दुर्गा सप्तशती अध्याय लिंक - अध्याय 1 | अध्याय 2 | अध्याय 3 | अध्याय 4 | अध्याय 5 | अध्याय 6 | अध्याय 7 | अध्याय 8 | अध्याय 9 | अध्याय 10 | अध्याय 11 | अध्याय 12 | अध्याय 13
दुर्गा सप्तशती सात सौ श्वोकोंका संग्रह है और उन सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है।
सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस पहले अध्याय में 104 श्लोक आते हैं।
इस अध्याय में भगवती महामाया के प्रभाव से किस प्रकार मनुष्य मोह, माया और संसार के बंधनों में फँस जाता है, यह बताया गया है। साथ ही साथ देवी भगवती की महिमा और उनके स्वरुप, और मधु और कैटभ राक्षसों के संहार का भी वर्णन है।
इस पेज में दुर्गा सप्तशती अध्याय – 1 हिंदी में दिया गया है। इस अध्याय के संस्कृत श्लोक अर्थसहित पढ़ने के लिए क्लिक करें –
दुर्गा सप्तशती अध्याय – 1 श्लोक अर्थसहित
विनियोग और ध्यान
विनियोग
श्रीमहाकाली देवी की प्रसत्रताके लिये, पहले अध्याय का विनियोग इस प्रकार है –
ॐ – प्रथम चरित्रके ब्रह्मा ऋषि, महाकाली देवता, गायत्री छन्द, नन्दा शक्ति, रक्तदन्तिका बीज, अग्रि तत्त्व और ऋग्वेद स्वरूप है।
श्रीमहाकाली देवताकी प्रसत्रताके लिये, प्रथम चरित्रके जपमें विनियोग किया जाता है।
ध्यान
भगवान् विष्णुके सो जानेपर मधु और कैटभको मारनेके लिये, कमलजन्मा ब्रह्माजीने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवीका मैं ध्यान करता (करती) हूँ।
वे अपने दस हाथोंमें, खड़ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शङ्ख धारण करती हैं।
उनके तीन नेत्र हैं।
वे समस्त अंगो मे दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं।
उनके शरीरकी कान्ति नीलमणिके समान है, तथा वे दस मुख और दस पैरोंसे युक्त हैं।
ॐ चण्डीदेवीको नमस्कार है।
राजा सुरथ और समाधि की कथा
मार्कण्डेयजी बोले –
सूर्य के पुत्र साविर्णि, जो आठवें मनु कहे जाते हैं, उनकी उत्पत्ति की कथा विस्तार पूर्वक कहता हूँ, सुनो।
कैसे भगवती महामाया के कृपा से सूर्यकुमार महाभाग सवर्णि मन्वन्तर के स्वामी हुए, वही प्रसंग सुनाता हूँ।
मन्वन्तर एक संस्कॄत शब्द है, जिसका अर्थ मनु+अन्तर होता है
मूल अर्थ है – मनु की आयु
पूर्वकाल की बात है, सुरथ नाम के एक राजा थे, जो चैत्र वंश में उत्पन्न हुए थे।
उनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार था ।
वे प्रजा का अपने पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक पालन करते थे।
फिर भी उस समय कोलाविध्वंसी क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये।
राजा सुरथ की दण्डनीति बड़ी प्रबल थी।
उनका शत्रुओं के साथ संग्राम हुआ।
यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्या में कम थे, तो भी राजा सुरथ युद्ध में उनसे परास्त हो गये।
तब वे युद्ध भूमि से अपने नगर को लौट आये और केवल अपने देश के राजा होकर रहने लगे।
समूची पृथ्वी से अब उनका अधिकार जाता रहा।
किंतु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओं ने महाभाग राजा सुरथ पर आक्रमण कर दिया।
राजा का बल क्षीण हो चला था, इसलिये उनके दुष्ट एवं दुरात्मा मंत्रियों ने वहाँ उनकी राजधानी में भी राजकीय सेना और खजाने को वहाँ से हथिया लिया।
सुरथ का प्रभुत्व नष्ट हो चुका था।
इसलिये वे शिकार खेलने के बहाने, घोड़े पर सवार हो, वहाँ से अकेले ही एक घने जंगल में चले गये।
वहाँ उन्होंने मेधा मुनि का आश्रम देखा।
जहाँ कितने ही हिंसक जीव अपनी स्वाभाविक हिंसावृत्ति छोड़कर परम शान्त भाव से रह रहे थे।
मुनि के बहुत से शिष्य उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे।
वहां जाने पर मुनि ने उनका सत्कार किया।
उन मुनिश्रेष्ठ के आश्रम में राजा सुरथ इधर-उधर विचरते हुए कुछ काल तक वहां रहे।
राजा सुरथ की चिंताएं
फिर ममता से आकृष्टचित्त होकर उस आश्रम में इस प्रकार चिंता करने लगे –
पूर्वकाल में मेरे पूर्वजों ने जिसका पालन किया था, वहीं नगर आज मुझसे रहित है।
पता नहीं मेरे दुराचारी मंत्रीगण उसकी धर्मपूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं।
जो सदा मद की वर्षा करने वाला और शूरवीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओं के अधीन होकर न जाने किन भोगों को भोगता होगा?
जो लोग मेरी कृपा, धन और भोजन पाने से सदा मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओं को अनुसरण करते होंगे।
उन अपव्ययी लोगों के द्वारा खर्च होते रहने के कारण अत्यन्त कष्ट से जमा किया हुआ मेरा वह खजाना भी खाली हो जायेगा।
ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरंतर सोचते रहते थे।
अब, वैश्य समाधि (धनी व्यापारी) का प्रसंग
एक दिन उन्होंने वहाँ मेधा मुनि के आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा, और उससे पूछा – भाई, तुम कौन हो?
- वैश्य अर्थात – व्यापारी समुदाय, व्यापार करनेवाला
तुम्हारे यहां आने का क्या कारण है?
तुम क्यों शोकग्रस्त और अनमने से दिखायी देते हो?
राजा सुरथ का यह प्रेम पूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्य ने विनीत भाव से उन्हें प्रणाम करके कहा –
वैश्य बोला –
राजन्! मैं धनियों के कुल में उत्पन्न एक वैश्य हूँ।
मेरा नाम समाधि है।
वैश्य समाधि का दुःख
मेरे दुष्ट स्त्री और पुत्रों ने धन के लोभ से मुझे घर से बाहर निकाल दिया है।
मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्र से वंचित हूँ।
मेरे विश्वसनीय बंधुओं ने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है।
इसलिये दुखी होकर मैं वन में चला आया हँ।
यहाँ रहकर मैं इस बात को नहीं जानता कि मेरे पुत्रों का, स्त्री का और स्वजनों का कुशल है या नहीं।
इस समय घर में वे कुशल से रहते हैं, अथवा उन्हें कोई कष्ट है?
वे मेरे पुत्र कैसे हैं? क्या वे सदाचारी हैं, अथवा दुराचारी हो गये हैं?
राजा ने पूछा –
जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदि ने धन के कारण तुम्हें घर से निकाल दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित्त में इतना स्नेह क्यों है?
वैश्य बोला –
आप मेरे विषय में जो बात कहते हैं वह सब ठीक है।
अर्थात, जिन लोभी रिश्तेदारों ने वैश्य को धन के लोभ में घर से निकाल दिया, उनके प्रति मन में स्नेह के विचार क्यों आ रहे है।
किंतु क्या करूँ, मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता।
जिन्होंने धन के लोभ में पड़कर पिता के प्रति स्नेह, पति के प्रति प्रेम तथा आत्मीयजन के प्रति अनुराग को तिलांजलि दे मुझे घर से निकाल दिया है, उन्हीं के प्रति मेरे हृदय में इतना स्नेह है।
महामते, गुणहीन बन्धुओं के प्रति भी जो मेरा चित्त इस प्रकार प्रेम मग्न हो रहा है, यह क्या है – इस बात को मैं जानकर भी नहीं जान पाता।
उनके लिये मैं लंबी साँसें ले रहा हूँ और मेरा हृदय अत्यन्त दुःखी हो रहा है।
उन लोगों में प्रेम का सर्वथा अभाव है, तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नहीं हो पाता, इसके लिये क्या करुँ।
राजा और वैश्य का मेधा मुनि से सलाह लेना
मार्कण्डेयजी कहते हैं –
तदन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य, दोनों साथ-साथ मेधा मुनि की सेवा में उपस्थित हुए, और उन्हें प्रणाम करके उनके सामने बैठ गए।
तत्पश्चात वैश्य और राजा ने कुछ वार्तालाप आरंभ किया।
उन्हें प्रणाम करके उनके सामने बैठ गए।
तत्पश्चात वैश्य और राजा ने कुछ वार्तालाप आरंभ किया।
राजा ने कहा –
भगवन्! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये।
मेरा चित्त अपने अधीन न होने के कारण वह बात मेरे मन को बहुत दु:ख देती है।
मुनिश्रेष्ठ, जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरी ममता बनी हुई है।
यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिये दु:ख होता है, यह क्या है?
इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है।
इसके पुत्र, स्त्री और भृत्यों ने, इसको छोड़ दिया है।
स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है, तो भी इसके हृदय में उनके प्रति अत्यन्त स्नेह है।
इस प्रकार यह तथा मैं दोनों ही बहुत दुखी हैं।
जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है उस विषय के लिये भी हमारे मन में ममताजनित आकर्षण पैदा हो रहा है।
महाभाग! हम दोनों समझदार है; तो भी हममें जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है?
विवेकशून्य पुरुष (अर्थात जिसमे विवेक या अच्छा बुरा सोचने की क्षमता ना हो) की भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है।
भगवती महामाया की महिमा
ऋषि बोले –
महाभाग! विषय मार्ग का ज्ञान सब जीवों को है।
इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग-अलग हैं।
कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते और दूसरे रात में ही नहीं देखते।
तथा कुछ जीव ऐसे हैं, जो दिन और रात्रि में भी बराबर ही देखते हैं।
यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं, किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते।
पशु-पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं।
मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है।
तथा जैसी मनुष्यों की होती है, वैसी ही उन मृग-पक्षी आदि की होती है।
यह तथा अन्य बातें भी प्राय: दोनों में समान ही हैं।
समझ होने पर भी इन पक्षियों को तो देखो, यह स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी
मोहवश बच्चों की चोंच में कितने चाव से अन्न के दाने डाल रहे हैं।
नरश्रेष्ठ, क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी, लोभवश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिये पुत्रों की अभिलाषा करते हैं?
यद्यपि उन सबमें समझ की कमी नहीं है, लेकिन वे संसार की स्थिति अर्थात जन्म-मरण की परम्परा बनाये रखने वाले भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा, ममतामय भँवर से युक्त मोह के गहरे गर्त में गिराये जाते हैं।
इसलिये, इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये।
जगदीश्वर भगवान विष्णु की योगनिद्रारूपा जो भगवती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत मोहित हो रहा है।
वे भगवती महामाया देवी, ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं।
वे ही इस संपूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करती हैं, तथा वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति के लिये वरदान देती हैं।
वे ही पराविद्या, संसार-बंधन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी देवी, तथा संपूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं।
राजा ने पूछा –
भगवन! जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं?
ब्रह्मन्! उनका अविर्भाव कैसे हुआ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं।
ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे, उन देवी का जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ हो, वह सब मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ।
ऋषि बोले –
राजन्! वास्तव मे तो वे देवी नित्यस्वरूपा ही हैं।
सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर रखा है, लेकिन उनका प्राकटय अनेक प्रकार से होता है। वह मुझ से सुनो।
यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओं को कार्य सिद्ध करने के लिये प्रकट होती हैं, उस समय लोक में उत्पन्न हुई कहलाती हैं।
मधु और कैटभ के संहार का प्रसंग
कल्प (प्रलय) के अन्त में सम्पूर्ण जगत् जल में डूबा हुआ था।
सबके प्रभु भगवान विष्णु, शेषनाग की शय्या बिछाकर, योगनिद्रा का आश्रय ले शयन कर रहे थे।
उस समय उनके कानों की मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मुध और कैटभ के नाम से विख्यात थे।
वे दोनों ब्रह्मा जी का वध करने को तैयार हो गये।
प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया, और भगवान को सोया हुआ देखा, तो सोचा की मुझे कौन बचाएगा।
एकाग्रचित्त होकर ब्रम्हाजी, भगवान विष्णु को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति करने लगे, जो विष्णु भगवान को सुला रही थी।
देवी भगवती की महिमा, उनका प्रभाव और उनके स्वरुप
जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली, तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की ब्रह्माजी स्तुति करने लगे।
ब्रह्मा जी ने कहा –
देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तम्ही वषट्कार हो।
स्वर भी, तुम्हारे ही स्वरूप हैं।
तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो।
नित्य अक्षर प्रणव में, अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो, तथा
इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो।
देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो।
देवि! तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो।
तुम से ही इस जगत की सृष्टि होती है।
तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्ही कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।
जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पप्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।
तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोह रूपा, महादेवी और महासुरी हो।
तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो।
भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।
तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्रीं और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो।
लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो।
तुम खङ्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो।
बाण, भुशुण्डी और परिघ – ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।
तुम सौम्य और सौम्यतर हो।
- सौम्य अर्थात विनम्रता, शीतलता, सुशीलता, कोमलता
इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्याधिक सुन्दरी हो।
पर और अपर, इन सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।
सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो।
ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है।
जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तो तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है।
मुझको, भगवान शंकर को तथा भगवान विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है।
अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है।
देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो।
ये जो दोनों असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो, और जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो।
साथ ही इनके भीतर इन दोनों असुरों को, मधु और कैटभ को, मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
ऋषि कहते हैं –
राजन्! जब ब्रह्मा जी ने वहाँ मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से, भगवान विष्णु को जगाने के लिए, तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की,
तब वे भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष स्थल से निकलकर, अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खडी हो गयी।
योगनिद्रा से मुक्त होने पर जगत के स्वामी भगवान जनार्दन, उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे।
फिर उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा।
वे दुरात्मा, मधु और कैटभ, अत्यन्त बलवान तथा परक्रमी थे और क्रोध से ऑंखें लाल किये ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे।
तब भगवान श्री हरि ने उठकर उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षों तक केवल बाहु युद्ध किया।
वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे।
तब महामाया ने उन्हें (मधु और कैटभ को) मोह में डाल दिया।
और वे भगवान विष्णु से कहने लगे – हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं। तुम हम लोगों से कोई वर माँगो।
श्री भगवान् बोले –
यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो, तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ।
बस इतना सा ही मैंने वर माँगा है।
यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है।
ऋषि कहते हैं –
उन दैत्योको को अब अपनी भूल मालूम पड़ी।
उन्होंने देखा की सब जगह पानी ही पानी है और कही भी सुखा स्थान नहीं दिखाई दे रहा है।
- कल्प – प्रलय के अन्त में सम्पूर्ण जगत् जल में डूबा हुआ था।
तब कमलनयन भगवान से कहा –
जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो, जहाँ सूखा स्थान हो, वही हमारा वध करो।
ऋषि कहते हैं- तब तथास्तु कहकर, शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्रसे काट डाले।
इस प्रकार ये देवी महामाया, ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं।
अब पुनः तुम से उनके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सो सुनो।
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
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Durga Bhajan, Aarti, Chalisa
- अम्बे तू है जगदम्बे काली - दुर्गा माँ की आरती
- या देवी सर्वभूतेषु मंत्र - दुर्गा मंत्र - अर्थ सहित
- जगजननी जय जय माँ - अर्थसहित
- जगजननी जय जय माँ, जगजननी जय जय
- आरती जगजननी मैं तेरी गाऊं
- आये तेरे भवन, देदे अपनी शरण
- भोर भई दिन चढ़ गया, मेरी अम्बे
- मन लेके आया मातारानी के भवन में
- माँ जगदम्बा की करो आरती
- आरती माँ आरती, नवदुर्गा तेरी आरती
- मात अंग चोला साजे, हर एक रंग चोला साजे
- धरती गगन में होती है, तेरी जय जयकार
- कभी फुर्सत हो तो जगदम्बे
- तेरे दरबार में मैया ख़ुशी मिलती है
- सच्ची है तू सच्चा तेरा दरबार
- मन तेरा मंदिर आखेँ दिया बाती
- चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है