अध्याय 4 - हिंदी में - देवी से प्रार्थना

Durga Saptashati – Adhyay 04 in Hindi


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दुर्गा सप्तशती अध्याय 4 में,
इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति की गयी है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से
इस अध्याय में 42 श्लोक आते हैं।


इस पेज में दुर्गा सप्तशती अध्याय – 4 हिंदी में दिया गया है। इस अध्याय के संस्कृत श्लोक अर्थसहित पढ़ने के लिए क्लिक करें –

दुर्गा सप्तशती अध्याय – 4 श्लोक अर्थसहित


दुर्गा सप्तशती अध्याय 4 का ध्यान

सिद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुष जिनकी सेवा करते हैं तथा देवता जिन्हें सब ओरसे घेरे रहते हैं, उन – जया – नामवाली दुर्गा देवीका ध्यान करे।

उनके श्रीअंगोकी आभा काले मेघके समान श्याम है।

वे अपने कटाक्षोंसे शत्रुसमूहको भय प्रदान करती हैं।

उनके मस्तकपर आबद्ध चन्द्रमाकी रेखा शोभा पाती है।

वे अपने हाथोंमें शुद्ध चक्र, कृपाण और त्रिशूल धारण करती हैं।

उनके तीन नेत्र हैं।

वे सिंहके कंधेपर चढ़ी हुई हैं और अपने तेजसे तीनों लोकोंको परिपूर्ण कर रही हैं।


ऋषि कहते हैं –
अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसकी दैत्य-सेनाके देवीके हाथसे मारे जानेपर इन्द्र आदि देवता प्रणामके लिये गर्दन तथा कंधे झुकाकर उन भगवती दुर्गा की उत्तम वचनोंद्वारा स्तुति करने लगे।

उस समय उनके सुन्दर अंगोमे अत्यन्त हर्षके कारण रोमांच हो आया था।

देवता बोले –
संपूर्ण देवताओंकी शक्तिका समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवीने अपनी शक्तिसे संपूर्ण जगत्‌को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियोंकी पूजनीया उन जगदम्बाको हम भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं।

वे हम लोगोंका कल्याण करें।।३।।

जिनके अनुपम प्रभाव और बलका वर्णन करनेमें भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका, सम्पूर्ण जगत्‌का पालन एवं अशुभ भयका नाश करनेका विचार करें।

जो
– पुण्यात्माओंके घरोंमें स्वयं ही लक्ष्मीरूपसे,
– पापियोंके यहाँ दरिद्रतारूपसे,
– शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरूषोंके हृदयमें बुद्धिरूपसे,
– सतपुरुषोंमें श्रद्धारूपसे तथा
– कुलीन मनुष्यमें लज्जारूपसे निवास करती हैं,
उन भगवती दुर्गाको हम नमस्कार करते हैं।

देवि! आप संपूर्ण विश्वका पालन कीजिये।

देवि! आपके इस अचिन्त्य रूपका, असुरोंका नाश करनेवाले भारी पराक्रमका तथा समस्त देवताओं और दैत्योंके समक्ष युद्धमें प्रकट किये हुए आपके अद्भुत चरित्रोंका, हम किस प्रकार वर्णन करें।

आप संपूर्ण जगत्‌की उत्पत्तिमें कारण हैं।

आपमें सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण – ये तीनों गुण मौजूद हैं; तो भी दोषोंके साथ आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता।

भगवान् विष्णु और महादेवजी आदि देवता भी आपका पार नहीं पाते।

आप ही सबका आश्रय हैं। यह समस्त जगत् आपका अंशभूत है; क्योंकि आप सबकी आदिभूत अव्याकृता परा प्रकृति हैं।

देवि! संपूर्ण यज्ञोंमें जिसके उच्चारणसे सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वह स्वाहा आप ही हैं।

इसके अतिरिक्त आप पितरोंकी भी तृप्तिका कारण हैं, अतएव सब लोग आपको स्वधा भी कहते हैं।

देवि! जो मोक्षकी प्राप्तिका साधन है, अचिंत्य महाव्रत स्वरूपा है, वह भगवती आप ही हैं।

समस्त दोषोंसे रहित, जितेन्द्रिय, तत्त्वको ही सार वस्तु माननेवाले तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले मुनिजन, जिसका अभ्यास करते हैं, वह भगवती परा विद्या आप ही हैं।

आप शब्दस्वरूपा हैं। अत्यन्त निर्मल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा उद्‌गीथके मनोहर पदोंके पाठसे युक्त, सामवेदका भी आधार आप ही हैं।

आप देवी, त्रयी (तीनों वेद) और भगवती (छहों ऐश्वर्योंसे युक्त) हैं।

इस विश्वकी उत्पत्ति एवं पालनके लिये आप ही वार्ता (खेती एवं आजीविका) के रूप में प्रकट हुई हैं।

आप सम्यूर्ण जगत्‌की घोर पीड़ाका नाश करनेवाली हैं।

देवि! जिससे समस्त शास्त्रोंके सारका ज्ञान होता है, वह मेधाशक्ति आप ही हैं।

दुर्गम भवसागरसे पार उतारनेवाली नौकारूप दुर्गादेवी भी आप ही हैं।

आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है।

कैटभके शत्रु भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें एकमात्र निवास करनेवाली भगवती लक्ष्मी
तथा भगवान् चन्द्रशेखर द्वारा सम्मानित गौरी देवी भी आप ही हैं।

आपका मुख मन्द मुसकानसे सुशोभित, निर्मल, पूर्ण चन्द्रमाके बिम्बका अनुकरण करनेवाला और उत्तम सुवर्णकी मनोहर कान्तिसे कमनीय है;

तो भी उसे देखकर महिषासुरको क्रोध हुआ और सहसा उसने उसपर प्रहार कर दिया, यह बड़े आश्चर्यकी बात है।

देवि! वही मुख जब क्रोधसे युक्त होनेपर उदयकालके चन्द्रमाकी भांति लाल और
तनी हुई भौंहोंके कारण विकराल हो उठा, तब उसे देखकर जो महिषासुरके प्राण तुरंत नहीं निकल गये, यह उससे भी बढ़कर आश्चर्यकी बात है;

क्योंकि क्रोधमें भरे हुए यमराजको देखकर भला कौन जीवित रह सकता है?।

देवि! आप प्रसन्न हों।

परमात्मस्वरूपा, आपके प्रसत्र होनेपर जगत्‌का अभुदय होता है और
क्रोधमें भर जानेपर आप तत्काल ही कितने कुलोंका सर्वनाश कर डालती हैं, यह बात अभी अनुभवमें आयी है;

क्योंकि महिषासुरकी यह विशाल सेना क्षणभरमें आपके कोपसे नष्ट हो गयी है।

सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली, आप जिनपर प्रसन्न रहती हैं, –

वे ही देशमें सम्मानित हैं, उन्हींको धन और यशकी प्राप्ति होती है, उन्हींका धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भाईयोके साथ धन्य माने जाते हैं।

देवि! आपकी ही कृपासे पुण्यात्मा पुरुष प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक, सदा सब प्रकारके धर्मानुकूल कर्म करता है और उसके प्रभावसे स्वर्गलोकमें जाता है।

इसलिये आप तीनों लोकोंमें निश्चय ही मनोवांछित फल देनेवाली हैं।

माँ दुर्गे! आप स्मरण करनेपर सब प्राणियोंका भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषोंद्वारा चिन्तन करनेपर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं।

दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है जिसका चित्त सबका उपकार करनेके लिये सदा ही दयार्द्र रहता हो।

देवि! इन राक्षसोंके मारनेसे संसारको सुख मिले तथा ये राक्षस चिरकालतक नरकमें रहनेके लिये भले ही पाप करते रहे हों, इस समय संग्राममें मृत्युको प्राप्त होकर स्वर्गलोकमें जाये – निश्चय ही यही सोचकर आप शत्रुओंका वध करती हैं।

आप शत्रुओंपर शस्त्रोंका प्रहार क्यों करती हैं?

समस्त असुरोंको दृष्टिपात मात्रसे ही भस्म क्यों नहीं कर देतीं?

इसमें एक रहस्य है।

ये शत्रु भी हमारे शस्त्रोंसे पवित्र होकर उत्तम लोकोंमें जाये, इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यन्त उत्तम रहता है।

खड्‌गके तेज-पूंजकी भयंकर दीप्तिसे तथा आपके त्रिशूलके अग्रभागकी घनीभूत प्रभासे चौंधियाकर, जो असुरोंकी आँखे फूट नहीं गयीं,

उसमें कारण यही था कि वे मनोहर रश्मियोंसे युक्त, चन्द्रमाके समान आनन्द प्रदान करनेवाले आपके इस सुन्दर मुखका दर्शन करते थे।

देवि! आपका शील, दुराचारियोंके बुरे बर्तावको दूर करनेवाला है।

साथ ही यह रूप ऐसा है, जो कभी चिन्तनमें भी नहीं आ सकता और जिसकी कभी दूसरोंसे तुलना भी नहीं हो सकती; तथा आपका बल और पराक्रम तो उन दैत्योंका भी नाश करनेवाला है, जो कभी देवताओंके पराक्रमको भी नष्ट कर चुके थे।

इस प्रकार आपने शत्रुओंपर भी अपनी दया ही प्रकट की है।

वरदायिनी देवि! आपके इस पराक्रमकी किसके साथ तुलना हो सकती है तथा शत्रुओंको भय देनेवाला एवं अत्यन्त मनोहर ऐसा रूप भी आपके सिवा और कहाँ है?

हृदयमें कृपा और युद्धमें निष्ठुरता, ये दोनों बातें तीनों लोकोंके भीतर केवल आपमें ही देखी गयी हैं।

मात:! आपने शत्रुओंका नाश करके इस समस्त त्रिलोकीकी रक्षा की है।

उन शत्रुओंको भी युद्धभूमिमें मारकर स्वर्गलोकमें पहुँचाया है तथा उन्मत्त दैत्योंसे प्राप्त होनेवाले हम लोगोंके भयको भी दूर कर दिया है, आपको हमारा नमस्कार है।

देवि! आप शूलसे हमारी रक्षा करें।

अम्बिके! आप खड़गसे भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टाकी ध्वनि और धनुषकी टंकारसे भी हम लोगोंकी रक्षा करें।

चण्डिके! पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशामें आप हमारी रक्षा करें।

ईश्वरि! अपने त्रिशूलको घुमाकर आप उत्तर दिशामें भी हमारी रक्षा करें।

तीनों लोकोंमें आपके जो परम सुन्दर एवं अत्यन्त भयंकर रूप विचरते रहते हैं, उनके द्वारा भी आप हमारी तथा इस भूलोककी रक्षा करें।

अम्बिके! आपके करमें शोभा पानेवाले खड़ग, शूल और गदा आदि जो-जो अस्त्र हों,
उन सबके द्वारा आप सब ओरसे हमलोगोंकी रक्षा करें।

ऋषि कहते हैं –
इस प्रकार जब देवताओंने जगन्माता दुर्गाकी स्तुति की और नन्दनवनके दिव्य पुष्पों एवं गन्ध-चन्दन आदिके द्वारा उनका पूजन किया,

फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक दिव्य धूपोंकी सुगन्ध निवेदन की, तब देवीने प्रसत्रवदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओंसे कहा।

देवी बोलीं –
देवताओ! तुम सब लोग मुझसे जिस वस्तुकी अभिलाषा रखते हो, उसे माँगो।

देवता बोले –
भगवतीने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी, अब कुछ भी बाकी नहीं है।

क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया।

महेश्वरि! इतनेपर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं।

तो हम जब-जब आपका स्मरण करें, तब-तब आप दर्शन देकर हम लोगोंके महान् संकट दूर कर दिया करें तथा

प्रसत्रमुखी अम्बिके! जो मनुष्य इन स्तोत्रोंद्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देनेके साथ ही उसकी धन आदि सम्पत्तिको भी बढ़ानेके लिये आप सदा हमपर प्रसत्र रहें।

ऋषि कहते हैं –
राजन्! देवताओंने जब अपने तथा जगत्‌के कल्याणके लिये, भद्रकाली देवीको इस प्रकार प्रसन्न किया, तब वे – तथास्तु – कहकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं।

भूपाल! इस प्रकार पूर्वकालमें तीनों लोकोंका हित चाहनेवाली देवी जिस प्रकार देवताओंके शरीरोंसे प्रकट हुई थीं, वह सब कथा मैंने कह सुनायी।

अब पुन: देवताओंका उपकार करनेवाली वे देवी, दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ-निशुम्भका वध करने एवं सब लोकोंकी रक्षा करनेके लिये गौरीदेवीके शरीरसे जिस प्रकार प्रकट हुई थीं, वह सब प्रसंग मेरे मुँहसे सुनो।

मैं उसका तुमसे यथावत् वर्णन करता हूँ।

इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में, सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत, देवी-महात्म्य में चौथा अध्याय पूरा हुआ।


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दुर्गा सप्तशती अध्याय (हिंदी में) – 05


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